VIEWS & REVIEWS

अध्यात्म को वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता

नव ऋषियों के रूप में गम्भीर चिंतन और चिंतकों की आवश्यकता

विज्ञान के क्षेत्र में चिंतन,अनुसन्धान, आविष्कार,शोध और उपलब्धियां जितनी तेजी से आगे बढ़ी हैं,आध्यात्म का वैज्ञानिक पक्ष उसके समानांतर नहीं 

कमल किशोर डुकलान 
आध्यात्म से विज्ञान,ज्ञान की खोज में एक कदम और आगे बढ़ गया। अध्यात्म का एक पहलू गूढ़ चिंतन यह भी है, जिसमें तत्वमीमांसा,तत्वज्ञान अर्जित किया जाता है। अध्यात्म का दूसरा पहलू विज्ञान है जिसमें अनुसंधानों, तथ्यों एवं प्रयोगों के आधार पर सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जाता है। इस विधा ने अनेक वेद,पुराणों में स्थान पाया जिनमें प्रमुख हैं औषधि विज्ञान, खगोल शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, सामुद्रिक, स्थापत्य इत्यादि।
आधुनिक युग में जिस तरह वैज्ञानिकों का काम अनुसन्धान करना और अभियंताओं का काम उन अनुसंधानों का उपयोग कर सृजन करना है उसी प्रकार प्राचीनकाल में ऋषियों के भी दो वर्ग थे। एक वर्ग में अगस्त्य, चरक, सुश्रुत, देवशिल्पी विश्वकर्मा, विश्वामित्र जैसे अनेक अनुसंधानिक
चिंतक एवं साधक ऋषि हुए जिन्होंने निरन्तर तत्वमीमांसा या अनुसंधान अनेक प्रकार के सृजन किये। महर्षि चरक ने औषधियों की खोज की तो महर्षि विश्वामित्र ने उस युग में ऐसे हथियारों का आविष्कार किया जो आधुनिक हथियारों पर भी भारी हैं। दूसरा वर्ग राजर्षि वशिष्ठ, सांदीपनि,गुरु द्रोणाचार्य जैसे ऋषियों का था जो अगस्त्य, चरक, सुश्रुत, विश्वामित्र के द्वारा किये गये अनुसंधानों,उपलब्धियों और चिंतन को सम्राटों की राजसभा तक लाते थे। उनकी अनुशंसा पर सम्राट नीतियां बनाते थे और प्रजा उनका परिपालन करती थी। रणक्षेत्र में नवीन आविष्कृत आयुधों(हथियारों) का प्रयोग होता था।अंतिम श्रेणी प्रवचनकारों और कथाकारों की होती थी जो कभी कथा तो कभी प्रवचन के माध्यम से अद्यतन आचार संहिता एवं अर्जित ज्ञान को जन सामान्य तक पहुंचाते थे।
हम जानते हैं,कि देवालय का एक ऐसा प्रवेश द्वार हैं जहां मनुष्य अपनी भौतिक संसारिक निजता को त्यागकर अनन्त के साथ एकाकार होने के मार्ग की ओर अग्रसर होता है। मंदिर में साकार अप्रतिम प्रतिमा,दर्शनार्थी को विराट अनन्त के साथ जोड़ने का मार्ग प्रसस्थ करती है। आराधक की पहचान साकार अप्रतिम प्रतिमा से करवाती है और उस निर्गुण सत्ता से जिसका वह हिस्सा है,उस अपरिमित से जो नक्षत्रों और निहारिकाओं से परे कोटि कोटि ब्रह्माण्डों का विस्तार है। किन्तु यह बोध यात्रा आरम्भ होने से पूर्व ही उपासक प्रवेश द्वार पर केवल शीश नवाकर लौट जाता है।
हमारे धार्मिक ग्रन्थ भी उस विराट अलौकिक ब्रह्माण्ड की यात्रा आरम्भ करने के साधन हैं। अगर हमने इन धार्मिक ग्रंथों को समझ लिया,और उनमें दी गई शिक्षाओं का आचरण कर लिया तो हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को आगे बढ़ाते हुए उसमें निश्चित रुप से नए अध्याय जोड़ने का काम करेंगे। आद्युनिक युग में वैज्ञानिक प्रगति का रहस्य भी यही है कि हर नया सोपान चढ़ने के बाद वहीं विश्राम नहीं लेता है।
आधुनिक संसार में योगी कौन है? तप और साधना का अर्थ मात्र जप या ध्यान लगाकर बैठना नहीं है। विज्ञान के अनुसंधानों में लगे हमारे वैज्ञानिक किसी ऋषि से कम नहीं, सृजन में लगे हमारे अभियंता किसी योगी से कम नहीं और न ही अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र अदि विषयों में शोध करने वाले विद्वान किसी मुनि से कम है। तप एवं साधना में तल्लीन इन वैज्ञानिकों,अभियंताओं,और मनीषियों को नमन जिनका समाज में योगदान कथाकारों या प्रवचनकारों से कहीं अधिक है।
श्रीमद् भगवत गीता का बार-बार परायण हमारे लौकिक एवं पारलौकिक ज्ञान की नींव को मज़बूत तो करता है किन्तु भवन निर्माण का कार्य तो स्वयं आरम्भ करना होगा। बिना नव चिंतन, बिना अनुसन्धान एवं बगैर शोध के समाज का उत्कर्ष संभव नहीं है। जैसे-जैसे ग्रन्थ पुराने होते जाएंगे उनकी प्रासंगिकता को बनाए रखना धर्मगुरुओं के लिए चुनौतीपूर्ण होता जाएगा। अतः बेहतर तो यही होगा कि धर्मगुरु फिर चाहे वे किसी भी धर्म के हों, चिन्तन की धारा को अवरुद्ध न होने दें। धार्मिक ग्रन्थ मनुष्य को आचार संहिता में तो बांधते हैं किन्तु वे चिंतन के स्वातंत्र्य को नहीं बांधते क्योंकि यह मानव स्वभाव के विपरीत है।
मूढ़मति हैं वे लोग हैं जो धर्म के नाम पर समाज के चिंतन स्वातंत्र्य को अवरोधित करते हैं क्योंकि समाज के आगे बढ़ने से इनके व्यक्तिगत हितों पर चोट पहुंचती है। समाज इन लोगों से जितनी शीघ्रता से छुटकारा प्राप्त करेगा, उतनी ही तीव्रता से नई उपलब्धियां को भी प्राप्त करेगा। हमारे अध्ययन और चिंतन की यात्रा में व्यक्तिगत रूप से हमने पाया है कि विज्ञान के क्षेत्र में चिंतन,अनुसन्धान, आविष्कार,शोध और उपलब्धियां जितनी तेजी से आगे बढ़ी हैं,आध्यात्म का वैज्ञानिक पक्ष उसके सामानांतर नहीं चल पाया है जिसकी जीवन के उदात्त मूल्यों के लिए आवश्यकता है। इस दिशा में नव ऋषियों के रूप में गम्भीर चिंतन और चिंतकों की आवश्यकता है।

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