पर्यावरण संतुलन व आजीविका के लिए एग्रोफोरेस्ट्री महत्वपूर्ण
टाॅपर्स कान्क्लेव का तीसरा दिन
‘वनों का आजीविका में महत्व’ व ‘‘आयुर्वेद का जीवन में महत्व व हर्बल उत्तराखण्ड’’ विषयों पर हुई चर्चा
देहरादून : गुरूवार को राजभवन में आयोजित टाॅपर्स कान्क्लेव 2017 के तीसरे दिन के प्रथम सत्र में राज्यपाल डाॅ. कृष्ण कांत पाल की उपस्थिति में एफआरआई की निदेशक डाॅ. सविता ने ‘‘उत्तराखण्ड के विशेष परिदृश्य में स्थानीय लोगों की आजीविका में वनों का महत्व’’ विषय पर प्रस्तुतिकरण दिया।
डाॅ. सविता ने कहा कि एग्रोफोरेस्ट्री (कृषि वानिकी) के लिए ग्रामीणों को प्रेरित किया जाना चाहिए। एग्रो फोरेस्ट्री से पर्यावरण संतुलन के लिए कार्बन फिक्सिंग में सहायता मिलेगी वहीं इन्हें अपनाने वाले लोगों को आय भी प्राप्त होगी। एग्रो फोरेस्ट्री में शीशम,, यूकेलिप्टस, पापलर, मेलिया आदि पौधों की अधिक उत्पादकता वाली किस्मेें, किसानों व ग्रामीणों को उपलब्ध करवानी होगी।
डाॅ. सविता ने कहा कि उत्तराखण्ड वनाच्छादित हिमालयी राज्य है। यहां के वन आर्थिकी को मजबूत करने के लिए बहुत से अवसर भी प्रदान करते हैं। अक्षय ऊर्जा के प्रचुर संसाधन उपलब्ध हैं। प्राकृतिक सुंदरता, वन व जैव विविधता के कारण यहां इको टूरिज्म का बढ़िया स्कोप है। वन आधारित उद्यम को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। वनों को नुकसान पहुंचाए बिना, स्थानीय लोग वनों से आजीविका प्राप्त कर सकें, इसके लिए इको-तकनीक विकसित की जा रही हैं ताकि सस्टेनेबल डेवलपमेंट हो सके।
एफआरआई की डाॅ. सविता ने अनेक उदाहरण देते हुए बताया कि किस प्रकार वनों को स्थानीय लोगों की आजीविका में सहायक बनाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि हमारी पर्वतीय कला व संस्कृति, इको टूरिज्म, हैंडलूम, हैंडीक्राफ्ट से स्थानीय लोगों की आय का अच्छा स्त्रोत हो सकते हैं।
डाॅ. सविता ने बताया कि एफआरआई द्वारा अनेक सफल प्रयोग किए गए हैं। ‘समृद्धि’ के माध्यम से रेशम उत्पादन (सेरीकल्चर) के लिए एक एन्जाईम विकसित किया गया है। इसके प्रयोग से उत्पादन दुगुना हो गया है। साथ ही शहतूत के बजाय लेंटाना की पत्तियों पर भी रेशम कीट पालन सम्भव हुआ है। इसमें उत्पादित रेशम की गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है। सुगंधित तेल प्राप्त करने के लिए ग्रामीणों को छोटी डिस्टीलेशन यूनिट उपलब्ध करवाई जा रही हैं। इससे प्राप्त सुगंधित तेल का उपयोग काॅस्मेटिक, एरोमा, मेडिकल इंडस्ट्री में किया जाता है।
डाॅ. सविता ने कहा कि हिमालयी राज्यों में बांस भी आजीविका का एक अच्छा विकल्प है। प्रयास किया जा रहा है कि बांस की उम्र को बढ़ाया जा सके। साथ ही बांस से बने उत्पादों को लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सके। उत्तराखण्ड में ग्रामीण महिलाएं रिंगाल व निरगाल से टोकरियां बनाकर आय प्राप्त कर रही हैं। मशरूम, औषधीय पौधों व फूलों की खेती भी आजीविका में सहायक हो सकते हैं। नेचुरल डाई, फाईबर, स्थानीय फलों पर आधारित कुटीर उद्योगों के माध्यम से भी ग्रामीणों को आजीवका प्राप्त हो सकती है।
डाॅ. सविता ने कहा कि वन संसाधनों को स्थानीय आबादियों की आजीविका में सहायक बनाने के लिए एक्शन प्लान में वनों के आसपास रहने वाले लोगों की वन संसाधनों तक पहुंच सुनिश्चित करनी होगी।एक्ट द्वारा ट्राईबल जातियों के अधिकार सुरक्षित किए गए हैं। स्थानीय लोगों को वनों से अपनी आजीविका प्राप्त करने की पूरी स्वतंत्रता है। बशर्ते वनों को हानि न पहुंचाई जाए। स्थानीय लोग व स्वयं सहायता समूह वनों पर आधारित कुटीर व छोटे उद्योग प्रारम्भ कर सकें, इसके लिए ऋण व वित्त संबंधी सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी। साथ ही इनके उत्पादों के लिए मार्केट लिंकेज सुनिश्चित करने होंगे।
दूसरे सत्र मे दैनिक जीवनचर्या में आयुर्वेद के महत्व पर बोलते हुए प्रो0 अनुप कुमार ने कहा कि अन्न का मन पर सीधा प्रभाव होता है। हम जैसा भोजन करेंगे, हमारा स्वास्थ और व्यवहार भी उसके अनुकूल प्रतिबिम्बित होगा। आयुर्वेद का ज्ञान ऋषि मुनियों की दिव्य दृष्टि से उपजा ज्ञान है। उन्होंने व्यक्ति के दिनचर्या में पानी के प्रयोग पर विस्तृत जानकारी दी। साथ ही व्यवस्थित खान-पान का एक स्वस्थ व्यक्ति के जीवन में कितना महत्व है, इसकी भी विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने कहा कि चरक संहिता में पांच सौ औषधीय पौधों का नाम बताया गया है इनमें से तीन सौ औषधीय पौधे, उत्तराखण्ड में उगाये जाते हैं। उन्होंने कहा कि आयुर्वेद बीमारी को शरीर में आने से रोक सकता है। डा. कुमार ने दैनिक जीवन में घरेलू उपचारों के महत्व और उनके सकारात्मक प्रभाव पर भी विस्तृत रूप से प्रकाश डाला।
कान्क्लेव में छात्र-छात्राओं ने अनेक प्रश्न पूछे जिनका वक्ताओं द्वारा जवाब दिया गया। इसके बाद कान्क्लेव में प्रतिभाग कर रहे टाॅपर्स को सेलाकुई स्थित सेंटर फाॅर एरोमेटिक प्लांट्स का भ्रमण कराया गया।