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उत्तराखण्ड में “नैनीताल” मुद्दा क्यों नहीं..?

योगेश भट्ट 
जहां तक मुझे याद है, जब साल 2000 में राज्य की घोषणा हुई तो अस्थाई राजधानी के रूप में देहरादून से पहले नैनीताल का भी खूब नाम चला। एक बार तो नैनीताल के नाम पर तकरीबन सहमति भी बन गई थी, लेकिन उसी दौरान एक उच्च स्तरीय रिपोर्ट का जिक्र आया जिसमें नैनीताल को लेकर यह निष्कर्ष निकाला गया था कि, ‘Nainital is a Shrinking City.’ ,इसके बाद नैनीताल का विचार छोड़ कर देहरादून को अस्थाई राजधानी बना दिया गया।

आज नैनीताल का अस्तित्व खतरे में है । सैलानियों के आकर्षण का केंद्र और नैनीताल की लाइफ लाइन मानी जाने वाली नैनी झील तेजी से सूख रही है। जिस झील का क्षेत्रफल कभी तकरीबन 50 हैक्टेयर के आसपास हुआ करता था वो आज महज 45 हैक्टेयर रह गया है। जिसकी गहराई सन 1872 में 93 फीट थी वह अब 80 फीट से भी कम रह गई है। इस साल तो हालात और भी खराब हैं।

झील का जलस्तर सामान्य से सात फीट के लगभग नीचे पहुंच चुका है। पर्यावरणविद, वैज्ञानिक और प्रकृति प्रेमी सब चिंतित हैं। नैनी झील के मौजूदा स्वरुप को देख कर, जिसमें कि जगह- जगह डेल्टा बन चुके हैं, सबकी पेशानी पर बल हैं। लेकिन इसके बावजूद भी संजीदगी का अभाव साफ नजर आता है। सच यह है कि झील की बदहाली की यह दास्तां कोई आज की नहीं है। राज्य बनने से लेकर आज तक तक का पूरा वक्त इस झील को सुखाने में बराबर का भागीदार है। शुक्र कीजिए कि पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील नैनीताल में सिर्फ हाईकोर्ट बनाया गया है, तब ये हाल है।

कल्पना कीजिए कि यदि यहां अस्थाई राजधानी बना दी गई होती तो आज इस शहर की हालत क्या होती? नैनी झील को देख कर कई बार तो ऐसा लगता है मानो इसे हाईकोर्ट ने ही लील लिया है। राज्य बनने के बाद जब यहां हाईकोर्ट बना तो उम्मीद की जा रही थी कि इससे झील को बड़ा रक्षा कवच मिलेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का मानना है कि बेतहाशा निर्माण, बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान, मानवीय हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन आदि तमाम कई कारण नैनी झील की बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं।

आश्चर्यजनक यह है कि अब तो केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने नैनी झील पर गहराए संकट से पल्ला झाड़ लिया है। केंद्र ने पूरी तरह से इसे राज्य सरकार पर छोड़ दिया है। सवाल यह है कि उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य के लिए क्या नैनीताल इतना अहम नहीं है कि उसकी बदहाली बड़ा मुद्दा बन सके? स्थानीय लोगों से लेकर सरकारी मशीनरी तक आज नैनी झील की बदहाली पर चिंतन कर रही है। लेकिन असल बात तो सार्थकता की है। इस चिंता की सार्थकता आखिर क्या है ?

दरअसल नैनीताल के लिए खतरे की घंटी तो तब ही बज चुकी थी जब चार दशक पहले एक शोध में यह बात पता चली थी कि नैनी झील में एक ऐसा पौधा उगने लगा है जिससे यह साबित होता है कि वह अब ताजे पानी की झील नहीं रह गई है। इस शोध के सामने आने के बाद ही चेत जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अलबत्ता इस दौरान करोड़ों रूपए नैनी झील संरक्षण के नाम पर खर्च किए गए। आज स्थिति यह है कि नैनी झली को भरने वाले जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। जमीन से रिसने वाले जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है।

चिंताएं सिर्फ कागजों और बैठकों तक में सिमटी हैं। सरकार की चिंता बजट जारी करने और इसे खर्च करने तक में है। नई सरकार ने एक फरमान जारी कर नैनी झील के संरक्षण का जिम्मा अब सिंचाई विभाग को सौंप दिया है। इसके लिए फौरी तौर पर कुछ बजट की भी घोषणा की गई है। लेकिन असल मुद्दा अभी भी अपनी जगह है। सही मायने में देखा जाए तो नैनीताल प्रदेश की पहचान से जुड़ा शहर है। आज जब इस शहर पर संकट आया है तो क्या सरकार और जनता दोनों के लिए यह मुद्दा नहीं होना चाहिए?

हाल ही में विधानसभा का बजट सत्र आयोजित हुआ, लेकिन दुर्भाग्य ही कहेंगे कि नैनी झील पर आए संकट को लेकर एक बार भी किसी विधायक, मंत्री ने चिंता नहीं जताई। कुछ दिन पहले राज्यपाल ने एक बैठक बुला कर नैनी झील पर आए संकट का निदान ढूंढने की पहल की। लेकिन क्या कोई ऐसी पहल नहीं होनी चाहिए जिसमें सरकार और जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो। क्या कोई ऐसी पहल नहीं होनी चाहिए जिसके जरिए इस शहर से अनावश्यक दबाव को कम करने पर सार्थक चर्चा हो जिसका कि नतीजा भी निकले। क्या अभी भी वक्त नहीं है कि नैनीताल कोई बचाने के लिए कुछ ठोस और कड़े फैसले लिए जाएं , कुछ क्रांतिकारी कदम उठाए जाएं ।

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