UTTARAKHAND

दिवंगत साहित्यकार डॉ गंगा प्रसाद विमल स्मृति सभा मे उमड़े उत्तराखंड के प्रवासी रचनाधर्मी

डॉ. गंगाप्रसाद विमल के कृतित्व व व्यक्तित्व पर प्रबुद्ध वक्ताओ द्वारा डाला गया सारगर्भित प्रकाश 

सी एम पपनैं

नई दिल्ली। गढ़वाल हितैषिणी सभा द्वारा 18 जनवरी को गढ़वाल भवन मे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सु-विख्यात साहित्यकार दिवंगत डॉ गंगाप्रसाद विमल को श्रद्धाजंलि अर्पित करने हेतु स्मृति सभा का आयोजन किया गया। इस अवसर पर अनेकों वरिष्ठ साहित्यकारो, समाज सेवियो तथा उत्तराखंड के प्रवासी सांस्कृतिक व सामाजिक संस्थाओं से जुड़े प्रतिष्ठित जनों की भारी संख्या में मौजूदगी रही।

गायिका मधु बेरिया के भजन-
जनम सफल होगा रे वंदे, मन में राम बसा ले…मोह माया है झूठा बंधन… राम की ज्योति जला…ओम शांति ओम शांति ओम।
के गायन तथा खचाखच भरे सभागार में बैठै प्रबुद्ध जनों द्वारा हिंदी के शीर्षस्थ रचनाकार दिवंगत डॉ गंगाप्रसाद विमल के चित्र पर गुलाब की पंखुड़ियां अर्पित कर श्रद्धाजंली अर्पित की गई। हिंदी साहित्य जगत में 1960 से अकहानी आंदोलन के जनक के रूप में याद किए जानेवाले डॉ गंगाप्रसाद विमल के कृतित्व व व्यक्तित्व पर प्रबुद्ध वक्ताओ द्वारा सारगर्भित प्रकाश डाला गया।

वक्ताओ मे प्रो.(डॉ)हरेंद्र असवाल, मोहब्बत सिंह राणा, उपेन्द्रनाथ, राजा कुकसाल, डॉ हेमा उनियाल, विमल गोयल, डॉ सूर्यप्रकाश सेमवाल, पूरन चंद्र कांडपाल, निखिल विमल, डॉ सुनिति रावत, डॉ पी एस केदारखंडी, डॉ पुष्पलता भट्ट, डॉ कुसुम नोटियाल, रमेश घिंडियाल, डॉ हरिसुमन बिष्ट, पं.महिमानंद द्विवेदी, प्रदीप पंत, जोतसिंह बिष्ट, डॉ रेखा व्यास तथा पद्मश्री डॉ श्याम सिंह शशि इत्यादि प्रमुख थे।

डॉ गंगाप्रसाद विमल का आकस्मिक निधन अस्सी वर्ष की उम्र मे उनकी पुत्री कनुप्रिया व पौत्र श्रेयस के साथ दक्षिण श्रीलंका में निजी यात्रा के दौरान एक सड़क दुर्घटना में 23 दिसंबर को हो गया था। 27 दिसंबर दिल्ली के लोधी शमशान घाट मे उनका दाह संस्कार कर दिया गया था।

वक्ताओ ने व्यक्त किया, डॉ गंगाप्रसाद विमल के आकस्मिक निधन से हिंदी साहित्य जगत की एक अपूरणीय क्षति के साथ-साथ साहित्य की एक परंपरा का भी अंत हो गया है। हिमालय ने अपना एक सच्चा हितैषी खो दिया है।

तीन जुलाई 1939 को गंगा घाटी के धार अकारिया, पट्टी (चंबा) उत्तरकाशी, उत्तराखंड के गांव टिंगरी मे विशम्भर दत्त उनियाल के घर जनमे डॉ गंगाप्रसाद विमल देश-दुनिया के ख्यातिप्राप्त कवि, कथाकार, नाटककार, निबंधकार, उपन्यासकार, समीक्षक तथा अनुवादक के रूप मे पहचाने गए।

वरिष्ठ साहित्यकारो ने कहा, हिमालय की अनूठी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा, सनातनता को बनाए रखने के संस्कार हमेशा डॉ विमल की जीवन शैली में प्रवाहमान रहे। उन्होंने अपनी रचनाओं में हिमनदों को बचाने और वन विनाश पर रोक लगाने पर जोर दिया। उनका स्पष्ट मत था, हिमालय के इन तमाम स्वरूपो को बचाकर ही उसके अस्तित्व को बचाए रखा जा सकता है। इस कोशिश में वे निरंतर प्रयत्नशील रहे।

सौम्य और सरल स्वभाव के इस महान व्यक्तित्व के रचनाकार मे उत्तराखंड के पहाड़ो, उनकी चोटियों, हिमशिखरों, पहाड़ की लोक संस्कृति व देवस्थल तथा पर्यटन स्थलो से उनका कितना गहरा लगाव था, यह उनकी रचनाओं में झलकता था। उनका व्यक्तित्व सरल व लेखन मे गहराई होती थी। उनका साहित्य का फलक बहुत बड़ा था। गढवाल भवन मे आयोजित लगभग कार्यक्रमो मे वे आते रहते थे। उत्तराखंड समाज ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया है, जो दिल्ली मे निवासरत प्रवासियों के आयोजनों मे सदा उपस्थित रहता था।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान मे डॉ विमल ने प्रमुख जिम्मेवारिया निष्ठा व ईमानदारी से निभाई। पद पर रहते हुए कभी भी उन्होंने सरकारी गाड़ियों का इस्तेमाल नही किया।

दिवंगत डॉ गंगाप्रसाद विमल के बारह कविता संग्रहो मे ‘बोधि वृक्ष’, ‘इतना कुछ’ तथा बारह कहानी संग्रहो में ‘कोई शुरुआत’, ‘अतीत में कुछ’, ‘इधर उधर’, ‘बाहर न भीतर’, ‘खोई हुई थाती’ के साथ-साथ नाटक ‘आज नही कल’ तथा वर्ष 2013 मे प्रकाशित अंतिम उपन्यास ‘मानुसखोर’ इत्यादि प्रमुख प्रकाशित पुस्तके रही। उन्होंने अनेकों रचनाओं का संपादन कार्य भी किया। साहित्य स्मृद्धि मे दिए महत्वपूर्ण योगदान के फलस्वरूप डॉ गंगाप्रसाद विमल को प्रतिष्ठित भारतीय भाषा पुरूष्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरूष्कार तथा अनेको प्रतिष्ठित उच्च अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया।

डॉ विमल के सहपाठी साहित्यकारो ने व्यक्त किया, 1978 का दौर था जब प्रत्येक शुक्रवार भीष्म साहनी के सानिध्य में संगोष्ठी आयोजित होती थी, जहा डॉ विमल उपस्थित रहते थे। उनसे मुलाकाते होती थी। वे कभी भी अपने लेखन के बारे में बाते नही करते थे। उनकी रचनाऐं उस दौर में पाठको द्वारा बड़ी तादात में पढ़ी जाती थी। उन्होंने अनुवाद पर महत्वपूर्ण कार्य किया था। ‘दाव के तले’ उनका अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद बल्गारिया के सामाजिक व राजनीति पर प्रमुख अनुवादो मे से एक था।

वक्ताओ ने कहा, डॉ गंगाप्रसाद विमल का जीवन सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ था। देहरादून से प्रकाशित पत्रिका ‘लोकगंगा’ मे उनके पलायन और जन भागीदारी पर नए अदभुत दृष्टिकोण से स्मृद्ध भाषा शैली मे सारगर्भित लेख प्रकाशित होते थे। गांव वापसी पर वे ज्यादा जोर देते थे। स्त्री विमर्श के प्रबल पक्षधर रहे। स्त्री के प्रति भारतीय दृष्टि को पाखंड भरा मानते थे।

गांव के जनजीवन पर उन्होंने बहुत लिखा। चंद्रकुंवर बर्थवाल, प्रेमचंद व गजानंद माधव मुक्तिबोध से वे बहुत प्रभावित थे। 1988 के दौर मे उनकी कविताऐं ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ मे प्रकाशित होती थी। उनका ज्ञान हिंदी तक ही सीमित नही था, अंग्रेजी बोली-भाषा में भी उनकी मजबूत पकड़ थी।

वक्ताओ ने कहा, डॉ गंगाप्रसाद विमल के रचे साहित्य से लोग असहमत हो सकते थे, परन्तु उनकी सहजता, मिलनसार स्वभाव से सहमत हुए बिना नही रहा जा सकता था। उनके व्यक्तित्व में मानवीय सरोकार रहे।

डॉ विमल का व्यक्तित्व हिमालय से जुड़ा रहा। वे कहते थे, हिमालय को बचाना है। हिमालय की संपदाओं के प्रति सचेत करने वालों मे उनका नाम अग्रणी चिंतको मे याद किया जाता रहेगा। उनके रचना संसार में हिमालय मौजूद रहता था। समाज को जो संदेश उन्होंने दिया, अनुकरणीय रहा। वे लोगो के मार्ग दर्शक थे, उनका उत्साह बढ़ाते थे। वे साहित्यकार के साथ-साथ एक उच्च शिक्षाविद व मित्र भी थे।

‘हिमालय सेवा संघ’ से जुड़ कर राधा भट्ट के सानिध्य मे डॉ विमल ने प्रकृति व पर्यावरण के हित में गांधी साहित्य दर्शन राजघाट मे बैठ कर बहुत से कार्य किए। पर्यावरणवादी सुंदरलाल बहुगुणा से उनकी बहुत चर्चाए हिमालय की चिंता पर होती थी। वे कहते थे, हिमालय की आत्मा उत्तराखंड तक ही नही पूरे संसार से जुडी हुई है। विश्व का आधार हिमालय है। हिमालय की संस्कृति खत्म तो समझो सारी संस्कृतिया समाप्त। हिमालय की आत्मा को विज्ञान के साथ जोड़ पूरे विश्व में घुमाते थे। वामपंथी होते हुए भी अन्य सभी दलों के बड़े राजनीतिज्ञयो से उनके मधुर संबंध थे। वे अंध विश्वास के घोर विरोधी थे। दिल्ली के पूर्व कैबिनेट सचिव उमेश सहगल डॉ विमल के समधी थे। वे सदा पर्वतीय सरोकारो से जुड़े रहे। अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रहे।

वक्ताओ ने कहा, डॉ गंगाप्रसाद विमल की स्मृति उनके मन मष्तिष्क मे बनी रहेगी। ऐसा साहित्यकार सदियों मे जन्म लेता है। वे आजाद शत्रु थे। उनकी तीन पीढ़ियों का एक साथ जाना दुःखमय रहा। शोक स्थायी भाव की तरह जमा रहेगा। साहित्य के साथ उनका व्यक्तित्व सदा स्मरणीय रहेगा। उनकी कृतियों व विचारो को हम सबको मिलजुल कर आगे बढ़ाना होगा। हम किसी भी विचार धारा से जुड़े हो, परंतु हिमालय से जुड़ाव अवश्य रखना होगा। उनकी भावनाओं को कैसे आगे बढ़ाए? ज्ञान का प्रकाश कैसे आगे बढ़े? इस हेतु मिल बैठकर विचार विमर्श करना जरूरी है। हम सब उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। पुण्यआत्मा की नजर बनी रहे, कामना करते हैं।

स्मृति सभा मे प.जगदीश ढोंडियाल द्वारा शांति गीत प्रस्तुत किया गया, जिसके बोल थे-
कर ले श्रगार चतुर अलबेला, साजन के घर जाना होगा, वहा से फिर न आना होगा…।

उत्तराखंड धर्म समिति के अध्यक्ष अनुसुइया प्रसाद द्वारा प्रेषित शांति प्रस्ताव मे दिवंगत जनो की आत्माओं की शांति की कामना तथा दुःखी परिजनों के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट की गई। मृत आत्माओ की शांति हेतु सभागार मे दो मिनट का मौन रख, आयोजित स्मृति सभा का समापन हुआ।

स्मृति सभा मंच संचालन आयोजक गढवाल हितैषिणी सभा महासचिव पवन मैठाणी द्वारा संचालित किया गया।

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