बीते बीस सालों में कोई भी राजनीतिक दल उत्तराखंड में नहीं दे पाया स्थिर सरकार !
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने मुख्यमंत्रियों की प्रयोगशाला बना डाला उत्तराखंड !
सूबे की ब्यूरोक्रेसी उस उदंड घोड़े की तरह हो चुकी है जो अपने ही सवार को गिराने पर है आमादा
राजेंद्र जोशी
देहरादून : 20 साल में 10 बार मुख्यमंत्रियों के बदले जाने के बाद उत्तराखंड की जनता ही नहीं बल्कि यहां के बुद्धिजीवी तक इस तरह की राजनीतिक उथल-पुथल से हलकान हैं, अब प्रदेश की जनता यह सोचने पर विवश है कि जब 57 विधायक जैसे प्रचंड बहुमत देने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी जैसा राजनीतिक दल उत्तराखंड में स्थिर सरकार नहीं दे सकता है तो अब तो इस प्रदेश को Union Territory (केंद्र शासित प्रदेश) बनाया जाना ही उचित होगा। क्योंकि जम्मू , कश्मीर और लेह-लद्दाख भी जब एक राज्य से हटाकर केंद्र शासित राज्य (Union Territory) बनाए जा सकते हैं तो उत्तराखंड क्यों नहीं ?
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1954 में जब पीसी जोशी द्वारा इस राज्य को अलग राज्य की मांग उठायी गयी थी उसके बाद राज्य आंदोलनकारियों ने वर्ष 1994 के दौरान कई बार इस राज्य को यूनियन टेरेटरी (केंद्र शासित राज्य) बनाए जाने की भी मांग उठाई थी। लेकिन तत्कालीन केंद्र सरकार ने अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते वर्ष 2000 में इस राज्य को उत्तर प्रदेश से अलग कर उत्तराखंड राज्य का गठन कर दिया। वहीं इस राज्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह भी रहा इस राज्य का पहला मुख्यमंत्री हरियाणवी बना जिसे राज्य के इतिहास और भूगोल का कुछ भी पता नहीं था।
गौरतलब हो कि नौ नवंबर 2000 को अस्तित्व में आए इस उत्तराखंड राज्य में इन बीस वर्षों में अब तक 10 मुख्यमंत्री बदल चुके हैं, यानि इस राज्य में औसतन दो साल में एक मुख्यमंत्री बदला गया, इतना ही नहीं यह राज्य राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के मुख्यमंत्रियों की प्रयोगशाला भी यदि कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कमोवेश देश के दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने राज्य की भावनाओं के साथ खेल ही नहीं किया बल्कि उसका मज़ाक भी उड़ाया है, यह सब यहाँ के लोगों के भोलेपन का नतीजा ही नज़र आया जो उसने राष्ट्रीय दलों पर भरोसा किया और उसके हाथ कुछ नहीं आया।
आइये अब बात करते हैं पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) की जो आजादी के समय केंद्र शासित प्रदेश और फिर 1971 में पूर्ण राज्य बना। इन 69 वर्षों में वहां मुख्यमंत्रियों के कुल 14 कार्यकाल हुए, लेकिन अब तक केवल चेहरे केवल 6 ही हैं। हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार के बाद ठाकुर रामलाल उनके बाद शांता कुमार फिर वीरभद्र सिंह और फिर पांचवें मुख्यमंत्री हुए प्रेम कुमार धूमल जबकि वर्तमान में छठवें मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर हैं, हालाँकि बीच के कुछ वर्षों में राष्ट्रपति शासन भी रहा। लेकिन यदि प्रति मुख्यमंत्री औसतन कार्यकाल 5 साल और प्रति चेहरा औसत कार्यकाल करीब 10 साल रहा।
सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इन बीस सालों में भाजपा जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल और कांग्रेस तक इस राज्य में स्थाई सरकार देने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। इन दोनों दलों की कमोवेश स्थिति एक जैसी ही रही। यदि इस राज्य के राजनीतिक सफर पर नज़र दौड़ाई जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इन दोनों ही दलों ने इतिहास से भी सबक नहीं लिया और वे यहां अपने राजनीतिक प्रयोग करते रहे।
सबसे पहले बात करते हैं भाजपा की जिसने इस राज्य में सबसे पहले मुख्यमंत्रियों को बदलने की परंपरा शुरू की राज्य गठन के बाद 9 नवम्बर 2000 से 29 अक्टूबर 2001 तक सबसे पहला मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को बनाया तो उन्हें 11 महीने बाद 30 अक्टूबर2001 को बीच में ही हटाकर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाया वे केवल से 4 माह मुख्यमंत्री रहे और राज्य बनाने वाली पार्टी भाजपा चुनाव हार गयी और कांग्रेस ने उस नेता स्व. नारायण दत्त तिवारी को 2 मार्च 2002 को मुख्यमंत्री बनाया जिसने राज्य आंदोलन के दौरान कहा था उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा, खैर वे बड़े कद के नेता थी लिहाज़ा उनका ही कार्यकाल केवल पांच साल का रहा और वे से 7 मार्च 2007 तक रहे। उसके बाद भाजपा की सरकार आई। भाजपा ने खंडूरी जैसे सेना के कड़क अधिकारी को 8 मार्च 2007 को सत्ता सौंपी गयी और उन्हें भी 27 जून 2009 को मात्र 2 साल, 4 माह बाद हटा दिया गया।
उसके बाद 27 जून 2009 को डॉ. निशंक को मुख्यमंत्री बनाया गया जिन्हे से 11 सितंबर 2011 को मात्र 2 साल, 3 माह बाद हटा दिया गया। उसके बाद एक बार फिर भाजपा ने ”खंडूरी है जरूरी” का नारा देकर विधान सभा चुनाव से छह माह पहले भुवन चंद्र खंडूरी को 11 सितंबर 2011 को मुख्यमंत्री बनाया जो कोटद्वार से विधानसभा चुनाव लड़े और बुरी तरह हार गए वे 13 मार्च 2012 तक मात्र 6 माह ही दूसरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद उत्तराखंड में कांग्रेस विजयी होकर सत्ता में आई।
कांग्रेस ने भी विजय बहुगुणा जैसे नेता जिन्हे स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा से सियासत विरासत में मिली थी 13 मार्च 2012 को शपथ लेने के बाद एक फरवरी 2014 को मात्र एक साल, 11 माह महीने में ही चलता कर दिया गया कहा तो यहाँ तक जाता है उनकी कुर्सी 16 जून को आई केदारनाथ आपदा की भेंट चढ़ गयी । बहुगुणा के बाद एक फरवरी 2014 को हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया जो 18 मार्च 2017 तक (3 साल, एक माह) तक मुख्यमंत्री रहे।
विधानसभा चुनावों में प्रचंड बहुमत हासिल करने के बाद 18 मार्च 2017 को त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया गया कमोवेश उनके साथ भी ऐसे ही षड़यंत्र किया गया और बीते दिन उनसे भी इस्तीफा ले लिया गया। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि पंडित नारायण दत्त तिवारी के बाद अब तक तीन साल 11 महीने और 21 दिन का कार्यकाल पूरा करने वाले वे दूसरे मुख्यमंत्री बन गए हैं। उन्हें उनके चार साल के कार्यकाल के ठीक नौ दिन पहले हटा दिया गया।
तमाम आंदोलन और शहादतों के बाद अस्तित्व में आए इस उत्तराखंड राज्य के Political scenario को देखते हुए और अस्थिर सरकारों सहित अब तक यहाँ के जल, जंगल और जमीनों की लूटपाट को देखने के बाद राज्य का जनमानस अपने को ठगा हुआ सा महसूस करने लगा है। क्योंकि समस्याएं जस की तस हैं और आकांक्षाएं आसमान छूने लगीं हैं। जिन्होंने प्रधान नहीं बनना था वे मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन बैठे हैं। लेकिन आज भी राज्य वासियों के हाथ खाली हैं वे रोज़गार के लिए भटक रहे हैं। प्रसूता माँ -बहन अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी के चलते रास्ते में दम तोड़ने को मज़बूर हैं, शिक्षा की स्थिति बदहाल है और रोज़गार प्रदेशवासियों को नहीं बल्कि बाहरी प्रदेश के निवासियों के लिए उपलब्ध है। सूबे की ब्यूरोक्रेसी उस उदंड घोड़े की तरह हो चुकी है जो अपने ही सवार को गिराने पर आमदा है ऐसे में राज्यवासी अब इस राज्य को केंद्रशासित प्रदेश बनाने की मांग करने लगी है। राज्य के Intellectuals का कहना है अब बहुत हो गया अब इस राज्य को और Political parties की laboratory नहीं बनाया जा सकता।
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