मसीहाओं की मृग मरीचिका हमारे समाज को कहीं का नहीं छोड़ेगी

- चंद्र सिंह गढ़वाली और दरबान सिंह नेगी ऐसे थे स्वाभिमानी और जनपक्षधर
- सैनिक ने अपने पूरे इलाके के लिए कर्णप्रयाग में स्कूल मांगा
- दरबान सिंह नेगी ने मांगी-गढ़वाल के लिए रेल लाइन
इन्द्रेश मैखुरी
उत्तराखंड सैन्य बहुल प्रदेश है। उत्तराखंड में सेना में जाने की परंपरा बहुत पुरानी है। 1887 में गढ़वाल राइफल बनी। जिसे हम आज कुमाऊँ रेजीमेंट के नाम से जानते हैं,वह 1813 में 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट के नाम से स्थापित हुई। 1917 में 4/39 कुमाऊँ राइफल्स के नाम से एक कुमाऊँ बटालियन स्थापित हुई। 1945 में 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट का नामकरण 19 कुमाऊँ रेजीमेंट किया गया।
पहला भारतीय, जिसे ब्रिटेन का सर्वोच्च शौर्य पुरस्कार-विक्टोरिया क्रॉस मिला,वह उत्तराखंड से था और पहला परमवीर चक्र भी कुमाऊँ रेजीमेंट के नाम दर्ज है। इस संक्षिप्त ब्यौरे से समझा जा सकता है कि उत्तराखंड में सेना में जाने का इतिहास कितना पुराना है। जैसे देश 2014 से पहले भी था,वैसे ही फौज में उत्तराखंड वालों ने 2013 के बाद भर्ती होना शुरू नहीं किया।लगभग 200 साल का इतिहास है,उत्तराखंड के लोगों के फौज में जाने का। फौज में रहे कुछ लोगों का भी जिक्र कर लिया जाये। एक फौजी थे चंद्र सिंह गढ़वाली। अँग्रेजी फौज में रहे,प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस,जर्मनी आदि देशों में लड़े।
23 अप्रैल 1930 को इन्हीं की अगुवाई में पेशावर में गढ़वाली पलटन ने आजादी की लड़ाई के योद्धाओं के विरुद्ध गोली चलाने से इंकार कर दिया। इसके लिए कालापानी की सजा हुई। गांधी,नेहरू,गोविंद बल्लभ पंत समेत तमाम बड़े राष्ट्रीय नेता इन्हें जानते और मानते थे। गढ़वाल लौटने पर काँग्रेसियों ने कई बार प्रस्ताव रखा कि कॉंग्रेस से चुनाव लड़िए। लेकिन ये कम्यूनिस्ट पार्टी में बने रहे। जबकि ये कांग्रेस के दरवाजे पर टिकट के लिए नाक रगड़ने नहीं गए,बल्कि कांग्रेस खुद इनके पास आई थी।
एक और नाम है- दरबान सिंह नेगी। दरबान सिंह नेगी पहले भारतीय थे,जिन्हें ब्रिटेन का वीरता का सर्वोच्च मेडल-विक्टोरिया क्रॉस मिला।दरबान सिंह नेगी को प्रथम विश्व युद्ध में वीरता के लिए यह मेडल मिला। 5 दिसंबर 1914 को ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम ने उन्हें यह तमगा दिया। तमगा देते हुए राजा ने उनसे कुछ मांगने को कहा। जानते हैं,उस साधारण से सैनिक ने क्या मांगा ? उस सैनिक ने अपने पूरे इलाके के लिए कर्णप्रयाग में स्कूल मांगा। पिछले साल ही उस स्कूल ने अपनी स्थापना के सौ साल पूरे किए हैं। और दूसरी चीज दरबान सिंह नेगी ने मांगी-गढ़वाल के लिए रेल लाइन।
वो चाहते तो खुद के लिए दौलत,जागीर कुछ भी मांग सकते थे। दरबान सिंह नेगी तो राजा से राय बहादुर के खिताब से लेकर कुछ भी मांग लेते तो मिल जाता। लेकिन उन्होने खुद के लिए कुछ नहीं मांगा। अपने लोगों के लिए मांगा। चंद्र सिंह गढ़वाली और दरबान सिंह नेगी ऐसे स्वाभिमानी और जनपक्षधर थे,जीवन भर हुक्मरानों के आगे नहीं झुके,रीढ़ की हड्डी तान कर खड़े रहे।
आज नज़ारा यह है कि खुद ही, अपने को देवताओं का छोटा-बड़ा संस्करण बताने वाले अपनी रीढ़ की हड्डी,हाथ में लेकर भाजपा-कांग्रेस के द्वारे एड़ियाँ रगड़ आए कि जैसे भी हो टिकट दे दो ! रीढ़ विहीन रहना कुबूल है पर तुम्हारे टिकट बिना जीवन कैसे कटेगा ! भाई लोग,इनमें मसीहा तलाश रहे हैं। यह मसीहाओं की मृग मरीचिका हमारे समाज को कहीं का नहीं छोड़ेगी ।