हिमालयी क्षेत्रों में विनाशरहित विकास की मांग कौन पूरी करेगा?

सरकारें निहित स्वार्थों चलते बड़ी परियोजनाएं कमजोर पहाड़ों की छाती पर थोप रही है जबरदस्ती
परियोजना बनाने वालों की समर्थन व विरोध के बीच आखिरकार होती है जीत
रमेश ”पहाड़ी”
भूविज्ञानी मानते हैं कि मध्य व उच्च हिमालयी क्षेत्र अभी विकासमान स्थिति में है, इसकी आंतरिक व बाह्य संरचना कमजोर है जो किसी भी प्रकार के जोर-जबरदस्ती के निर्माण कार्यों को झेल पाने में असमर्थ है। यह हमारे अब तक के विकास व निर्माण कार्यों से भी साफ दिखाई दे रहा है कि पहाड़ी क्षेत्रों में विनाश-लीलाएं बढ़ी हैं जो प्राकृतिक कम व मानवकृत अधिक हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में आपदाओं की नियमितता आम बात हो गई है और उनके मारक प्रभाव भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं, जिनसे जीवन और संपदा की हानि तो लगातार बढ़ती ही जा रही है, उनसे निपटने में सरकारी खर्च भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ बड़ी संख्या में लोग विस्थापन की मार झेलने को विवश हैं और अधिसंख्य स्थानों पर भूगोल भी अपने विकृत स्वरूप में सामने आ रहा है जो भविष्य में अधिक विनाशक भूमिका की ओर संकेत कर रहा है।
विनाशरहित विकास की माँग पहाड़वासियों द्वारा बहुत लंबे समय से की जा रही है। भूविज्ञानी और पर्यावरणवादी कहते हैं कि विकास का सरकार का मौजूदा कार्यकलाप विकास को कम, विनाश को अधिक ला रहा है। विनाश के बढ़ते आँकड़े इसके गवाह हैं जबकि लोगों का आरोप है कि सरकारी अभिकरण इस तथ्य की अनदेखी करते हुए अपने निहित स्वार्थों के कारण बड़ी परियोजनाएं कमजोर पहाड़ों की छाती पर जबरदस्ती थोप रही हैं। जब लोग इसका विरोध करते हैं तो उन्हें उस बल से दबाने के प्रयास किये जाते हैं जो उनकी सुरक्षा के नाम पर गठित होता है और जिस पर उन्हीं के टैक्स का पैसा खर्च होता है। कि बार यह पुलिस बल लोगों की सुरक्षा में तो असफल रहता है लेकिन दमन में अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन कर दिखाता है। सरकार इसे जनहित बताती है और लोग इसके पक्ष-विपक्ष में बंट जाते हैं और मूल मुद्दा भटक जाता है या समाप्त हो जाता है।
जलसंसाधन बहुल उत्तराखंड में छोटी-बड़ी नदियों पर बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध हमेशा से हो रहा है। सरकारें इसकी स्वीकृति देती हैं, अनुबंध भी हो जाते हैं और लोगों को तब पता चलता है कि किस इलाके में क्या होने जा रहा है। इस उलटबाँसी के चलते लोग विरोध में उतार जाते हैं और तब बातचीत का दौर शुरू होता है। समर्थन व विरोध के बीच जीत आखिरकार परियोजना बनाने वालों की होती है तथा जनता अपना-सा मुँह लेकर लौट आती है। आखिर ऐसा क्यों होता है और क्यों होना चाहिए? इस सवाल का जवाब ढूँढने की जिम्मेदारी से सरकार हमेशा बच जाती है। जिस परियोजना से क्षेत्र व जनता को नुकसान होता है और सरकार को भी वांछित लाभ नहीं होता, उसका निर्माण चंद पूँजीपतियों या कारपोरेट घरानों के लाभ के लिए क्यों हो, यह सवाल पूछने का समय आ गया है।
यह सवाल भी कई बार उठ खड़ा होता है कि आखिर इसका निर्णय कौन करे कि कोई परियोजना ठीक है, देश व प्रदेश के लिए लाभकारी है कि नहीं और यह भी की जनता आखिर है कौन? वह, जो परियोजना का विरोध कर रही है, या वह जो चुप है अथवा उसका मूक समर्थन उसको है? यह भी कि जो जनता के चुने गए प्रतिनिधि हैं, चाहे वे ग्राम पंचायत के वार्ड मेंबर, प्रधान, क्षेत्र पंचायत के मेम्बर, प्रमुख, जिला पंचायत के सदस्य, अध्यक्ष-उपाध्यक्ष, विधायक या सांसद हों, वे क्यों नहीं जनता की इन् लड़ाइयों में शामिल होते या उनका नेतृत्व करते? यह भी सवाल है कि देश के हित की जिम्मेदारी संभालने वाली भारत सरकार क्यों नहीं हिमालय क्षेत्र में विकास व निर्माण के मानक तय करने के लिए विशेषज्ञ समिति का गठन करती और उसके अनुरूप ही क्यों न निर्माण के मानक व प्रक्रिया तय हो।
हम लोग, जो 4-5 दशकों या उससे भी अधिक समय से सामाजिक सेवा के क्षेत्र में विभिन्न कार्यों में संलग्न रहे हैं और वन व राज्य आंदोलन सहित अनेक आंदोलनों में सक्रिय रूप से भागीदारी करते रहे हैं, मानते हैं कि मध्य व उच्च हिमालय में बड़े निर्माण कार्य व बड़ी परियोजनाएं नहीं बनाई जानी चाहिए, क्योंकि यह संवेदनशील क्षेत्र इसकी मार सेहन करने की स्थिति में बिल्कुल भी नहीं है। दूसरा बड़ा मुद्दा विस्थापन का है। जनजातीय परम्पराओं वाले पहाड़ी समाजों में भूमि लोगों की आजीविका के साथ-साथ उनकी पहचान का भी प्रमुख आधार है। उनकी सामाजिक व सांस्कृतिक जड़ें भी इन्हीं जमीनों से जुड़ी हुई हैं।जमीन से उन्हें बेदखल करना, उनकी पहचान को समाप्त करने जैसा है, जिसकी प्रतिपूर्ति कोई भी मुआवजा नहीं कर सकता। इसके बाद भी यदि राष्ट्र के व्यापक हित में उन्हें अपनी जमीनों से बेदखल करना अपरिहार्य हो भी तो उनका आजीविका सहित इस ढंग से पुनर्स्थापन हो कि उनका जीवन-स्तर पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा व सम्मानजनक हो। इस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।