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न्याय में देरी लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था में बाधक

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जड़े गहरी होने के बाबजूद भी देश की न्याय पालिकाओं में आमजन के न्याय में देरी हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओं में बाधक है। राष्ट्रपति,भारतीय संसद,हमारी न्यायपालिका पर पदासीन लोकतंत्र के सजग प्रहरियों को सचेष्ट होना पड़ेगा।
कमल किशोर डुकलान 
आजकल देशभर में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की सुरक्षा के साथ हुए खिलवाड़ का मामला चिंता और चर्चा का विषय बना हुआ है। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने देने और घटित हुई लापरवाही या साजिश पर त्वरित दंडात्मक कार्रवाई चुस्त प्रशासन का तकाजा होता है।
भारत सरकार के ग्रह मंत्रालय द्वारा जांच प्रारंभ करते हुए पंजाब के कुछ अधिकारियों को नोटिस भेजकर जवाब भी मांगा,किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इस सब पर रोक लगाते हुए जस्टिस इंदु मल्होत्रा की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे घटना की सच्चाई सामने आएगी। हालांकि पूर्व के अनुभव परिणाम के प्रति कुछ संदेह भी पैदा करते हैैं।
 हमको वर्ष 2019 के मध्य दिसंबर में नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में शाहीन बाग धरने के बाद जो आम जन के रास्ते रुके गए थे तथा जिस कारण दिल्ली का जनजीवन त्रस्त हुआ। उसके बाद जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई की गई। तीन वार्ताकारों की एक समित गठित की। एक वार्ताकार तो इसमें शामिल ही नहीं हुए।
शेष दो ने कोशिश की और धरनाकर्ताओं की मान मनव्वल हुई, किंतु उन लोगों ने इस कमेटी को कोई तवच्जो नहीं दी। जनता परेशान होती रही। न्यायालय ने कोई समादेश नहीं दिया। अंतत: मार्च 2020 के अंतिम चरण में कोरोना आधारित लाकडाउन देशभर में लग गया और धरना अपने आप समाप्त हो गया।
इसी तरह 13 महीने से अधिक चले कथित किसान आंदोलन का मामला है। दिल्ली के आसपास गाजीपुर,सिंघुु और टीकरी बार्डर पर भीड़ राजमार्ग अवरुद्ध किए रही। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें भी सुनवाई करनी शुरू की। कमेटी बनाई। कमेटी ने रिपोर्ट भी दी। शीर्ष अदालत ने कोई निर्णय देना तो दूर,कमेटी की रिपोर्ट तक सार्वजनिक नहीं की।
अंतत: केंद्र सरकार को ही कृषि सुधार वाले लोकोपयोगी तीनों कानून वापस लेने पड़े। तब धरना/आंदोलन समाप्त हुआ।
अब 137 करोड़ जनता के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर है। देखना है कि इस बार की कमेटी क्या कर पाती है? वैसे यह विषय कार्यपालिका का है और संविधान में यह एक अलग स्तंभ है। देखने में आ रहा है कि न्यायपालिका अन्य संवैधानिक स्तंभों की अधिकारिता वाले विषयों में बहुत सक्रिय हैै।
भले ही आम आदमियों के मुकदमे बड़ी संख्या में लंबित पड़े हों। यह स्वस्थ परंपरा नहीं है। और इस पर देश में हर तरफ से चिंता जताई जाती रही है, पर कोई सकारात्मक परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
न्याय में देरी लोकतंत्र और देश के संवैधानिक व्यवस्था में बाधक है। यद्यपि यहां जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जड़ें बहुत गहरी हैं।
तभी तो देवर्षि नारद ने संसार के स्वामी विष्णु भगवान तक को फटकार लगा दी थी, ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम सोई।। करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूं साधा॥’ लोकतंत्र के प्रहरियों को सचेष्ट होना पड़ेगा।

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