गूगल ने डूडल के माध्यम से मनाया चिपको आंदोलन की 45वीं वर्ष गांठ
देहरादून : उत्तराखंड जंगलों को बचाने में देश में हमेशा ही आगे रहा है यही कारण है कि आज उत्तराखंड में वन क्षेत्र अन्य प्रांतों से अधिक हो गया है जो राज्य के समूचे क्षेत्रफल का लगभग 65 आंका गया है। सूबे के इन्हीं जंगलों लो बचाने के लिए वर्ष 1974 के दौरान ”चिपको” आंदोलन शुरू हुआ था जो देश ही नहीं बल्कि विश्व के इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है। यह आंदोलन उत्तराखंड के चमोली जिले के मंडल और रेणी गाँव में पेड़ों को बचाने के लिए शुरू हुआ था। इसी आंदोलन को आज चिपको आंदोलन की 45वीं वर्षगांठ पर गूगल ने अपना डूडल बनाकर याद किया है।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड के लोग हमेशा से ही अपने जल-जंगल, जमीन और बुनियादी हक-हकूकों के लिय और उनकी रक्षा के लिये हमेशा से ही जागरुक रहे हैं। चाहे 1921 का कुली बेगार आन्दोलन 1930 का तिलाड़ी आन्दोलनहो या 1974 का चिपको आन्दोलन, या 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन या 1994 का उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, अपने हक-हकूकों के लिये उत्तराखण्ड की जनता और खास तौर पर मातृ शक्ति ने आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
1970 के दशक में जब पूरे भारत में जंगलों को बचाने के लिए जंगलों से अपनी आजीविका चला रहे ग्रामीण पेड़ों की कटाई का शांति से विरोध कर रहे थे। उसी समय उत्तराखंड में रेणी गांव की गौरा देवी और उनकी साथियों ने पेड़ों से चिपककर पेड़ों को काटने आये ठेकेदारों से पेड़ों को बचाया था। कहा जाता है कि ग्रामीण महिलाओं ने ठेकेदारों को पेड़ों को काटने से बचाने के लिए यह आंदोलन गांधी जी की अहिंसा आंदोलन की नीति पर बनाया था । आज का गूगल डूडल चिपको आंदोलन की 45 वीं वर्षगांठ को याद करने के लिए बनाया गया है।
अब अगर गूगल डूडल के डिज़ाइन की बात करें तो तो, इसमें एक पेड़ के चारों तरफ महिलाओं को एक-दूजे का हाथ पकड़कर घेरा बनाए हुए देखा जा सकता है। मिली जानकारी के अनुसार गूगल के इस डूडल को सव्भू कोहली और विप्लव सिंह ने बनाया है।
गौरतलब हो कि चिपको आंदोलन की शुरुआत पर्यावरण को बचाने के लिए 1974 में हुई थी। इस आंदोलन की शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले से हुई थी। उस समय उत्तर प्रदेश में पड़ने वाली अलकनंदा घाटी के रेणी गांव में लोगों ने यह आंदोलन शुरू किया। 1973 में वन विभाग के ठेकेदारों ने जंगलों के पेड़ों की कटाई शुरू कर दी थी और तभी चिपको आंदोलन ने जन्म लिया। इसके बाद राज्य के सभी पहाड़ी जिलों में यह आंदोलन फैल गया। चिपको आंदोलन में पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट और उनकी संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य संघ का इस आंदोलन में अहम रोल रहा था।
इस आंदोलन में भाग लेने वालों में गौरा देवी के अलावा धूम सिंह नेगी, बचनी देवी और सुदेशा देवी भी शामिल थीं। बाद में गांधीवादी सुधारक सुंदरलाल बहुगुणा ने भी इस आंदोलन को दिशा दी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपील की। जिसके बाद पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी गई थी ।
उत्तराखंड से पहले चिपको आंदोलन का जिक्र राजस्थान में भी मिलता है। 18वीं सदी में राजस्थान में यह आंदोलन चला। जोधपुर के महाराज ने जब पेड़ों को काटने का फरमान सुनाया, तब बिश्नोई समाज के लोग पेड़ों से चिपक गए। इसके बाद राजा को पेड़ काटने का आदेश वापस लेना पड़ा था लेकिन यह आंदोलन उतना प्रचारित नहीं हो पाया था ।
- कौन थी चिपको आन्दोलन की जननी:गौरा देवी
1925 में चमोली जिले के लाता गांव के एक भोटिया (मारछा) परिवार में श्री नारायण सिंह के घर में इनका जन्म हुआ था। गौरा देवी ने कक्षा पांच तक की शिक्षा भी ग्रहण की थी, जो बाद में उनके अदम्य साहस और उच्च विचारों का सम्बल बनी। मात्र ११ साल की उम्र में इनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ, रैंणी भोटिया (तोलछा) का स्थायी आवासीय गांव था, ये लोग अपनी गुजर-बसर के लिये पशुपालन, ऊनी कारोबार और खेती-बाड़ी किया करते थे। 22 वर्षीय गौरा देवी पर वैधव्य का कटु प्रहार हुआ, तब उनका एकमात्र पुत्र चन्द्र सिंह मात्र ढाई साल का ही था।
गौरा देवी ने ससुराल में रह्कर छोटे बच्चे की परवरिश, वृद्ध सास-ससुर की सेवा और खेती-बाड़ी, कारोबार के लिये अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र को स्वालम्बी बनाया, उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, गौरा देवी ने उसके जरिये भी अपनी आजीविका का निर्वाह किया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई, इससे गौरा देवी आश्वस्त हुई और खाली समय में वह गांव के लोगों के सुख-दुःख में सहभागी होने लगीं।
इसी बीच अलकनन्दा में 1970 में प्रलंयकारी बाढ़ आई, जिससे यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और उसके उपाय के प्रति जागरुकता बनी और इस कार्य के लिये प्रख्यात पर्यावरणविद श्री चण्डी प्रसा भट्ट ने पहल की। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिये सुगम मार्ग बनाने के लिये पेड़ों का कटान शुरु हुआ। जिससे बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी। इसी चेतना का प्रतिफल था, हर गांव में महिला मंगल दलों की स्थापना, 1972 में गौरा देवी जी को रैंणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया।
इसी दौरान वह चण्डी प्रसा भट्ट, गोबिन्द सिंह रावत, वासवानन्द नौटियाल और हयात सिंह जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आईं। जनवरी 1974 में रैंणी गांव के 2451पेड़ों का छपान हुआ। 23 मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया। प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि 26 मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिये सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिये ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि 26 मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जायेगा और आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो।
- चिपको आन्दोलन में महिलायें बनी भागीदार
इसी योजना पर अमल करते हुये श्रमिक रैंणी की ओर चल पड़े और रैंणी से पहले ही उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुये रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिये चल पड़े। इस हलचल को एक लड़की द्वारा देख लिया गया और उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा। गांव में उपस्थित 21 महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ी।
इनमें बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी, रुक्का देवी, रुपसा देवी, तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी शामिल थीं। इनका नेतृत्व कर रही थी, गौरा देवी, इन्होंने खाना बना रहे मजदूरो से कहा”भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल, और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।” ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे, उन्हें बाधा डालने में गिरफ्तार करने की भी धमकी दी, लेकिन यह महिलायें नहीं डरी।
ठेकेदार ने बन्दूक निकालकर इन्हें धमकाना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा “मारो गोली और काट लो हमारा मायका” इस पर मजदूर सहम गये। गौरा देवी के अदम्य साहस से इन महिलाओं में भी शक्ति का संचार हुआ और महिलायें पेड़ों के चिपक गई और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो। ऋषिगंगा के तट पर नाले पर बना सीमेण्ट का एक पुल भी महिलाओं ने तोड़ डाला, जंगल के सभी मार्गों पर महिलायें तैतात हो गई। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने का प्रयास किया, यहां तक कि उनके ऊपर थूक तक दिया गया। लेकिन गौरा देवी ने नियंत्रण नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ अपना विरोध जारी रखा।
इससे मजदूर और ठेकेदार वापस चले गये, इन महिलाओं का मायका बच गया। इस आन्दोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों और वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। सरकार को इस हेतु डा० वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति का गठन किया। जांच के बाद पाया गया कि रैंणी के जंगल के साथ ही अलकनन्दा में बांई ओर मिलने वाली समस्त नदियों ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नन्दाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है। इस प्रकार से पर्यावरण के प्रति अतुलित प्रेम का प्रदर्शन करने और उसकी रक्षा के लिये अपनी जान को भी ताक पर रखकर गौरा देवी ने जो अनुकरणीय कार्य किया, उसने उन्हें रैंणी गांव की गौरा देवी से चिपको वूमेन फ्राम इण्डिया बना दिया।
श्रीमती गौरा देवी पेड़ों के कटान को रोकने के साथ ही वृक्षारोपण के कार्यों में भी संलग्न रहीं, उन्होंने ऐसे कई कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामीण कार्यक्रमों की सलाहकार समिति की भी वह सदस्य थी। सीमित ग्रामीण दायरे में जीवन यापन करने के बावजूद भी वह दूर की समझ रखती थीं। उनके विचार जनहितकारी हैं, जिसमें पर्यावरण की रक्षा का भाव निहित था, नारी उत्थान और सामाजिक जागरण के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। श्रीमती गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुये कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं” उन्हें दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की तीस महिला मंगल दल की अध्यक्षाओं के साथ भारत सरकार ने वृक्षों की रक्षा के लिये 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया गया। जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा प्रदान किया गया था।
गौरा देवी ने ही अपने अदम्य साहस और दूरदर्शिता से चिपको आन्दोलन का सूत्रपात किया था। हालांकि उन्हें परे कर अनेक लोगों ने इस आन्दोलन को हाईजैक कर अनेकों पुरस्कार बटोरे। लेकिन हमारी नजर में चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी ही हैं। इस महान व्यक्तित्व का निधन 4 जुलाई, 1991 को हुआ, यद्यपि आज गौरा देवी इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उत्तराखण्ड ही हर महिला में वह अपने विचारों से विद्यमान हैं। हिमपुत्री की वनों की रक्षा की ललकार ने यह साबित कर दिया कि संगठित होकर महिलायें किसी भी कार्य को करने में सक्षम हो सकती है। जिसका ज्वलंत उदाहरण है चिपको आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त होना है।
- चिपको आंदोलन को एक दिशाभटक आंदोलन
चिपको आंदोलन पर वरिष्ष्ठ पत्रकार और समाज सेवी रमेश गैरोला ”पहाड़ी ” कहते हैं कि चिपको आंदोलन वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था और 24 अप्रैल 1973 को मंडल (गोपेश्वर) में साइमंड कंपनी को आबंटित पेड़ों का कटान रोकने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता आलमसिंह बिष्ट जी की अध्यक्षता में पूरे इलाके के लोगों की एक विशाल जनसभा आयोजित हुई थी। उस सभा में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वन-संपदा का उपयोग स्थानीय निवासियों के हित में होना चाहिए।
बाद में इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए फाटा-रामपुर में केदारसिंह रावत जी के नेतृत्व में यही बात कहकर चिपको आंदोलन चलाने की घोषणा की गई और दोनों स्थानों पर जनता के भारी विरोध से डर कर ठेकेदार अपने मज़दूर लेकर खाली हाथ वापस लौटने को मजबूर हो गया था। रेणी में 24 सौ से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था।
इसके बाद डॉ. वीरेन्द्र कुमार जी की अध्यक्षता में सरकार द्वारा गठित समिति ने भी इसपर अपनी संस्तुति दी और यह कटान पूरी तरह रोक दिया गया। इसके बाद चिपको आंदोलन विश्वव्यापी हो गया लेकिन वनों पर वनवासियों की जीविका व अस्तित्व के अधिकार की मांग से भटक कर यह आंदोलन पर्यावरण की पीड़ा का आंदोलन बना दिया गया, जिसमें वनों का अस्तित्व व वनवासियों की जीविका के सवाल दफन होकर रह गए। इसीलिए चिपको आंदोलन को एक दिशाभटक आंदोलन कहा जाता है, जिसकी गूँज तो विश्वव्यापी हुई लेकिन वनवासियों के हाथ कुछ नहीं आया और दुर्भाग्यपूर्ण रूप न वनों के भले की कोई इबारत लिखी जा सकी, न वनवासियों के। इसके उलट चिपको आंदोलन में शामिल लोग भी अपने को ठगा-सा महसूस करते हैं।