लगभग पांच सौ किसान प्रत्यक्ष तौर पर स्वरोजगार से जुड़े
प्रेम पंचोली
जिस देश में गंगा बहती है, हम उस देश के वासी हैं। यह फिल्मी गीत गंगा के बहाने भारतीय सभ्यता का चरित्र-चित्रण करता है, ठीक उसी तर्ज पर आजकल उत्तरकाशी जनपद के दूरस्थ क्षेत्र बागी-ब्रहमपुरी निवासी एक युवा द्वारिका प्रसाद सेमवाल ‘‘गढ बाजार’’ के मार्फत इस पहाड़ी राज्य का परिचय देश-दुनियां से करवा रहा है। वे न कि सिर्फ प्रचार-प्रसार की बाते करता है बल्कि उनके इस कार्यक्रम से गांव के वे छोटे, मझौले किसान जुड़े है जिनका पहाड़ी उत्पाद कभी बाजार की शक्ल नहीं ले पाया था। मगर द्वारिका के इस सफल प्रयोग ने उत्तरकाशी और देहरादून में अब तक 145 विवाहों, 85 बैठकों व 55 मेलों में गढभोज के स्टॉल लगा चुके हैं। अर्थात इस कार्य से लगभग 500 किसानों को प्रत्यक्ष तौर पर स्वरोजगार से जोड़ा गया है। कह सकते हैं कि उनके ‘‘गढभोज व गढ बाजार’’ में उत्तरकाशी की जलकुरघाटी, यमुनाघाटी व गंगाघाटी के पहाड़ी उत्पाद यानि ‘‘बारहनाजा’’ अब आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं।
ज्ञात हो कि द्वारिका ने हिमालय पर्यावरण जड़ी-बूटी-एग्रो संस्थान (जाड़ी) के माध्यम से पहली बार वर्ष 2008 में जनपद मुख्यालय उत्तरकाशी में ही ’’गढ भोज’’ नाम से विशेष कार्यक्रम चलाया। इन्ही दिनों उत्तरकाशी मुख्यालय में आयोजित विख्यात माघ मेले में जब ‘‘गढभोज’’ का स्टॉल सजाया गया तो पहले ही दिन स्टॉल पर मौजूद ग्राहको को द्वारिका ने सम्भाल नहीं पाया। स्टॉल में काम कर रही गांव की महिला समूह की सदस्यों के समझ में आया कि ‘‘पहाड़ी उत्पादों’’ को यदि एक व्यवस्थित बाजार का रूप दिया जाये तो भविष्य में पहाड़ी किसानों की आर्थिक स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन आ सकता है। उसके बाद द्वारिका ने बकायदा जाड़ी संस्थान के द्वारा गढवाल व कुमाऊ के सभी व्यंजनो का अध्ययन करवाया। जिसमें पाया गया कि पहाड़ी उत्पादों का बाजार विकसित किया जा सकता है। बस यहीं से द्वारिका ने दो तरह के कार्य आरम्भ कर दिये।
पहला यह कि राज्य और राज्य से बाहर जितने भी उत्सव और मेले होते हैं वहां ‘‘गढभोज’’ का स्टॉल लगे। तकि लोग पहाड़ी व्यंजनों का रस्वादान ले सके और दूसरा यह कि कुछ जगहो पर ‘‘गढ बाजार’’ की स्थायी शुरूआत की जाये। देहरादून के द्रोण होटल और उत्तरकाशी के शिल्प बाजार में ‘‘गढ बाजार’’ स्थापित किये गये हैं। हालात इस कदर हैं कि ये दोनो जगह मौजूदा समय में पहाड़ी उत्पादों की डिमांड पूरी नहीं कर पा रहे हैं। गढ बाजार और गढभोज के सफल प्रयोग से वर्ष 2015 में तत्काल जिलाधिकारी उत्तरकाशी ने सभी विभागों को यह निर्देशित किया कि वे बैठकों व प्रशिक्षणों में गढभोज को ही प्राथमिकता दें। इधर द्वारिका गढवाल मण्डल विकास निगम के उत्तरकाशी, देहरादून, ऋषिकेश, मसूरी एवं चण्डीगढ के होटलों के साथ गढभोज को मेन्यू में शामिल करने की कसरत कर रहे हैं। इनका यह प्रयास यदि भविष्य में रंग लाया तो अकेले उत्तरकाशी के 12 हजार किसानों के परिवार प्रत्यक्ष रूप से लाभन्वित होंगे और अप्रत्यक्ष रूप से इनकी संख्या चौगुनी होगी। अर्थात एक लाख लोगो के हाथ में स्थानीय उत्पादों का स्वरोजगार होगा। द्वारिका का कहना है कि वे होटलों के अलावा आवासीय विद्यालयों में भी गढभोज को आरम्भ करवाने का प्रयास कर रहे हैं।
बता दें कि उत्तराखण्ड में स्वादिष्ट व विविधतायुक्त खान-पान की समृद्ध संस्कृति रही है। इसलिए यहां के लोग अपने खेतों में बहुविविधता के उत्पादों का उत्पादन करते है। मगर बाजारीकरण व वैश्वीकरण के कारण ये पहाड़ी उत्पाद व व्यंजन अपना स्वाद खोने लग गये थे। जबकि साग-सग्वाड़ो (कीचन गार्डन), कृषि वानिकी एवं जंगलो से उत्पन्न खाद्यान, फल फूल, दलहन एवं साग-भाजी से जोरदार स्वाद एवं पौष्टिकता सौ फीसदी जैविक है। अतएव पौष्टिकता और औषधीय गुणों से भरपूर पहाड़ के व्यंजन थाली से गायब होने के कगार पर पंहुच चुके हैं। अब ‘‘गढ बाजार व गढभोज’’ क्या रंग खिलाता है जो समय के गर्त में है।
गढ़ बाजार व गढभोज
14 जनवरी 2008 को गढभोज और दो अक्टूबर 2014 को गांधी जयन्ती के अवसर पर उत्तरकाशी मुख्यालय में हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान (जाड़ी) की पहल पर गढ बाजार की शुरूआत की गई। संस्थान ने गढ बाजार आरम्भ करने से पहले डुण्डा एवं भटवाड़ी विकास खण्ड के 20 गांवों में किसानों के संगठन बनवाये। जबकि संस्थान रैथल, पाला, सिरोर, कमद, जोशियाड़ा गांवों में फल प्रसंस्करण की यूनिट स्थापित कर चुकी थी। अग्रलिखित कुछ पहाड़ी उत्पादों की जानकारी दी जा रही है, जो गढभोज और गढबाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे पहाड़ी उत्पाद यहां बारहनाजा के नाम से जाने जाते है जिनकी उत्तराखण्ड में हजारों की प्रजातियां है।
मंडुआ /कोदा/रागी
मंडुआ को देशभर में अलग-अलग नामो से जाना जाता है किन्तु ज्यादा प्रचलित कन्नड़ नाम रागी है। अंग्रेजी में इसे फिगर मिलेट कहते है। उत्तराखण्ड के गढवाल, कुंमाऊ में कोदा नाम ज्यादा प्रचलन में है। दुनियां में जितने अनाज है, उनमें पौष्टिकता की दृष्टि से मंडुआ सबसे शिखर पर है। स्त्री, पुरूष, बच्चें एवं बूढे सबके लिए यह बहुत उपयोगी है। बढते बच्चों के लिए तो यह और भी उपयोगी है, क्योंकि इसमें सबसे ज्यादा कैल्शियम पाया जाता है। वर्षो पहले उत्तराखण्ड के निवासी मंडुआ को अपने दैनिक खानपान मे जरूरी मानते थे। तत्काल दुर्घटनावश ऊंची चोंटी या पेड़ से गिरने पर भी उनकी हड़डी नही टूटती थी। मंडुआ की रोटी गेहूं की रोटी की अपेक्षा बनाने में आसान नही है, क्योंकि आटा हाथों में चिपकता है और गोली बनाते समय इस पर पलेथण (सूखा आटा) भी काम नही करता। इसलिए ताजा आटा गूंथते जाइए और हाथों में पानी लगाकर रोटी बनाये। मंडुआ की रोटी गरमा-गरमा खाने में ज्यादा स्वादिष्ट लगती है लेकिन कुदरती-असली स्वाद घर के ताजा मक्खन या घी के साथ ही आता है। मंडुआ की रोटी के साथ कंडाली की कापली, राई, लाई व पालक का साग, झोली, कढी, गहत का फांणा व डुबका आदि स्वाद में चार चांद लगा देते है। मंडुआ की अकेली रोटी बनाने में यदि समस्या हो तो गेहूं के आटे के साथ मिश्रित करके बना सकते है। बाहर से गेहूं की रोटी और अन्दर मंडुआ की गरमा-गरम रोटी घी और सब्जी के साथ खाये। इसे सचमुच की डबल रोटी कह सकते है। यहीं मंडुवे के हलवे को कुमांऊ में कोदा का लेटा कहते है। इसे हलवे की तरह ही बनाया जाता है।
मारसा (राम दाना)
गढवाली में मारसा, कुमांऊनी में चू या चुआ। हिन्दी में चौलाई व देशभर में रामदाना के नाम से जाना जाता है। व्रत, नवरात्रों में रामदाना को फलाहार के रूप में परोसा जाता है। रामदाना दुनिया का सबसे पुराना खाद्यान्न है। पौष्टिकता की दृष्टी से रामदाने के दानों में गेहूं के आटे से दस गुना कैल्शियम, तीन गुना वसा तथा दुगुने से अधिक लोहा होता है। धान और मक्का से भी यह श्रेष्ठ है। शाकाहारी लोगों को रामदाना खाने से मछली के बराबर प्रोटीन मिलता है। रामदाने का हरा साग भी बहुत उपयोगी है। रामदाना की रोटी मीठी होती है, किंतु आटा बहुत चिपचिपा होता है। इसलिए रोटी मुश्किल से बनती है। आधुनिक खानापान में भूने रामदाने के आटे से हलवा, बर्फी, बिस्कुट, केक, शक्करपारा एवं पॉरिज आदि शौकीन लोग बनाने लगे है।
झंगोरा – लाईसिन प्रोटीन, सिस्टीन प्रोटीन, आईसोल्यूसनी प्रोटीन, लोहा रेशा पाया जाता है। यह शूगर से बिमार लोगो के लिए उपयुक्त है।
कौणी – ऊर्जा कैलोरी प्रोटीन, खसरा रोग, शूगर व पोलियो हेतु लाभकारी।
कण्डाली – लोहा, फेरफिक ऐसिड, एस्टील थोलाइट, विटामिन ए, चांदी तत्व पाये जाते है और यह पेट की गैस भी खत्म करती है। यही नहीं पीलिया, हर्निया, पाण्डु उदर रोग, बलगम, गठिया रोग, चर्बी कम करना, स्त्री रोग, किडनी, एनीमिया, साईटिका, हाथ पांव में मोच पर कण्डाली रक्त संचचरण का काम करती है। कैन्सर रोधी है व एलर्जी खत्म करती है।
लाल चावल – विटमीन-ए पाया जाता है। शूगर फ्री, आंखों की रोशनी के लिए लाभदायक है।
गहत दाल – पथरी रोग के लिये लाभदायक है।
काला भटट – ओमेगा पाया जाता है। रोग प्रतिरोधक शक्ति बढाता है।
मीठा करेला – मधुमेह की प्रभावशाली दवा है, चमड़ी रोग, कुष्ठ रोग, कील मुहांसे के लिए लाभदायक है।
बुरांश जूस – हृदय रोगीयों के लिये लाभदायक होता है।
लेंगडा – लोहे की मात्रा भरपूर है।
पहाड़ी किसान अपने छोटी जोत वाले खेतों और छोटे बागीचो में हाड़ तोड़ मेहनत कर सब्जी, दाले, अनाज, फल आदि कृषि उत्पाद पैदा करते है। राज्य बनने के बाद पहाड़ी किसानो की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखाई दे रहा है। बावजूद इसके किसान अपने उत्पादों को बिचौलियों के माध्यम से ही उपभोक्ताओं तक पहुंचा रहे है। औने-पौने दामों पर किसानो के उत्पाद खरीद कर बाजार में बेचने वाले बिचौलिये खूब फल फूल रहे है। परिणामस्वरूप लोग छोटे-उत्पादों को या तो पैदा करना ही बंद कर दे रहे हैं या जिनके पास ऐसे उत्पाद हैं भी वे इसे बाजार की शक्ल नहीं दे पा रहे हैं। हमारा प्रयास स्थानीय स्तर पर ही स्थानीय उत्पादो को लोगो से क्रय करके ‘‘गढभोज व गढ बाजार’’ के माध्यम से पहाड़ उत्पादो का बाजार विकसित करने का है। – द्वारिका सेमवाल, गढभोज व गढ बाजार के प्रवर्तक