UTTARAKHAND

आखिर क्यो मनायी जाती है बग्वाल ।

  देवभूमी मीडिया ब्यूरो   गढ़वाल में सदियों से दिवाली को बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। तो वही कुमाऊं के क्षेत्र में इसे बूढ़ी दीपावली कहा जाता है। इस पर्व के दिन सुबह मीठे पकवान बनाए जाते हैं। रात में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैला जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है।

 

उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में चार बग्वाल होती है, पहली बग्वाल कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को दूसरी अमावस्या को पूरे देश की तरह गढ़वाल में भी अपनी आंचलिक परंपराओं के साथ मनाई जाती है। तीसरी बग्वाल बड़ी बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद आने वाली, कर्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है और गढ़वाली में एकादशी को इगास  कहते हैं। इसलिए इसे इगास बग्वाल  के नाम से जाना जाता है।

 तो वही दूसरी बग्वाल या बड़ी बग्वाल के ठीक एक महीने बाद मार्गशीष माह की अमावस्या तिथि को इसे रिख बग्वाल कहते हैं। यह गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में मनाई जाती है।

एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। इसी बीच बग्वाल का त्यौहार भी था, परंतु इस त्योहार तक कोई भी सैनिक वापस न आ सका।लेकिन दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दवापाघाट युद्ध जीत वापस लौट आए। इसी खुशी में दिवाली मनाई गई

               

कहा जाता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दिए जलाकर उनका स्वागत किया और उसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया। कहा जाता है। तो गढ़वाल क्षेत्र में लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद मिली। इसलिए यहां पर दिवाली के 11 दिन बाद यह इगास मनाई जाती है।

 तो वही पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों के साथ मांगल व देवी-देवताओं की जागर गाई जाती है। और  साथ ही गाय व बैलों की पूजा की जाती है। शाम के वक्त गांव के किसी खाली खेत अथवा खलिहान में नृत्य के भैलो खेला जाता है। भैलो एक प्रकार की मशाल होती है, जिसे नृत्य के दौरान घुमाया जाता है यह परंपरा ज्यादातर उत्तराखंड के गढ़वाल पहाड़ी क्षेत्रों में होता है। इसमें चीड के पेड़ लकड़ी का प्रयोग किया जाता है।

भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार से तैयार किया जाता है। और फिर रसी में चीड़ की लकड़ियों की छोटी- छोटी गांठ बाँधी जाती है। जिसके बाद गांव के ऊँचे स्थान पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते है। इसे खेलने वाले गावं की लोग रस्सी को पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है।

मान्यता है कि ऐसा करने से माँ लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्ध देती है। इगास-बग्वाल के दिन भैलो खेलते हुए पारंपरिक गीत और व्यंग्य मजाक करने की परंपरा होती है।

तो सुबह से दोपहर तक सभी गोवंश की पूजा की जाती है। गावं से सभी लोग अपने पालतू मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी, मंदुवे आदि से आहार तैयार किया जात है। जिसे बाद में परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है।

 

सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप- जलाकर उनकी पूजा की जाती है फिर सभी पालतू मवेशियों के माथे पर हल्दी का टीका और सींगो पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें ‘परात में सजा अन ग्रास दिया जाता है। जिसे गेग्नास कहते हैं।

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