- घुघुतिया पर्व की कैसे हुई शुरुआत
- कौवे से जुड़ी है घुघुतिया पर्व की कहानी
- कुमाऊं में घुघुतिया त्योहार मनाया जाता है दो दिनों तक
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
हल्द्वानी । लोक पर्व उत्तरायणी की धूम इन दिनों पूरे कुमाऊं में देखने को मिल रही है। जगह-जगह पर उत्तरायणी कौतिक मेले का आयोजन किया जा रहा है। कुमाऊं में उत्तरायणी को घुघुतिया त्योहार के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों के अनुसार माना जाता है कि उत्तर देवताओं का दिन और सकारात्मक का प्रतीक होता है। इसलिए इस दिन स्नान, दान, तर्पण और धार्मिक क्रियाओं का विशेष महत्व होता है।
सनातन धर्म और शास्त्रों के अनुसार उत्तरायणी के दिन से भगवान सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर प्रस्थान करते हैं। इस दिन भागीरथी से प्रसन्न होकर गंगा देव लोक से पृथ्वी पर आई थीं। कुमाऊं में उत्तरायणी को घुघुतिया त्योहार या घुघुतिया ब्यार के नाम से जाना जाता है। कुमाऊं में घुघुतिया त्योहार दो दिनों तक मनाया जाता है।
मान्यता है कि कुमाऊं के एक राजा के पुत्र को घुघते नाम के जंगली कबूतर से बेहद प्रेम था। राजकुमार का घुघते के प्रति प्रेम देखकर एक कौवा चिढ़ता था। वहीं दूसरी ओर राजा का सेनापति राजकुमार की हत्या कर संपत्ति हड़पना चाहता था। इस मकसद से सेनापति ने एक दिन राजकुमार की हत्या की योजना बनाई। जिसके बाद वह राजकुमार को एक जंगल में ले गया और उसे पेड़ से बांध दिया. ये सब कौवे ने देख लिया और उसे राजकुमार पर दया आ गई. इसके बाद कौवा तुरंत उस स्थान पर पहुंचा जहां रानी नहा रही थी, उसने रानी का हार उठाया और उस स्थान पर फेंक दिया जहां राजकुमार को बांधा गया था। रानी का हार खोजते हुए सैनिक वहां पहुंचे। जिसके कारण राजकुमार की जान बच गई।
जिसके बाद राजकुमार ने वापस पहुंचकर अपने पिता से कौवे को सम्मानित करने की इच्छा जताई। कौवे से पूछा गया कि वह सम्मान में क्या चाहता है? तो कौवे ने घुघते के मांस की इच्छा जताई। इस पर राजकुमार ने कौवे से कहा कि तुम मेरे प्राण बचाकर किसी और की हत्या करना चाहते हो ये गलत है। जिसके बाद राजकुमार ने कहा कि हम मकर संक्रांति के दिन तुम्हें प्रतीक के रूप में अनाज का बना घुघता खिलाएंगे। जिस पर कौवा तैयार हो गया। इसके बाद राजा ने पूरे कुमाऊं में कौवों को दावत के लिए आमंत्रित किया। राज का फरमान कुमाऊं में पहुंचने में दो दिन लग गए। इसलिए यहां दो दिनों तक घुघुतिया पर्व मनाया जाता है। जिसके बाद से यहां इस त्योहार को मनाने की प्रथा निरंतर जारी है।