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Lock down के एक वर्ष बाद आमजन की दिनचर्या

बगैर लॉक डाउन के महामारी से युद्ध स्तर पर कैसे लड़ना चाहिए ताइवान का अध्ययन और अनुभव है सिखाता 

कमल किशोर डुकलान
कोरोना वैश्विक महामारी में ताइवान जैसे देश ने संक्रमण बचाव में एक भी दिन लॉकडाउन नहीं लगाया और न ही बीमारी को पांव पसारने दिया गया। ताइवान का अध्ययन और अनुभव हमें यह सिखाता है,कि बगैर लॉक डाउन के महामारी से युद्ध स्तर पर कैसे लड़ना चाहिए …..
पिछले साल इन्हीं दिनों हुए लॉकडाउन से हम आज तक भी आजाद नहीं हुए हैं। जिसे अभी भी भूलना कठिन है,संपूर्ण लॉकडाउन की अवधि देश में चार चरणों में बढ़ाई गई थी और उसके बाद से अब तक अनलॉक होने का सिलसिला चल रहा है। फिलहाल देश अनलॉक 10 से गुजर रहा है,कोरोना के दुबारा संक्रमण से देश के करीब एक तिहाई हिस्से में अभी भी लॉकडाउन का खतरा मंडरा रहा है।सिर्फ यह महारोग ही मुसीबत नहीं है,उसके साथ रोजामर्रा की अनेक समस्याओं का पूरा गिरोह सा चल रहा है। कोरोना संक्रमण से अब तक सम्पूर्ण देशभर में एक लाख साठ हजार से ज्यादा लोगों की मौतें हुई हैं, लेकिन उससे कई गुना अधिक लोग कोरोना प्रतिबंधों के कारण अपनी माली हालत से बेहाल हुए हैं। कोरोना से हानि के अनेक आंकडे़ सामने आते रहते हैं और दिल केवल यही चाहता है कि जल्द से जल्द इससे मुक्ति मिले और इस चाह में लॉकडाउन से मुक्ति भी शामिल है। यह बहस तो अनंतकाल तक जारी रहेगी कि कोरोना ने ज्यादा नुकसान पहुंचाया या लॉकडाउन ने? यह बहस भी हमेशा रहेगी कि क्या लॉकडाउन ही बचाव का एकमात्र विकल्प था ?
चीन के सबसे पडोसी पूर्वी एशिया के एक देश ताइवान की ने बिना किसी लॉकडाउन के अपने देश में कोरोना संक्रमण को फैलने से रोका। 2.36 करोड़ की आबादी वाले इस देश में 100 दिन में कोविड-19 के 376 मामले ही सामने आए हैं और 5 लोगों की मौत हुई है। जब हमारा देश लॉकडाउन की तैयारी कर रहा था उस वक़्त तक ताइवान में 24 मार्च तक कोरोना वायरस संक्रमण के 215 मामले सामने आए थे जबकि केवल दो मौतों की पुष्टि हुई थी।
इसी दुनिया में ताइवान जैसे देश भी हैं,जहां एक भी दिन लॉकडाउन नहीं लगा और बीमारी को भी पांव पसारने नहीं दिया गया। ताइवान का अध्ययन और अनुभव हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। ऐसे तमाम देशों से हमें युद्ध स्तर पर सीखना चाहिए,जो बगैर लॉकडाउन के ही महामारी से लड़ गए। विशाल आबादी वाले भारत जैसे देश को यह सोचना और परखना होगा कि ऐसी संक्रामक बीमारियों की स्थिति में क्या हमारे पास लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प है? क्या हम अपना काम करते हुए, सामान्य जीवन जीते हुए किसी महामारी से नहीं लड़ सकते? भारत में इसकी विवेचना भी महत्वपूर्ण है कि लॉकडाउन का हमने कितना आदर किया है? लॉकडाउन तोड़ने वाले कितने लोगों को जेल भेजा गया? हमारी स्वच्छंदता और तंत्र की उदारता कई बार विचलित कर देती है।
लॉकडाउन ने जहां समाज के धैर्य की परीक्षा ली है,वहीं कोरोना ने हमें नई जीवनशैली के बारे में सोचने पर विवश किया है। शारीरिक दूरी बरतना एक स्वभाव है। पर चौराहे से धर्मस्थल तक परस्पर शारीरिक दूरी बनाए रखना क्या हमारे लिए संभव है? क्या हम यह बात समझ पाए हैं कि भीड़ में न सुरक्षा संभव है,न भक्ति और न स्वस्थ सभ्यता? इस महामारी के बाद हमारे शिक्षा पाठ्यक्रम में एक अलग अध्याय जोड़कर नागरिक शास्त्र पढ़ाने की जरूरत बहुत बढ़ गई है।
विशेषज्ञ अभी यह नहीं बता पा रहे कि कोरोना कब जाएगा,तो यह बताना भी संभव नहीं कि लॉकडाउन की आशंका कब खत्म होगी, अत:आगे हमारी सुरक्षा का एक ही रास्ता है, हम खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रोटोकॉल के तहत जीना सिखाएं। इसमें कोई शक नहीं, कोरोना ने हमारी चिंताओं को जितना बढ़ाया है,उससे कहीं ज्यादा चिंताएं लॉकडाउन की वजह से पैदा हुई हैं। आने वाले दिनों में समाज को ऐसी तैयारी करनी और दिखानी पड़ेगी, ताकि वह सरकार से कह सके कि बिना लॉकडाउन के भी हम महामारियों से लड़ सकते हैं। वैसे समाज व क्षेत्र को ऐसे लोगों को पुरस्कृत-प्रोत्साहित करना जरूरी है, जिन्होंने लॉकडाउन और स्वास्थ्य विभाग के दिशा-निर्देशों की बेहतर पालना किया है। उससे भी जरूरी है, सरकार के आवश्यक विभागों या सामाजिक संस्थाओं के लोगों का सम्मान,जो लॉकडाउन के समय आम-जन,समाज-देश के काम आए।


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