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जाति व्यवस्था : कुछ अलग आयाम भी हैं
जाति बदली नहीं जा सकती ..पर क्या इसके पीछे कोई आधार है या देश-काल –परिवेश में ऐसी मान्यताओं में बदलाव
मुकेश प्रसाद बहुगुणा
भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति
इससे पहले भारत में हर एक व्यक्ति की जाति अपने व्यवसाय से परिभाषित की जाती थी और व्यक्ति की मृत्यु तक उसे उसी व्यवसाय में रहना होता था। उच्च जाति के लोगों को किसी अन्य जाति के लोगों से आपस में मिलने और शादी करने की अनुमति नहीं मिलती थी। इस प्रकार भारत में जातियां वास्तव में समाज को अलग कर रही थीं।
आम तौर पर जाति व्यवस्था हिंदू धर्म से जुड़ी होती है। ऋग वेद (प्रारंभिक हिंदू पाठ) के अनुसार चार वर्ग थे जिन्हें ‘वर्ण’ कहा जाता था। वर्णों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते थे। अधिकांश इतिहासकार आज भी मानते हैं कि आज की जाति व्यवस्था इन वर्णों पर आधारित है।
इसके अलावा यहाँ पाँचवीं श्रेणी भी मौजूद थी जो शूद्रों से भी कमजोर मानी जाती थीं और वह “अछूत” या दलित होते थे। ये वे व्यक्ति थे जो मलमूत्र या मृत पशुओं को निकालने का कार्य करते थे। इसीलिए उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने और एक ही जल स्रोत से पानी पीने आदि की अनुमति नहीं होती थी। छुआ-छूत भेद-भाव का सबसे सामान्य रूप है जो कि भारत में जाति व्यवस्था पर आधारित है।
लेकिन कब और कितनी जातियां भारत में उत्पन्न हुई हैं, यह स्पष्ट नहीं है। जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के संबंध में कई सिद्धांत आगे रखे गए हैं लेकिन अब तक इस संबंध में कोई ठोस सबूत नहीं मिला है।
आम मान्यताएं हैं कि जाति जन्म से हुआ करती है , जाति बदली नहीं जा सकती ..पर क्या इसके पीछे कोई आधार है या देश-काल –परिवेश में ऐसी मान्यताओं में बदलाव हुआ है ? आइये देखते हैं कुछ उदाहरण –
ययाति की दो पत्नियाँ थीं – शर्मिष्ठा एवं देवयानी I शर्मिष्ठा के कई पुत्रों में से एक पुत्र पुरु हुए ,जिनके वंश में आगे चल कर कुरु हुए (जिनके बाद कुरुवंश की स्थापना हुई ) I देवयानी के पुत्रों में एक यदु हुए ,जिन्होंने यदु वंश की स्थापना की I
कुरुवंश और यदुवंश क्षत्रिय माने गए ,किन्तु कालांतर में कैसे यदुवंशज क्षत्रिय की बजाय कमतर माने गए और अब पिछड़ी जाति में माने जाते हैं ? यहाँ इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि ययाति स्वयं प्रजापति ब्रह्मा की ११वीं पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे I ब्रह्मा को ब्राह्मण माना जाता है , तो एक ब्राहमण के वंशज कैसे आगे चल कर क्षत्रिय हो गए , और इनके आगे के वंशजों में एक पिछड़ी जाति ?
यह भी माना जाता है कि वैदिक मन्त्रों की रचना ब्राह्मणों का विशेषाधिकार हुआ करता था I किन्तु विश्वामित्र क्षत्रिय होने के बावजूद वैदिक मन्त्रों के रचयिता हुए , गायत्री मन्त्र की रचना विश्वामित्र द्वारा ही की गयी थी ,साथ ही इन्होने ही यज्ञोपवीत (जिसे अब जनेऊ कहा जाता है ) की व्यवस्था भी दी I एक क्षत्रिय को वैदिक मन्त्रों की रचना का अधिकार किस जातीय व्यवस्था से मिला ,यह एक शोध का विषय है Iजहाँ तक जनेऊ से जुड़ीं मान्यताएं है ,तो यह माना जाता है कि जनेऊ सिर्फ उच्च वर्णों के पुरूषों का अधिकार है ,लेकिन परम्परा में देवी दुर्गा को भी जनेऊ अर्पित किया जाता है ,एवं वर्ण विहीन (वानर कुल वर्ण /जाति व्यवस्था में नहीं आता ) हनुमान जनेऊ धारण कैसे करते थे ?
भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत
पारंपरिक सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार ब्रम्हांड के निर्माता ब्रम्हां जी ने जाति व्यवस्था का निर्माण किया था। ब्रह्मा के जी के विभिन्न अंगों से जैसे उनके मुख से ब्राह्मणों का, हाथ से क्षत्रिय, वैश्य पेट से और इसी तरह अन्य विभिन्न जातियों का जन्म हुआ। विभिन्न जातियों के लोग अपने मूल स्रोत के अनुसार कार्य करते हैं। प्राचीन भारत में विभिन्न उपजातियां इन जातियों से पैदा हुईं और इसने मनु के वर्णन के अनुसार प्राचीनकाल-संबंधी व्याख्या प्राप्त की है। इस सिद्धांत की आलोचना की गई है क्योंकि यह एक अलौकिक सिद्धांत है और इसके आधार अस्तित्व सिर्फ दिव्य (कल्पनीय) हैं।
राजनीतिक सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार ब्राह्मण समाज पर शासन करने के अलावा उन्हें पूर्ण नियंत्रण में रखना चाहते थे। इसलिए उनके राजनीतिक हित ने भारत में एक जाति व्यवस्था बनाई। जिसमें एक फ्रांसीसी विद्धान निबे दुबास ने मूल रूप से इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया, जो भारतीय विचारकों डॉ. घुर्ये जैसे लोगों से भी समर्थित थे।
धार्मिक सिद्धांत: यह माना जाता है कि विभिन्न धार्मिक परंपराओं ने भारत में जाति व्यवस्था को जन्म दिया था। राजा और ब्राह्मण जैसे धर्म से जुड़े लोग उच्च पदों पर आसीन थे लेकिन अलग-अलग लोग शासक के यहां प्रशासन के लिए अलग-अलग कार्य करते थे जो बाद में जाति व्यवस्था का आधार बन गए थे। इसके साथ साथ, भोजन की आदतों पर प्रतिबंध लगाया जो जाति व्यवस्था के विकास के लिए प्रेरित हुआ। इससे पहले दूसरों के साथ भोजन करने पर कोई प्रतिबंध नहीं था क्योंकि लोगों का मानना था कि उनका मूल एक पूर्वज से था। लेकिन जब उन्होंने अलग-अलग देवताओं की पूजा शुरू की तो उनकी भोजन की आदतों में बदलाव आया। इसने भारत में जाति व्यवस्था की नींव रखी।
व्यावसायिक सिद्धांत: नेस्फील्ड ने मूल रूप से व्यावसायिक नाम का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार भारत में जाति किसी व्यक्ति के व्यवसाय के अनुसार विकसित हुई थी। जिसमें श्रेष्ठ और निम्नतर जाति की अवधारणा भी इस के साथ आयी क्योंकि कुछ व्यक्ति बेहतर नौकरियां कर रहे थे और कुछ कमजोर प्रकार की नौकरियों में थे। जो लोग पुरोहितों का कार्य कर रहे थे, वे श्रेष्ठ थे और वे ऐसे थे जो विशेष कार्य करते थे। ब्राह्मणों में समूहीकृत समय के साथ उच्च जातियों को इसी तरह से अन्य समूहों को भी भारत में विभिन्न जातियों के लिए अग्रणी बनाया गया।
विकासवादी सिद्धांत: जाति व्यवस्था सिर्फ अन्य सामाजिक संस्था की तरह है जो विकास की प्रक्रिया के माध्यम से विकसित हुई है।
कई सिद्धांत या कई लोगों का सिद्धांत: प्रोफेसर हट्टन ने इस सिद्धांत को स्थापित किया। जाति व्यवस्था आर्यों से पहले से ही भारत में थी लेकिन आर्यों ने हर किसी पर यह लागू करके जाति व्यवस्था को स्पष्ट कर दिया था। भारत में, अजनबियों के संपर्क में आने या छूने का डर था क्योंकि छूने से अच्छा या बुरा हो सकता है। इसलिए लोगों ने खुद को दूसरों के पास आने से रोकना शुरू कर दिया और इसने खाने की आदतों पर प्रतिबंध लगा दिया।