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चार धाम यात्रा : नापो सौ गज, फाड़ो नौ गज

व्योमेश जुगरान 

उत्तराखंड से निकलने वाले दैनिकों में हर साल अप्रैल शुरू होते ही एक खबर अलग-अलग रूपों में कई दिन तक पन्नों पर डोलती रहती है- ‘चार धाम यात्रा के लिए शासन ने कमर कसी़..। खबर में सरकार के पर्यटन और पुलिस महकमों की तैयारी अथवा समीक्षा बैठकों का हवाला होता है और यात्रा मार्ग पर यात्रियों को मुहैया कराई जाने वाली सुविधाओं के लंबे-चौड़े दावे किए जाते हैं। लेकिन इन दावेदारियों में कितना दमखम होता है, यह यात्रा का पहला ही हफ्ता तय कर देता है। साफ पता चल जाता है कि सरकार ने नापा सौ गज है, पर फाड़ा सिर्फ नौ गज है।

आम तीर्थयात्री तो यात्रा मार्ग पर बढ़े नए दबावों के कारण पहले से कहीं अधिक कष्ट झेलने को अभिशप्त नजर आता है लेकिन सरकार की सांसें नहीं फूलती। कारण कि देश के कोने-कोने से चारधाम यात्रा पर पहुंचने वाले भोले-भाले तीर्थयात्रियों का भक्तिभाव इन कष्टों को सहजता से पी जाता है। यहां तक कि उन्हें ये मुश्किलें तपस्या सरीखी लगती हैं जो कि उनके धार्मिक विश्वास के अनुसार बदरी-केदार धाम के दर्शनों का अधिकाधिक पुण्य-प्रताप बटोरने के लिए सहनी जरूरी हैं।

रही वीवीआईपी यात्री की बात तो सालाना समीक्षा बैठकें तो असल में इसी श्रेणी के सैलानी के लिए होती है। इन बैठकों में सबसे अधिक जोर यात्रा सीजन के दौरान पहाड़ आने वाले अति विशिष्ठों की मेजबानी और उनकी सुरक्षा चिंताओं पर होता है। पहले कुछ जिंदादिल पत्रकार यात्रा सीजन के दौरान वीआईपी दौरों पर अलग से स्टोरी बनाकर सरकार को घेर लिया करते थे और इस बहाने सुविधाओं से वंचित आम यात्री पर भी बात हो जाया करती थी लेकिन अब यह सिलसिला खत्म हो चला है। वैसे भी अब अपने ही मंत्री-संतरी क्या कम हैं!

अप्रैल की समीक्षा बैठकों की परिपाटी को दशकों हो गए, पर देश के कोने-कोने से पहुंचने वाले आम श्रद्घालु की मेजबानी के मद्देनजर इस चारधाम तीर्थयात्रा का कोई ठोस स्वरूप आज तक सामने नहीं आ सका। बल्कि पहले जो यात्रा तीरथ और धार्मिक काज के कारण एक खास तरह की सांस्कृतिक संवेदना लिए हुए थी, आज एक पेशेवर आवरण से ग्रस्त है। छोटा पनसारी से लेकर मोटा मारवाड़ी तक सब यात्रा सीजन की इस दिवाली में पूरे साल का वारान्यारा कर लेना चाहते हैं। सत्ताधारी नेताओं और नौकरशाहों के लिए भी यही असल दिवाली होती है।

सरकार समय-समय पर चारधाम यात्रा के बहाने केंद्र से मोटी रकम ऐंठने की जुगत भिड़ाए रहती है। उसे इस यात्रा के बहाने सरकारी-गैरसरकारी अध्ययनों और सम्मेलनों-सेमिनारों पर पैसा लुटाना होता है। नई-नई प्लानिंग बनती हैं। कभी तय होता है कि यात्रा की अवधि बढाई जाएगी, कभी इसे पर्यटन सर्किटों से जोड़कर मार्डन लुक देने की बातें की जाती हैं। कभी महोत्सवों के नाम पर तो कभी प्रचार-प्रसार के हाइटेक तरीकों के बहाने खजाने पर खूब सेंध लगाई जाती है। टाटा कंसल्टेंसी जैसे इजारों को मोटा पैसा देकर रिपोर्ट तैयार कराने और सिंगापुर की तर्ज पर पर्यटन विकास के लिए उच्चस्तरीय पर्यटन परिषद बनाए जाने के खसोटू दृष्टांत सामने हैं।

सब कुछ होता है, बस यही काम नहीं हो पाता कि यातायात के सार्वजनिक साधनों के अभाव में हरिद्वार-ऋषिकेश में कई-कई दिन तक इंतजार करते लोग मौके का फायदा उठाने वाले मोटर एजेंटों का चंगुल से कैसे बचे रहें और जेबें गरम करती सीजनल/पर्यटन पुलिस को कैसे कसा जाए? पाखंडियों के फेर, कमाई के साधन में तब्दील होती धर्मशालाएं, भोजन-पानी की दुकानों के मनमाने रेट, शौचालयों की तलाश में भटकते तीर्थयात्री और मौत से सामना कराती असुरक्षित सड़कें इत्यादि मुश्किलातों को अगली अप्रैल में पुन: होने वाली समीक्षा बैठक के लिए फाइल में टैग कर दिया जाता है।

यात्रा सीजन वाहन दुर्घटनाओं की दुखद याद लेकर न बीतेे, ऐसा सुनिश्चित करने के उपाय कभी नहीं दिखाई दिए। देश में सबसे अधिक जोखिम भरी पहाड़ की परिवहन व्यवस्था को शासकीय और गैरशासकीय दोनों स्तर पर बेहद हलके ढंग से लिया जाता रहा है और इसे पहली प्राथमिकता कभी नहीं बनाया गया। अधिकांश सड़क हादसों के मामले की जांच फाइलों के अंबार में दम तोड़ देती है। सरकार तो सिर्फ इसे ही अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानकर अपनी पीठ आप ठोकती रहती है कि यात्रियों की संख्या इस साल कितनी बढ़ी और कितना अधिक चढ़ावा चढ़ा। उसकी प्रचार पत्रिकाओं में यह आंकड़ा ढूंढे नहीं मिलता कि इस साल कितने तीर्थयात्रियों को जान खोनी पड़ी।

यह दुर्भाग्य है कि उत्तराखंड के पहाड़ पर्यटन के नजरिए से सिर्फ संभावना और सराहना से आगे व्यावहारिक गति को कभी प्राप्त नहीं हो सके। आप बदरीनाथ में चले जाएं, एक उपनगर का स्वरूप ले चुके इस धाम में आपको कोई ऐसा स्थल नहीं मिलेगा जहां से आप दूर से ही मंदिर की भव्यता को निहार सकें। कंकरीट के निर्माण के बीच यह भव्यता कहीं लुप्त होकर रह गई है।
उत्तराखंड की चारधाम यात्रा एक प्राचीन परंपरा है जो देश की तीर्थ परंपरा की पवित्रता और आधात्मिक-धार्मिक महत्व को ऊंचा उठाती है। सामाजिक धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से यह यात्रा देश की धरोहर भी है।

ऐसे में चार धाम यात्रा की केंद्रीय धुरी से इतर हम पहाड़ के पर्यटन का कोई और चेहरा तलाश ही नहीं सकते, भले ही आप कितने भी मेगा पर्यटन सर्किट बना लें। इन सर्किटों के ऐलानों का एक ठहरा हुआ रिकार्ड न जाने कितने सालों से बजाया जा रहा है, पर ये ऐलान सरकारी फाइलों से बाहर आज तक नहीं आ पाए। जिन प्रमुख सर्किटों की बात अरसे से हो रही है, वे हैं- पौडी-खिर्सू-लैंसडाउन-कण्वाश्रम सर्किट, उत्तरकाशी-रैंथल-बारसू-दयारा सर्किट, नैनीताल-अल्मोडा-रानीखेत सर्किट, रीठा साहिब-नानकमत्ता सर्किट, बिंसर-बैजनाथ-बागेश्वर सर्किट, भवाली-रामगढ-मुक्तेश्वर-धारी-भीमताल सर्किट, चंपावत-लोहाघाट-काठगोदाम सर्किट और मासी-चौखुटिया-द्वाराहाट-कौसानी-बागेश्वर सर्किट इत्यादि।

दरअसल सरकार को यह समझना चाहिए कि कोई भी सैलानी निजी सुविधा और साधन के हिसाब से डेस्टिनेशन तय करता है। यानी वह अपना सर्किट खुद चुनता है। क्या सरकार बता सकती है कि अपनी इस कथित सर्किट परियोजना के तहत उसने क्या किसी भी एक सर्किट को आपस में जोड़ने वाली कोई परिवहन सेवा गठित की है और क्या इन जगहों पर ठहरने के माकूल इंतजाम किए गए हैं? पर्यटन विकास के नाम पर सर्किटों की रट छोड़नी होगी क्यों कि इस पर पहले ही खूब पैसा बहाया जा चुका है। इसकी बजाय सरकार को चाहिए कि वह राज्य के समग्र ढांचागत विकास पर जोर दे।

प्रदेशभर में सड़कें बेहतर होंगी और चुनिंदा स्थानों पर ठहरने-खाने के उचित इंतजाम होंगे तो सर्किट खुद ब खुद विकसित होते चले जाएंगे। राज्य में आने वाले पर्यटकों में 98 फीसदी तीर्थयात्री होते हैं। लिहाजा सरकार को चारधाम सर्किट पर होमवर्क करने की सबसे अधिक जरूरत है। इधर केंद्र सरकार ने चार धामों के लिए ‘ऑल वेथर रोड’ का ऐलान किया है। कर्णप्रयाग तक रेल के लिए भी संजीदा कोशिश हो रही हैं। देखना होगा कि राज्य सरकार इस दिशा में अपनी सक्रियता को कितना बढ़ा पाती है।

हमारा सुझाव है कि राज्य में चारधाम यात्रा का अलग मंत्रालय होना चाहिए। चारधाम को कैसे देश की सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और सुदर्शन तीर्थयात्रा बनाया जा सकता है और यह किस तरह स्थानीय आर्थिक विकास से जुड़कर राज्य की जीवनरेखा में बदली जा सकती है, इस पर न जाने कितने विशेषज्ञों, समाजसेवियों और स्वतंत्र शोधार्थियों ने सालों से व्यावहारिक अध्ययन और शोध किए हैं। सरकार इन अध्ययन और शोध रिपोटार्ें को आमंत्रित करने भर का काम करे तो चारधाम यात्रा के लिए एक ठोस नीति का खाका तैयार किया जा सकता है। सरकार यदि कोई ठोस योजना लेकर जनता के सामने प्रस्ताव रखे तो चारधाम यात्रा के विकास और उसे भव्य रूप देने के लिए खुद श्रद्घालुओं में से ही कई लोग करोड़ों रुपये लेकर आगे आ सकते हैं।

लेकिन अब तक राज्य सरकारें इसी बात से गदगद होती आई हैं कि चारधाम यात्रा के लिए हेलीकॉप्टर सेवा के दर्जनों आवेदन नागरिक उड्डयन मंत्रालय के पास आए हुए हैं। इन उड़नखटोलों का हम क्या करें ! आकाश मार्ग से आमदरफ्त बढ़ जाने से आम आदमी को क्या लाभ? उल्टे इस शांत प्रदेश में अपराध और ऐय्याशी के नए-नए अड्डों का खतरा बढ़ सकता है। हेलीकॉप्टर से आने वाला तो डिब्बाबंद भोजन व चाय से भरे थर्मस भी साथ लेकर आएगा। ऐसे में हमारे उस ‘बीए पास बीरू’ का क्या होगा जिसने चार पैसा कमाने के लिए सड़क किनारे चूल्हे पर केतली चढ़ा रखी है। क्या उसके नसीब में वह कचरा साफ करना ही बंधा है जो हेलीकॉप्टर से उतरा साहब झाड़कर चला गया है !

(लेखक उत्तराखंड के निवासी हैं और देश के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार व लेखक हैं उन्ही की फेसबुक वाल से साभार)

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