पलायन के एक सदी के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि लोग अपने परिजनों के लिए कुछ समौण-सौगात भी नहीं ला पाए, धन-पाणी की बात दूर की है
रमेश गैरोला ”पहाड़ी”
कोरोना वायरसजनित वैश्विक बीमारी कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए देशभर में बन्दी के चलते लगभग सभी गतिविधियां ठप्प करनी पड़ीं हैं। इसके कारण बड़ी मात्रा में रोजगार के लिए विभिन्न राज्यों और विदेशों में भी रह रहे उत्तराखण्डियों को वापस लौटना पड़ा है। राज्य सरकार ने विलम्ब से ही सही, उन्हें उनके घरों -गाँवों तक पहुँचाने के प्रयास किये। अनेक प्रकार के काम-धंधों से कमाए गए रुपये घर भेजकर अपने परिवारों का पालन-पोषण करने वाले अधिसंख्य लोगों को इस बार विकट समस्याओं का सामना करना पड़ा है। कल-कारखाने, दुकानें, होटल, परिवहन, निर्माण जैसे कार्यों के एकाएक बन्द हो जाने के कारण इनमें लगी बड़ी जनसंख्या न केवल बेरोजगार हुई है, बल्कि उनको वेतन, बकाया आदि भी नहीं मिल पाया है और रोजगार, आवास, भोजन के अभाव के साथ ही कोविड-19 के आतंक से वे जहाँ-तहाँ से अपने घरों को खाली हाथ ही लौटने को विवश हुए हैं। कई लोगों को तो घर पहुँचने में महीनों का समय लग गया और शायद पहली बार उन्हें खाली हाथ और कुछ को तो घर से पैसे मंगा कर वापस लौटने को मजबूर होना पड़ा है। पलायन के एक सदी के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि लोग अपने परिजनों के लिए कुछ समौण-सौगात भी नहीं ला पाए, धन-पाणी की बात दूर की है।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इसकी गम्भीरता को ध्यान में रख कर निर्णय लिया है कि जो प्रवासी उत्तराखण्ड में रह कर काम करना चाहते हैं, उनहें यहीं रोजगार उपलब्ध कराया जायेगा। यह एक सकारात्मक पहल होगी, यदि इसमें सरकार लीक से हट कर कुछ कर दिखाने की पहल करे। अब तक की सरकारी योजनाओं व कार्यकर्मों में सरकार दाता भाव से सामने आई है। इस बार उसे कर्ता भाव से सामने आना होगा।
ग्रामीण विकास और पंचवर्षीय योजनाओं के आरम्भ के 68 वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो स्पष्ट होता है कि सरकार ने विकास का जो ढाँचा बनाया है, वह लोगों पर लादने का जैसा रहा है। सामुदायिक विकास के जो प्रोजेक्ट 2 अक्टूबर 1952 को देश के सभी भागों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में आरम्भ किये गए थे, उनमें समुदाय को शिक्षित कर, उनको सहभागी बनाकर “अपना विकास, अपने द्वारा” करने की नीति को आगे बढ़ाना प्रमुख लक्ष्य था। उसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलते थे। गाँवों में जागृति का उत्साहजनक वातावरण तैयार हुआ था। लोगों को लगा था कि उन्हें अपना विकास सरकार की सहभागिता से स्वयं करना है तो उन्होंने उसमें पूरी निष्ठा और उत्साह से भागीदारी की लेकिन धीरे-धीरे सरकार विकास खण्डों के माध्यम से विकास की ठेकेदार बन गई, जिसमें उसकी 100 प्रतिशत भागीदारी और शून्य प्रतिशत जिम्मेदारी थी। भ्रष्टाचारी अफसरों और नेताओं ने गाँवों के चतुर लोगों को चँगुल में फँसा, विकास का उप-ठेकेदार उन्हें बनाकर अपना हित साधना शुरू कर दिया। सम्पूर्ण विकास खण्ड का बहुमुखी विकास करने के लिए जिस खण्ड विकास अधिकारी को राजपत्रित अधिकारी बनाकर समस्त सुविधाओं सहित भेजा गया, विकास न होने में उसकी कोई जिम्मेदारी तय नहीं की गई। पैसा खर्च वह करेगा लेकिन ज़िम्मेदारी उसकी नहीं होगी! नौकरशाही ने खुद सारा प्रपंच रचा और जिम्मेदारी गाँव वालों के मत्थे डाल दी। इसी का परिणाम था कि सामुदायिक विकास के साढ़े तीन दशक बाद एक प्रधानमंत्री को सार्वजनिक बयान देना पड़ा कि ग्रामीण विकास के लिए जो एक रुपया भारत सरकार दिल्ली से भेजती है, वह गाँव में पहुँचते-पहुँचते 15 पैसे रह जाता है यानी 85 पैसे बीच में ही गायब ही जाते हैं।
इस स्थिति को सरकारी तंत्र पर जिम्मेदारी तय कर ही सुधारा जा सकता है। इसलिए यह त्रिवेंद्र सरकार के लिए आत्मावलोकन और आत्म-परीक्षण का समय भी है और पिछले अनुभवों से सीख लेने का भी। इन प्रवासी कामगारों को बड़े पैमाने पर काम दिलाने की जिम्मेदारी तो है ही, कार्यों को परिणामपरक और उत्पादक बनाने की भी है। इसलिये योजनाएं ऐसी बनाई जानी चाहिए, जो सफल और प्रगतिगामी हों। बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की हो सकती है, जो दक्ष हैं, जिनके पास कार्यानुभव है, कौशल है और उत्साह भी है। उन्हें भूमि, तकनीकी मार्गदर्शन, सरल वित्तीय व प्रशासनिक सहयोग उपलब्ध कराने और विपणन-तन्त्र को विकसित करने की जिम्मेदारी सरकारी तंत्र को सौंपनी होगी। सरकारी तन्त्र को अत्यधिक संवेदनशील बनाकर, प्रोजेक्ट पास करने और वसूली का डंडा चलाकर रौब झाड़ने से आगे बढ़ाकर जिम्मेदार बनाने व उन पर जिम्मेदारी तय करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा।
सरकार को एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी ध्यान में रखना होगा कि उत्तराखंड एक अल्प रोजगार वाला राज्य है। इसका कारण पर्वतीय जनपदों का उद्योगविहीन होना है। यहाँ की परम्परागत आर्थिकी कृषि आधारित है और कृषि के सहकर्म के रूप में पशुपालन और औद्यानिकी मुख्य व्यवसाय हैं। मुख्य कर्म कृषि होने के बावजूद कृषि भूमि मात्र 4 लाख 39 हजार 432 हैक्टेयर है। इसे 20 लाख 56 हजार 975 परिवारों (2011 की जनगणना) में बांटा जाय तो प्रति परिवार मात्र 0.213 और प्रति व्यक्ति 0.04 हैक्टेयर अर्थात क्रमशः 10.65 नाली याने मात्र आधा एकड़ प्रति परिवार और 2.18 नाली प्रति व्यक्ति भूमि ही आ पाती है। इसमें भी पर्वतीय जिलों में सिंचित खेती मात्र 14 प्रतिशत है और जंगली जानवरों– बंदरों व सूअरों का आतंक अलग से है। इससे समझा जा सकता है कि पहाड़ों में परम्परागत खेती आजीविका का साधन नहीं हो सकती। वैकल्पिक रोजगार के रूप में फल, सब्जी, जड़ी-बूटियां उत्पादन और इनके प्रसंस्करण पर आधारित लघु उद्योग, वनाधारित उद्योग, पर्यटन, तीर्थाटन, जल, हिम एवं साहसिक क्रीड़ाएं, विद्युत उत्पादन, कृषि-वानिकी, जल खेती आदि के क्षेत्र हैं, जिनमें रोजगार के अच्छे अवसर प्राप्त हो सकते हैं।
इसके विपरीत रोजगार की स्थानीय स्थिति पर नज़र डालें तो जो संख्या प्रवासी उत्तराखंडियों की आँकी जा रही है, उससे तीन गुना बेरोजगार राज्य के सेवायोजन कार्यालयों में पंजीकृत हैं। वर्ष 2017-18 में राज्य के सेवायोजन कार्यालयों की सक्रिय पंजिका में 8 लाख 57 हजार 711 बेरोजगार पंजीकृत थे। इनमें 3 लाख 34 हजार 293 महिलायें शामिल थीं। 3 लाख 19 हजार 246 की संख्या स्नात्तक एवं स्नात्तकोत्तर बेरोजगारों की थी। इनमें 61 हजार 418 आई टी आई सर्टिफिकेट व डिप्लोमाधारक, 13 हजारह 646 इंजीनियर और 453 डॉक्टर शामिल थे। इतनी बड़ी बेरोजगारोंकी फौज के बीच 2-3 लाख प्रवासी बेरोजगारों को समायोजित करना एक बड़ी चुनौती है।
इस बीच सरकार के इस प्रचार से एक सन्देश स्थानीय बेरोजगारों में यह गया है कि सरकार का ध्यान फिलहाल प्रवासी लोगों को रोजगार जुटाने पर है। इसलिए राज्य सरकार को रोजगार की एक व्यापक कार्ययोजना बनाकर जनता के बीच रखनी होगी और यह भी स्पष्ट करना होगा की लोगों को सरकारी नौकरी के विकल्प को तलाशना होगा। उसमें सरकारी अफसरों की जिम्मेदारी सुनिश्चित करते हुए प्रत्येक इच्छुक को उद्यमी बनाने में सरकार सहयोग प्रदान करेगी। प्रवासियों की चिंता के साथ स्थानीय बेरोजगारों की बिल्कुल भी अनदेखी नहीं होने दी जाएगी।