AGRICULTURE
		
	
	
उत्तराखंड में कृषि और बागवानी : बहुत कठिन है, डगर पनघट की

उत्तराखंड में कृषि की संभावनाओं और चुनौती
प्रमोद शाह

प्रमोद शाह

 वर्ष 1964 से पहले जबकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का प्रसार देश में नहीं था. तब पर्वतीय क्षेत्र में 35 लाख से 22 लाख आबादी निवास करती थी। उस वक्त कमोवेश खाद्यान्न के मामले में हमआत्मनिर्भर थे ।हमारी आत्मनिर्भरता संयुक्त रूप से कृषि ,बागवानी और डेयरी का त्रिभुज ही हमारी आर्थिकी का आधार था। हमारे पास रमाई सेरा, गिवाड़ ,सोमेश्वर , मलेथा जैसे समृद्ध सेरे थे .तो दोगी ,भरपूर कांडा कमस्यार जैसे दर दर्जनो उपरांऊ के दलहन क्षेत्र भी थे, कृषि विज्ञान परंपराओं से अर्जित ज्ञान में था।
वर्ष 1964 से पहले जबकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का प्रसार देश में नहीं था. तब पर्वतीय क्षेत्र में 35 लाख से 22 लाख आबादी निवास करती थी। उस वक्त कमोवेश खाद्यान्न के मामले में हमआत्मनिर्भर थे ।हमारी आत्मनिर्भरता संयुक्त रूप से कृषि ,बागवानी और डेयरी का त्रिभुज ही हमारी आर्थिकी का आधार था। हमारे पास रमाई सेरा, गिवाड़ ,सोमेश्वर , मलेथा जैसे समृद्ध सेरे थे .तो दोगी ,भरपूर कांडा कमस्यार जैसे दर दर्जनो उपरांऊ के दलहन क्षेत्र भी थे, कृषि विज्ञान परंपराओं से अर्जित ज्ञान में था। सीड कंट्रोल एक्ट,पूंजी की ग्रामीण समाज पर पहली जीत थी । आज 60 साल बाद जब हम देखते हैं. हरित क्रांति के नाम पर हमने बेतहाशा फर्टिलाइजर का इस्तेमाल कर खेती को जहर बना दिया , बेशक तब से खाद्यान्न का उत्पादन साढे तीन गुना बडा , मगर फर्टिलाइजर का इस्तेमाल सौ गुना बड़ गया , इस कारण कैंसर जैसी बीमारी में लगभग 25 सौ गुना की बृद्धि हुई , तकरीबन 20 करोड़ किसान जमीन से बेदखल हुए ,किसानों की आत्महत्या दर प्रति वर्ष 20 गुना तक बडकर 16 हजार प्रति वर्ष हो गई ।
सीड कंट्रोल एक्ट,पूंजी की ग्रामीण समाज पर पहली जीत थी । आज 60 साल बाद जब हम देखते हैं. हरित क्रांति के नाम पर हमने बेतहाशा फर्टिलाइजर का इस्तेमाल कर खेती को जहर बना दिया , बेशक तब से खाद्यान्न का उत्पादन साढे तीन गुना बडा , मगर फर्टिलाइजर का इस्तेमाल सौ गुना बड़ गया , इस कारण कैंसर जैसी बीमारी में लगभग 25 सौ गुना की बृद्धि हुई , तकरीबन 20 करोड़ किसान जमीन से बेदखल हुए ,किसानों की आत्महत्या दर प्रति वर्ष 20 गुना तक बडकर 16 हजार प्रति वर्ष हो गई । उत्तराखंड के वर्तमान कृषि एवं बागवानी का सच दिखाने के लिए विवेकानंद केंद्र अल्मोड़ा और चौबटिया गार्डन की विफलता को समझना होगा, 1936 में विवेकानंद लैब्रोटरी से शुरुआत कर विवेकानंद कृषि अनुसंधान केंद्र अल्मोड़ा ने उत्तराखंड की परंपरागत कृषि ,परम्परागत बीज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । लेकिन वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है .साथ ही19 वी सदी के आखिर में अंग्रेजों द्वारा चौबटिया गार्डन को उद्यान का मॉडल बनाया गया , पूरे ट्रांस हिमालयन रीजन में अरुणाचल मेघालय नागालैंड, हिमाचल तक चौबटिया से ही सेव की पौध और तकनीक तकनीक पहुंची ।
उत्तराखंड के वर्तमान कृषि एवं बागवानी का सच दिखाने के लिए विवेकानंद केंद्र अल्मोड़ा और चौबटिया गार्डन की विफलता को समझना होगा, 1936 में विवेकानंद लैब्रोटरी से शुरुआत कर विवेकानंद कृषि अनुसंधान केंद्र अल्मोड़ा ने उत्तराखंड की परंपरागत कृषि ,परम्परागत बीज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । लेकिन वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है .साथ ही19 वी सदी के आखिर में अंग्रेजों द्वारा चौबटिया गार्डन को उद्यान का मॉडल बनाया गया , पूरे ट्रांस हिमालयन रीजन में अरुणाचल मेघालय नागालैंड, हिमाचल तक चौबटिया से ही सेव की पौध और तकनीक तकनीक पहुंची । उत्तराखंड में कृषि और बागवानी का क्या मॉडल हो सकता है इसके लिए मैंने बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े श्री विजय जड़धारी जी , श्री धूम सिंह नेगी जी और उत्तराखंड में कृषि क्षेत्र में विज्ञान का सफल प्रयोग करने वाले हार्क के निदेशक डॉक्टर महेंद्र कुंवर जी और पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर डा. बी .एस कार्की से बातचीत की,उनसे बातचीत के निष्कर्ष के आधार पर भविष्य में कुछ इस तरह के प्रयोग हमें करने होंगे ,जिससे कृषि और बागवानी विकास का टिकाउ तंत्र विकसित हो।
उत्तराखंड में कृषि और बागवानी का क्या मॉडल हो सकता है इसके लिए मैंने बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े श्री विजय जड़धारी जी , श्री धूम सिंह नेगी जी और उत्तराखंड में कृषि क्षेत्र में विज्ञान का सफल प्रयोग करने वाले हार्क के निदेशक डॉक्टर महेंद्र कुंवर जी और पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर डा. बी .एस कार्की से बातचीत की,उनसे बातचीत के निष्कर्ष के आधार पर भविष्य में कुछ इस तरह के प्रयोग हमें करने होंगे ,जिससे कृषि और बागवानी विकास का टिकाउ तंत्र विकसित हो।
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