UTTARAKHAND

सेवानिवृत्त नौकरशाहों को जिम्मेदारी देने से पहले उनकी उपलब्धियां तो जान लेते सरकार

सरकार, क्या रिटायर्ड नौकरशाहों के भरोसे होगा उत्तराखंड में आर्थिक चिंतन

नौकरशाह मनोयोग से काम करते तो संभावनाओं वाले राज्य में बेहतर होते आर्थिक हालात

क्या सरकार उत्तराखंड में सेवानिवृत्त लोगों को पुनः सेवाएं देने की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहती है 

उत्तराखंड में सरकारों ने ही यहां नौकरशाहों को जवाबदेह नहीं बनाया

देवभूमि मीडिया ब्यूरो

देहरादून। उत्तराखंड सरकार क्या उन सेवानिवृत्त अधिकारियों के भरोसे आर्थिक चिंतन कर रही है, जो जिम्मेदार पदों पर रहते हुए उत्तराखंड के आर्थिक हालात और मजबूरी के पलायन को कम नहीं कर पाए। सेवानिवृत्त नौकरशाहों को कोई भी जिम्मेदारी सौंपने से पहले राज्य के लिए उनकी उपलब्धियों को तो जान लेना चाहिए था। सवाल यह भी है कि क्या सरकार को उत्तराखंड से पलायन रोकने तथा रोजगार की संभावनाओं वाले क्षेत्रों में योगदान देने वाले लोगों को नजरअंदाज करना चाहिए। क्या किसी भी आर्थिक चिंता में इनसे राय मशविरा नहीं करना चाहिए। 

कोरोना संक्रमण से जूझते हुए उत्तराखंड राज्य के आर्थिक हालात सरकार के सामने बड़ी चुनौती बने हैं। यह स्थिति केवल उत्तराखंड के लिए ही नहीं है, बल्कि पूरे देश में आर्थिक गतिविधियां थमी हैं। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यहां 20 साल बाद भी यही कहा जाता है कि पर्वतीय क्षेत्रों में बुनियादी संसाधनों का अभाव ही मजबूरी का पलायन करा रहा है। हम आज भी पर्वतीय उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने की व्यवस्था को मजबूत नहीं कर पाए। दूरस्थ पर्वतीय इलाकों में हेल्थ सिस्टम संबंधी उपलब्धियों में गिनाने लायक कुछ बड़ा नहीं है। हालांकि राज्य बनने के बाद देहरादून सहित तराई नगरों में जरूर तरक्की हुई है। यहां पहाड़ की बात करने वाले नौकरशाहों ने क्या उन स्थानों पर जाकर हालात का नजारा लिया है, जिन तक राहत पहुंचाने के लिए उत्तराखंड को अलग राज्य बनाया गया था ।   

अगर वास्तव में पूरे मनोयोग से कार्य होता तो स्थिति कुछ और होती, ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, कुछ दिन पहले उत्तरकाशी के मोरी ब्लाक से आई एक खबर पर नजर डालते हैं- गंगाड़ गांव के लोगों को एक गर्भवती महिला को डंडों से बनी स्ट्रेचर पर बैठाकर 12 किमी. पैदल मोरी एक लाना पड़ा। सबसे दुखद बात तो यह है कि सड़क तक पहुंचने तक अत्यधिक रक्तस्राव से गर्भस्थ शिशु ने दम तोड़ दिया, इससे पहले भी त्यूणी के एक पैदल झूला पुल पर एक महिला से बच्चा जना और भी न जाने कितने उदाहरण ढूंढो तो मिल जायेंगे। यह उत्तराखंड की बात हो रही है और इसी युग की बात कर रहे हैं। यह एक खबर नहीं है, ऐसे समाचार पहाड़ के दूरस्थ इलाकों से आते रहते हैं। क्या अब भी आप कहेंगे कि 20 साल के उत्तराखंड में नौकरशाहों के पास गिनाने लायक उपलब्धियां हैं। यहां जितना सरकारों को जिम्मेदार कहेंगे, उतने ही जिम्मेदार नौकरशाह भी हैं, जिनके पास योजनाएं बनाने से लेकर उनको धरातल पर क्रियान्वित कराने की जिम्मेदारी होती है। 

अक्सर हालात सुधारने की जिम्मेदारी सरकारों के सिर मढ़ दी जाती हैं। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि यहाँ अब तक सत्तापर कबिज सरकारों ने ही यहां तैनात नौकरशाहों को जवाबदेह नहीं बनाया है। ऐसे में किसी को तो जवाब देना होगा। अगर 20 साल में नौकरशाहों ने राज्य को बुनियादी संसाधनों और आर्थिक गतिविधियों का मजबूत केंद्र बनाने में योगदान दिया होता तो हालात चिंतनीय नहीं होते। अगर कोई यह कहता है कि उत्तराखंड में पहाड़ और उसकी बिषम भौगोलिक परिस्थितियां विकास में बाधा पहुंचाती हैं, तो माफ करना ऐसे अफसरों के लिए उत्तराखंड नहीं है। पूर्वोत्तर राज्यों के अतिरिक्त जम्मू कश्मीर, हिमाचल भी तो पर्वतीय भू-भाग वाले राज्य हैं वहां तो ऐसे उदाहरण बहुत ही कम सुनने को मिलते हैं। 

उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों की ही बात करें तो वहां पर्यटन, परिवहन, तीर्थाटन, बागवानी, आर्गेनिक फार्मिग, स्थानीय उत्पादों पर आधारित कृषि, आयुर्वेद, पशुपालन, वन एवं पर्यावरण, मत्स्य पालन, कुटीर उद्योग, जल संसाधन, सोलर एनर्जी, फिल्म इंडस्ट्री के लिए तमाम संभावनाएं हैं, जिनका जिक्र हमेशा से सरकारें करती रही हैं। क्या पहाड़ में स्वरोजगार के तमाम संसाधनों को आर्थिक गतिविधियों में शामिल करने की जिम्मेदारी अधीनस्थ अधिकारियों से लेकर मुख्य सचिव तक की नहीं है। क्या यह उन सेवानिवृत्त नौकरशाहों की जिम्मेदारी नहीं थी, जिन्होंने अभी तक उत्तराखंड में सेवाएं प्रदान कीं।

खैर मुद्दे की बात पर आते हुए, आर्थिकी में सुधार लाने और आजीविका के संसाधनों में वृद्धि के लिए सरकार ने उच्च स्तरीय सलाहकार समिति का गठन किया है। एक रिटायर्ड नौकरशाह की अध्यक्षता में बनाई गई समिति को लेकर यही सवाल उठ रहे हैं, जिनका हम जिक्र कर रहे हैं। क्या मौजूदा सरकार उत्तराखंड में सेवानिवृत्त लोगों को पुनः सेवाएं देने की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहती है। सेवानिवृत्ति के बाद अधिकारियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपने से पहले क्या सरकार को यह नहीं जानना चाहिए कि जिन अफसरों से आर्थिक हालात सुधारने तथा आजीविका के संसाधनों में वृद्धि के लिए सुझाव मांगे जा रहे हैं, उन्होंने अपने कार्यकाल में जब उनके पास पूरी संवैधानिक शक्ति थी तब उन्होंने उत्तराखंड राज्य के लिए क्या कुछ ऐसा किया, जो राज्य के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ।

क्या सरकारी स्तर पर यह जानने का प्रयास किया गया कि जब ये सेवानिवृत्त अधिकारी उत्तराखंड में अहम जिम्मेदारी संभाले हुए थे, इनकी तब की उपलब्धियां क्या हैं। हम यह नहीं कहते कि नौकरशाहों ने राज्य के विकास में कोई योगदान नहीं दिया। योगदान दिया है तो उनकी उपलब्धियां भी होंगी। जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि जिन अफसरों से राज्य की आर्थिक चिंताओं को दूर करने की सलाह मांगी जा रही है, उन्होंने राज्य के खासकर पर्वतीय इलाकों के विकास के लिए क्या कुछ उल्लेखनीय किया।

दूसरा सवाल, सरकार के पास उन लोगों और संस्थाओं की लंबी फेहरिस्त है, जो विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान देते आए हैं। यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इन लोगों और संस्थाओं ने पहाड़ में हर हालात को मौके पर देखा और समाधान भी सुझाया है। क्या आर्थिक चिंताओं में इनको शामिल नहीं किया जाना चाहिए। अगर, हम बात करें नौकरशाहों की तो राज्य में उन सेवारत अनुभवी अफसरों का सहयोग तो लिया ही जा सकता है, जिनका चिंतन अपने दफ्तरों से बाहर पहाड़ के दूरस्थ इलाकों में लोगों से संवाद करके होता है।

तीसरा सवाल, राज्य सरकार के पास सलाहकारों की कोई कमी नहीं है, क्या उनका योगदान नहीं लिया जाना चाहिए। उनके पास कोई अनुभव या अपने उल्लेखनीय कार्यों की कोई फेहरिस्त नहीं है तो क्या सरकार को आर्थिक संकट डालते हुए उनके खर्चों को झेलना चाहिए।

devbhoomimedia

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