आज भी यहीं कहीं है गोपाल बाबू गोस्वामी की जादुई आवाज
वेद विलास उनियाल
पहाडी अंचल की कोई मधुर पुकार थी वो। गजब सा सम्मोहन था उस आवाज में। उस गायकी में। वह सीखी हुई नहीं , प्रकृति से मिली हुई गायकी थी। वो सुंदर सा आलाप मानो दूर शिखरों से आता हुआ , बांझ बुरांश के पेडों से लिपट कर आता हुआ कोई स्वर । कुछ ऐसा मानो काली गंगा की कल कल की ध्वनि का सा आभास कराता। घुघुती के स्वर से अपने स्वर मिलाता हुआ।
पर्वतीय अंचल में ऐसी गायकी जिसने सबको मंत्रमुग्ध किया हो। गोपाल बाबू गोस्वामी ने जब भी कोई गीत गाया पूरा पहाड उसमें झलकता हुआ दिखा। वो गीत पहाडों के सुख दुख के थे, वो गीत मेलों के थे । वो गीत उस विरहणी के थे जो सीमा पर लड रहे अपने पति की याद में गा रही थी . कैले बजे मुरूली ओ बैणा, ऊंची ऊंची डांडियों मां। ( ये ऊंचे ऊंचे पहाडों में किसने मुरली की धुन छेड़ ली वो बहना , मुझे अपने पति की याद आने लगी , वो सीमा पर लडाई ल़़ड रहे हैं।)
वो गीत पहाडों के आंगन के थे , कहीं आशा और उमंग में पहाड की एक सुबह का स्वागत करते, घुर घुर उजलों ह्वेगो चम चम को घाम। वो गीत काली गंगा के थे, वो गीत इन पहाडी अंचलों में प्यार की आहट को समझते हुए कह जाते थे , हाय तेरु रुमाल गुलाबी मुखुडी। कै भली छाजी से नाके की नथुली । ( तेरे रुमाल और गुलाबी चेहरे का क्या कहना। तुूने जो नाक में नथुली पहनी है उसका क्या कहना।
बरबस याद आती हैं उस महान कलाकार की। उनके गीतों की। उन अलापों की। उस बांसुरी की। जीवन में आकर जिन सुंदर अनुभूतियों को महसूस किया उनमें गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत भी है। किसी गैर पहाड के व्यक्ति को अगर अपने पहाड से रूबरू कराना होगा पहाडी अंचल की सुंदरता अहसास को उसे बताना होगा तो मैं कुछ नहीं बुरांश का एक फूल और बाबू गोपाल गोस्वामी का कोई गीत उसे एलबम से सुना दूंगा।
हाल में एक आयोजन में कल्लोल चक्रवर्तीजी के साथ अल्मोडा नैनीताल जाना हुआ था। एक रेस्त्रा में चाय पीते हुए मैंने यूं ही मोबाइल से गोपाल बाबू गोस्वामी का घुघुती ना बासा आम की डाली मा ( घुघुती आम की डाली में बैठकर मत गाओ मुझे अपनो की याद आती है ) गीत को लगाया , जैसे ही वह स्वर गूंजा सब आसपास आ गए। कुछ के लिए वो एक पुराना यादों में बसा गीत था , कुछ पहली बार सुन रहे थे। लेकिन उस गीत का सम्मोहन था कि एक साठ साल के वृद्ध ने मुझे कहा, बेटा एक बार और सुना दो यह गीत।
गोपाल बाबू गोस्वामी प्रख्यात रंगकर्मी मोहन उप्रेती और ब्रजलाल शाह जैसे गीतकार के साथ मिलकर उत्तराखंड के प्रसिद्ध बेडू पाकों गीत को सामने लाए थे। आज भी कहीं मशकबीन बजता है तो यह गीत जरूर बजता है। आज भी कहीं कोी सांस्कृतिक आयोजन होता है तो यह गीत जरूर बजता है।
अफसोस यही कि हमने इस महान कलाकार गायक को वो सम्मान अब तक नहीं दिया जो दिया जाना चाहिए था। आइए उनकी पुण्य तिथि ( 26 नवंबर ) पर उन्हें याद करें। उनके गीतों को आज के युवाओं को सुनाकर इस पीढी को भी उन कलाकारों का स्मरण कराएं। मुंबई में पर्वतीय झंकार ग्रुप ने उस कलाकार की स्मृति में आयोजन किया है। यह जानकर अच्छा लगा। शत शत नमन। केंद्र सरकार हो सके तो इस महान गायक को भी पद्मश्री से सम्मानित करें।