न खाता न बही, पेयजल एमडी जो कहे वही सही

- मुख्यमंत्री तक तो कर दिया स्थानांतरण प्रक्रिया से बाहर
- ”भस्मासुर” की तरह अजेय शक्तियां एमडी ने खुद ही प्राप्त कर ली
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : उत्तराखंड पेयजल निगम में जहाँ आर्थिक भ्रष्टाचार चरम पर है वहीँ प्रशानिक भ्रष्टाचार भी कुछ कम नहीं। एमडी की हिटलरशाही और लालफीताशाही के चलते यह संस्थान, संस्थान न रहकर एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गया है चर्चाओं के अनुसार निगम में ‘’न खाता न बही, एमडी जो कहें वही सही’’ चल रहा है। चर्चाएँ तो यहाँ तक है कि एमडी को जिन अधिकारियों अथवा कर्मचारियों की शक्ल पसंद नहीं वे उनके नजदीक तक फटक ही नहीं सकता चाहे वह कितना भी प्रतिभावान,गुणवान और उर्जावान ही क्यों न हो यह क्रम पिछले सात सालों से पेयजल निगम में चल रहा है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार की शुरुआत सबसे पहले निगम की महाप्रबंधक की कुर्सी से ही शुरू होती है विभागीय जानकारी और चर्चाओं के अनुसार एमडी ने सबसे पहले अपनी ही कार्य संचालन नियमावली में ही परिवर्तन करवाकर ‘’भस्मासुर’’ की तरह अजेय शक्तियां खुद ही प्राप्त कर ली यानि जब तक सेवानिवृत होने का समय न आ जाय वे कुर्सी से चिपके रह सकते हैं। जबकि इससे पूर्व के जितने भी एमडी हुए हैं वे सब या तो तीन वर्ष तक के लिए एमडी के पद पर रहते थे अथवा सेवानिवृति तक यानि कार्यकाल या उम्र में से जो भी पहले पूरा होता था उसी समय तक वे एमडी की कुर्सी पर बैठ सकते थे। इनमें भी कई उदाहरण ऐसे हैं कुछ तो उम्र पूर्ण होने के कारण मात्र दो या ढाई साल में ही एमडी की कुर्सी से विदा हो गए।
चर्चाओं में आया है कि एमडी ने बिना सरकार की स्वीकृति के और ”निगम और उत्तराखंड सरकार के मध्य हुए समझौते” को दरकिनार कर निगम में स्वीकृत खंडो से अधिक खंड बना डाले ताकि वे वहां अपने कुछ लोगों को चोर दरवाजे से नियुक्ति दिलवा सकें और उन्होंने यह करके भी दिखाया है। चर्चाओं के अनुसार एमडी ने निगम के स्वीकृत लगभग 42 खण्डों के सापेक्ष 10 और खण्ड बढाकर इनकी संख्या लगभग 52 तक पहुंचा दी है जबकि निगम में पूर्व में ही कई खण्डों को सुप्त खण्डों की श्रेणी में रखा गया था, जबकि नियमानुसार पहले इन सुप्त खण्डों को समाप्त किया जाना चाहिए था और इनके स्थान पर नए खण्डों को पुनर्जीवित करके अस्तित्व में लाना चाहिए था लेकिन यहाँ भी एमडी ने प्रशासनिक भ्रष्टाचार कर ‘’अंधा बाँटें रेवड़ी अपने –अपने को दे’’ वाली कहावत को चरितार्थ किया है। इतना ही नहीं चर्चा है कि एमडी ने इन खण्डों में संविदा पर अभियंताओं की नियुक्ति भी की, जबकि निगम के पास पहले से ही सुप्त पड़े खण्डों के दर्जनों अभियंता मौजूद थे और निगम उन्हें बिना काम के वेतन भी दे रहा था लेकिन एमडी ने किन्ही अज्ञात कारणों से संविदा पर अभियंताओं की नियुक्ति कर डाली जो जांच का विषय है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार पेयजल निगम में विभागीय स्थानान्तरणों में भी व्याप्त है। चर्चाएँ हैं कि उराखण्ड पेयजल निगम में अधिकारियों एवं कर्मचारियों के वार्षिक स्थानान्तरणों में अपनायी जाने वाली नीति एवं मार्गदर्शक सिद्धांतों का भी पालन नहीं किया जाता रहा है यहाँ भी एमडी की धींगामुश्ती साफ़ दिखाई देती है। चर्चाओं के अनुसार विभागीय नियमावली और सिद्धांतों के अनुसार किसी भी अधिकारी को 10 वर्ष से अधिक एक ही जिले में और पांच वर्ष से अधिक सुगम इलाके में नहीं रखा जा सकता इस नियम के अनुसार सभी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए चक्राकार स्थानांतरण व्यवस्था नियमावली में साफतौर पर दे दी गयी है ,लेकिन इनके विपरीत चर्चा है कि एमडी जिसको तब तक चाहे तब तक सुगम या दुर्गम अथवा एक ही जिले में रखते रहे हैं, इतना ही नहीं दुर्गम को सुगम बनाकर खण्डों तक को शिफ्ट कर दिया गया है, ऐसा ही एक खण्ड जो चकराता के पुरोड़ी नाम से बनाया गया था, को लगभग ढाई वर्ष पूर्व वहां से सुगम इलाके कालसी में शिफ्ट कर दिया गया है । इसके अलावा भी कई और उदाहरण मौजूद हैं जिसमें पहाड़ में स्थापित खण्ड को सुगम में शिफ्ट कर दिया गया है और अब यहाँ तैनात अधिकारियों को एक बार फिर सुगम से और अति सुगम में लाने का ‘’खेल’’ पेयजल निगम में खुले आम चल रहा है। इतना ही नहीं स्थानान्तरण प्रक्रिया से मुख्यमंत्री तक को बाहर कर दिया गया है, यानि निगम के स्थानान्तरणों में सूबे के मुख्यमंत्री का कोई हस्तक्षेप नहीं रखा गया है। ऊपर से एक और तुर्रा कि पेयजल निगम स्वायतशासी विभाग है यानि यह विभाग अपने आपको उत्तराखंड सरकार का अंग भी नहीं मानता जबकि विभागीय वेतन और अन्य मदों में आर्थिक प्रतिपूर्ति उत्तराखंड सरकार ही करती है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार का प्रदेश ही नहीं बल्कि देश में भी इससे बड़ा कोई और उदाहरण देखने को नहीं मिल सकता जब विभागीय एमडी ने माननीय उच्च न्यायालय नैनीताल के उस आदेश को बीते कई सालों से ठण्डे बस्ते में ही नही डाला बल्कि न्यायालय के आदेशों की जमकर धज्जियाँ तक उड़ाकर रख डाली इतना ही नहीं न्यायालय तक को गुमराह करने का प्रयास तक किया है। चर्चाएँ हैं कि एमडी ने एक दर्जन से ज्यादा AMIE धारकों को अधिशासी अभियंता के पदों पर प्रोन्नत कर दिया था और इस प्रोन्नति के खिलाफ निगम के ही कई अभियंता उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय इसलिए गए कि उनकी वरीयता को ये लोग प्रभावित कर रहे थे। मामले में उच्च न्यायालय ने निगम के एमडी को प्रोन्नत किये गए सभी AMIE डिग्री धारकों को अवन्न्त करके न्यायालय में रिपोर्ट देने के निर्देश दिए थे, जिसका पालन आज तक नहीं किया गया । चर्चाओं के अनुसार इन्हीं आदेशों के पालन करने को तत्कालीन सचिव एस राजू ने भी सेवानिवृत होने से पूर्व एमडी को न्यायालय के आदेशों का अनुपालन करने के निर्देश दिए थे लेकिन एमडी ने आज तक उच्च न्यायालय के आदेशों का पालन नहीं किया। इतना ही नहीं इस मामले में उच्च न्यायालय एमडी को न्यायालय की मानना मानते हुए व्यक्तिगततौर पर बुलाकर आदेशों के अनुपालन के निर्देश तक दे चुका है वहीँ सूत्रों का कहना है कि इस मामले में कोई बड़ा ‘’खेल’’ हुआ है जिस कारण न्यायालय के आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है।
प्रशासनिक भ्रस्टाचार के कई और मामलों में से एक यह भी चर्चा में है कि एमडी द्वारा निगम के पैनल में स्वीकृत अधिवक्ताओं से इतर बाहर से अधिवक्ताओं को स्वीकृत दरों से अधिक दरों पर विभागीय मामलों को देखने विभिन्न न्यायालयों में तैनात किया जाता रहा है जो विभाग पर अधिक आर्थिक बोझ बनता जा रहा है जबकि निगम के पैनल में अधिसूचित अधिवक्ताओं का मानदेय बाहर से बुलाये जाने वाले अधिवक्तओं काफी कम है।