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उत्तराखंड की राजधानी को बदलने का आह्वान!

  •  नब्बे से गूंज रहे हैं उत्तराखंड की वादियों में गैरसैंण के नारे

वेद विलास उनियाल

गैरसैंण को राजधानी बनाने की सोच के पीछे यही आशय था कि यह गढवाल और कुमाऊं क्षेत्र के बिल्कुल बीच में है और यहां राजधानी स्थापित करने से गावों से होता हुआ विकास पूरे पहाड़ को समृद्ध करेगा।

वैसे भावनात्मक स्वरूप से देखें तो गैरसैंण को राजधानी बनाने का सपना पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढवाली का था। उन्होंने महसूस किया था कि अगर कभी भविष्य में कोई राज्य बनता है तो गैरसैंण इसके लिए उपयुक्त स्थल है। इसलिए जब नब्बे के दशक में राज्य आंदोलन हुआ तो नारे गैरसैंण के लिए भी गूंजते रहे।

इस क्षेत्र में उत्तराखंड राज्य बनने का उल्लास इस तरह था कि उस समय राज्य की राजधानी देहरादून बनाए जाने पर बड़ा सवाल खड़ा नहीं हुआ। इस राज्य में कुछ मैदानी इलाके भी जुड़े तो यही माना गया कि शुरू के कुछ वर्षों में सुविधा के लिहाज से देहरादून ही उपयुक्त होगा। बाद में समय के साथ गैरसैंण क्षेत्र को पूरी तरह विकसित करके राजधानी के स्वरूप में ढाल दिया जाएगा। इसलिए राज्य की राजधानी भले देहरादून हो लेकिन कोई भी नेता गैरसैंण पर विरोध का स्वर नहीं उभरता था। लेकिन इन सोलह सालों में राज्य जिस दिशा में चला उसमें उत्तराखंड के गांव सबसे ज्यादा उपेक्षित हो गए। पलायन भी होता रहा। केवल पिछले पंद्रह साल में ढाई लाख लोगों के घरों में ताले लगे हैं। पौड़ी के निकट एक गांव में तो एक ही महिला कई सालों से रह रही है। गांवों के सूने होने का मंजर हर तरफ है लेकिन पौड़ी अल्मोडा पिथौरागढ चमोली से कफी पलायन हुआ है। और यह पलायन केवल उत्तराखंड से बाहर की ओर का ही नहीं बल्कि इस राज्य में ही देहरादून हरिद्वार और उधमसिंह नगर के लिए भी हुआ है।

समुचित विकास न होने, बार बार की आपदा और संचार स्वास्थ्य की सुविधाओं की ठीक सुविधा न होने से लोगों ने मजबूर होकर अपने गांवों को छोडा। पहले गांवों से कुछ लोग शहरों की ओर निकलते भी थे तो परिवार गांव में रहता था। लेकिन अब घरों में ताले रहे हैं। इस स्थिति में जहां उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों का तानाबाना टूट रहा है वहीं सुरक्षा और आपदा के दृष्टिकोण से भी गांवों का निर्जन होना ठीक नहीं। अजब यह भी कि केवल आम लोगों ने ही गावों से पलायन नहीं किया। बल्कि समृद्ध और क्षेत्र में राजनीति, व्यवसाय, कला संस्कृति समाजिक सरोकार रखने वाले लोग भी गांवों से निकलकर देहरादून या तराई क्षेत्र में बसते गए। उत्तराखंड को गांव से शहरों की ओर देखा जाना चाहिए था, लेकिन राज्य का आधार शहरों पर ही केंद्रित कर दिया गया। सब कुछ सिमट कर देहरादून आ गया। स्थिति यहां तक आई कि विधायक और दूसरे जनप्रतिनिधि चाहे किसी क्षेत्र के हों लेकिन वे देहरादून में रहकर ही अपना कामकाज संचालित करते हैं। उनका ज्यादातर समय देहरादून या हलद्वानी जैसे मैदानी इलाकों मे ही बीतता है। पहाड और गांव से उनके सरोकार कम हो गए हैं।इन स्थितियों में असंतोष बढना स्वाभाविक है। यहां तक कि इस दशा को लेकर लोकगीत भी बन गए हैं। सब्बी धाणी देहरादून खाणी कमाणी देहरादून यानी जो कुछ भी है वो सब देहरादून में ही है, अगर कुछ रोजगार कमाने का साधन है तो देहरादून ही है।

उत्तराखंड आंदोलनकारियों के मन में तीन बातें घूम रही थी। उत्त प्रदेश से अलग होने पर इस क्षेत्र को इसकी संसाधनों पर विकसित करेंगे। इसके लिए पर्यटन, बागवानी, जल स्त्रोत, योग, आयुर्वेद जडी बूटी, पांरपरिक लघु उद्यम, शिक्षा और होटल रेस्त्रा तमाम चीजों से बहतर राज्य के रूप में आगे लाया जाएगा। कहीं न कहीं पड़ोसी हिमाचल ने अपनी स्थापना के साथ ही अपने आधार पर जिस तरह विकास किया उसकी कोई कल्पना लोगों के मन में थी। इसके लिए लोगों के मन में अपेक्षा थी कि राज्य बनने ही गांवों कस्बों का विकास होने लगेगा। लेकिन सरकारी आंकडों के उलट उम्मीद धरी रह गई। उत्तराखंड के दूरदराज के गांवों के लिए देहरादून और तरा के दूसरे शहर उसी तरह अपरिचित बने रहे जैसे कभी वह लखनऊ दिल्ली को देखते थे। इन स्थितियों में लोगों में यह भावना उमड़ी है कि देहरादून को राजधानी बनाकर राज्य संवर नहीं सकता। वही हालात बने रहेंगे।

देहरादून राजधानी के रूप में सामने आई तो कई विसंगतियां बढती गई। राज्य में खनन होता रहा। उर्जा स्वास्थ्य शिक्षा के विभाग चरमराए। राज्य गति नहीं पकड़ सका। ऐसे में अब उत्तराखंड के लोगों को यही उम्मीद लगती है कि शायद उत्तराखंड के पहाडों में राजधानी बने तो स्थिति संभलेंगी। इसके लिए आंदोलन यात्राएं हो रही हैं। शहरों में भी पर्चे बांटते लोग दिख रहे हैं। गैरसैंण की बात केवल गांवों से नहीं हो रही, बल्कि मुबई दिल्ली जैसे शहरों से भी सामजिक संस्थाएं गैरसैंण के लिए यात्राएं निकाल रही है।

गैरसैंण अपने आप में एक खूबसूरत जगह है। अगर यह राज्य की स्थाई राजधानी के रूप में सामने आता है तो यह देश के ही नहीं दुनिया के खूबसूरत राजधानियों में एक होगी। यहां पर राजधानी का स्वरूप देने के लिए विधानभा भवन बनाया जा रहा है, जिसे अब हरीश रावत सरकार ने वीर चंद्र सिंह गढवाली नाम दिया है। इसके अलावा यहां तंबू लगाकर विधानसभा के सत्र भी चले हैं। इसे राजधानी बनाने के सवाल पर कशमकश है। राजनीतिक पार्टियां और नेता गोलमोल जवाब देते हैं। एक ही राजनीतिक पार्टी में अपने अंतर्विरोध उभर आते हैं।

सवाल यही है कि अगर सरकारों की सोच इसे स्थाई राजधानी का स्वरूप देने के लिए है तो फिर देहरादून में 18 करोड की लागत से मुख्यमंत्री आवास क्यों बनाया गया। सचिवालय राजभवन पर खर्च क्यों हुआ। नई विधानसभा के लिए भी जमीन के नापतोल इस मुद्दे की उलझन बढाती है। वास्तव में राजनीतिक पार्टियां सोचती क्यां है इसे यहां का व्यक्ति समझ नहीं पा रहा है। क्योंकि इसके कई पेंच है। उत्तराखंड का एक बड़ा क्षेत्र मैदानी है। जहां से चुनकर आने वाले प्रतिनिधि सत्ता और शासन के समीकरणों को बनाऔर बिगाड सकते हैं। यही नहीं इन मैदानी इलाकों में पहाड़ों के नेताओं के अपने राजनीतिक क्षेत्र भी है। बहुत छोटे स्तर पर ही सही लेकिन टिहरी देहरादून आदि क्षेत्र में कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि देहरादून से गैरसैंण दूर हो जाएगा। हालांकि पहाड़ों के समग्र विकास पर गैरसैंण के लिए स्वर मिलाते दिखेंगे। एक पेंच नौकरशाही का भी है। ब्यूरोक्रेट्स देहरादून को ही राजधानी के लिए सहज मानता है। इसके पीछे कई कारण है। लेकिन मशाल जली तो तो गैरसैंण का आंदोलन की आंच बढेगी। दक्षिण में चंद्र बाबू नायडू के राजधानी बदलने के फैसले को भी गैरसैंण के लिए उदाहरण की तरह देख रहे हैं।

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