कहां जाए ‘गरीब’ बीमार बेचारा ?
सरकार की यदि यही नीति है तो फिर ये बेहद खतरनाक
योगेश भट्ट
बड़े-बड़े दावों के बीच प्रदेश का हैल्थ सिस्टम पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं सिर्फ प्राईवेट अस्पतालों पर ही टिकी हैं। यानि राज्य के मरीज पूरी तरह से प्राईवेट अस्पतालों के रहमोकरम पर हैं। वो चाहे मरीजों के साथ जैसा बर्ताव करें, कितनी भी लूट खसोट करें, सरकार का उनको पूरा वरदहस्त है।
प्रदेश के सरकारी अस्पतालों का हाल यह है कि अभी तक तो पहाड़ पर ही डाक्टरों की कमी का रोना था, मगर अब तो देहरादून, हरिद्वार और हद्वानी तक में डाक्टर नहीं हैं। राजधानी में तो एक अदद सरकारी अस्पताल तक नहीं है, जहां आम जनता सरकार के भरोसे अपना इलाज करा सके। कभी स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ कहा जाने वाला दून अस्पताल भी सरकारी अदूरदर्शिता की भेंट चढ़ चुका है। मेडिकल कालेज बन जाने के बाद दून अस्पताल का वजूद तो खत्म हो ही गया है, साथ ही मरीजों के लिए मुसीबतें पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई हैं।
कभी पहाड़ों में डाक्टरों और संसाधनों के न होने की स्थिति में राजधानी का दून अस्पताल, कोरोनेशन और महिला अस्पताल ही बीमार लोगों का सहारा थे। न केवल आम, बल्कि खास लोगों के लिए भी ये अस्पताल बड़ा सहारा देते थे। बाकी जगहों पर डाक्टर भले ही न हों पर इन अस्पतालों में नामी डाक्टरों की भरमार होती थी। मगर अब तो ये भी सूने होते जा रहे हैं। अभी पिछले दिनों वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी सुशीला बलूनी बीमार हुईं। उसके कुछ दिनों बाद लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी की तबियत बिगड़ी। दोनों ही हस्तियां राजधानी के एक प्राईवेट अस्पताल में भर्ती हुई।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र उनकी कुशलक्षेम लेने पहुंचे और दोनों की ही स्थिति गंभीर होने पर राजधानी के सबसे बड़े प्राइवेट अस्पताल मैक्स हास्पिटल में शिफट कराने के निर्देश दिए। अभी तीन-चार दिन पहले दुर्घटनाग्रस्त होकर सड़क पर पड़े एक घायल व्यक्ति को भी उन्होंने फ्लीट रोक एक प्राइवेट अस्पताल पहुंचवाया। यहां पर सवाल प्राइवेट अस्पताल क्यों पहुंचाया का नहीं है, सवाल लाचारी का है ।
सवाल ये है कि सत्रह साल बाद भी प्रदेश में ऐसी स्थितियां क्यों बनी हुई हैं? क्यों इस अवधि में सरकारें एक भी ऐसा सरकारी अस्पताल स्थापित नहीं कर पाईं जिस पर भरोसा किया जा सके. जो भरोसे का प्रतीक हो।
दूसरी तरफ हैरानी की बात यह है कि जिन प्राइवेट अस्पतालों पर आज सरकार भरेासा कर रही है, या , कहें कि जिनकी ब्रांडिंग कर रही है उनमें से अधिकांश राज्य बनने के बाद स्थापित हुए हैं। अब तो यह लगता है कि दून अस्पताल को भी किसी साजिश के तहत मेडिकल कालेज की भेंट चढ़ाया गया है। प्रदेश के सरकारी मेडिकल कालेजों के हाल ये हैं कि उन्हें एक-एक कर सेना को सौंपा जा रहा है।
ऐसे में सवाल उठना भी लाजमी है कि क्या वाकई सरकार प्राईवेट अस्पतालों और निजी मेडिकल कालेज संचालकों के हाथों में खेल रही है ? क्योंकि पहाड़ में तो छोड़िए अब तो मैदानी क्षेत्रों तक में सरकारी स्वास्थ्य सिस्टम खत्म होता जा रहा है। पहाड़ी इलाकों में डाक्टरों के 75 प्रतिशत के करीब पद खाली हैं। मैदानी क्षेत्रों में भी सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मोड में प्राईवेट हाथों में सौंपा जा रहा है। सरकार की यदि यही नीति है तो फिर ये बेहद खतरनाक है।
एक करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में हर कोई इतना प्रभावशाली नहीं है जिसका इलाज सरकारी राजकोष से प्राईवेट अस्पताल में कराने का आदेश प्रदेश के मुख्यमंत्री दे दें। प्राईवेट अस्पतालों की अराजकता का आलम यह है कि वहां न कोई सरकारी बीमा कार्ड चलता है और ना ही बीपीएल। सरकार को यह भी मालूम होना चाहिए कि प्रदेश में जो स्वास्थ्य योजनाएं चल रही हैं, मरीजों को उनका लाभ केवल सरकारी अस्पतालों में ही मिल पा रहा है। सरकार यदि कुछ चिन्हित स्थानों पर ही आदर्श अस्पताल स्थापित कर देती तो इतना भी बहुत होता, लेकिन हालात कुछ और ही इशारा कर रहे हैं। ऐसे में आखिर गरीब बेचारा जाए तो जाए कहां?