योगेश भट्ट
उत्तर प्रदेश से बंटवारे में अपना हक लेने में उत्तराखंड सरकार फिलवक्त नाकाम रही है । मतलब, उत्तराखण्ड को उसका वाजिब ‘हक’ न त्रिवेंद्र सिंह दिला पाए और न योगी आदित्यनाथ । खबर है कि उत्तराखंड की सीमा में स्थित तमाम परिसंपत्तियों पर मालिकाना हक उत्तर प्रदेश का ही होगा, उत्तराखण्ड की इस नकामी के बाद सवाल सीधे नेतृत्व पर है। जाहिर है इस लिहाज से यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र पर भारी साबित हुए हैं ।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के बीच परिसंपत्तियों के बंटवारे को लेकर विवाद लंबे समय से चला आ रहा है। हालांकि पुनर्गठन अधिनियम के अनुसार जो चल संपत्ति जिस राज्य की सीमा में स्थित होगी, उस पर मालिकाना हक उसी राज्य का होगा । लेकिन अधिनियम की यह व्यवस्था उत्तराखंड में सिंचाई विभाग से जुड़ी तमाम परिसंपत्तियों पर यूपी की एक चाल के चलते लागू नहीं हो पाई। यही कारण है कि शुरुआत से ही हरिद्वार सहित प्रदेश के कुछ दूसरे हिस्सों में स्थित भूखंड, भवन, नहरें आदि उत्तर प्रदेश के कब्जे में हैं।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों ही प्रदेशों में भाजपा की सरकार बनने तथा उत्तर प्रदेश में उत्तराखंड मूल के योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि इन परिसंपत्तियों के बंटवारे में अब तो उत्तराखंड को ‘हक’ मिल ही जाएगा। त्रिवेंद्र सरकार भी इसको लेकर पहले दिन से ही आशान्वित थी। खुद मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों ने इस मसले पर योगी से मुलाकात करने के बाद बड़े-बड़े दावे भी किए।
लेकिन अब जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक जिन परिसंपत्तियों को लेकर विवाद था, उसमें उत्तराखंड के हाथ एक चौथाई भी नहीं लग पाई हैं। हरिद्वार में कुंभ क्षेत्र की भूमि पर भी मालिकाना हक यूपी का ही होगा। उत्तरांखंड को सिर्फ मेले के आयोजन का अधिकार होगा। इसके अलावा जिस बांध का 50 प्रतिशत से अधिक पानी उत्तर प्रदेश के इस्तेमाल में आएगा, उस पर भी मालिकाना हक यूपी का ही होगा। नानक सागर, बनबसा और शारदा सागर भी उत्तर प्रदेश के ही अधिकार क्षेत्र में होंगे।
आश्चर्यजनक ये है कि नहरों के हेड पर यूपी का जबकि उत्तराखंड को टेल पर अधिकार मिला है। इस सबके बीच प्रदेश सरकार चुप्पी साधे हुए है। आधिकारिक तौर पर यही कहा जा रहा है कि अभी मामला विचाराधीन है। लेकिन उत्तर प्रदेश में तो मंत्री खुलकर बयान दे रहे हैं। उत्तराखंड सरकार की ओर से न तो स्थिति स्पष्ट की जा रही है और न ही इसे तरह की खबरों का खंडन किया जा रहा है।
भ्रम की इस स्थिति में इतना तो साफ है कि परिसंपत्तियों के मोर्चे पर उत्तराखंड बाजी हार चुका है। साफ है कि दावा मजबूत होने के बावजूद प्रदेश का राजनीतिक व प्रशासनिक नेतृत्व मजबूत पैरवी नहीं कर पाया। यह भी संभव है कि सरकार और नौकरशाह ‘योगी फैक्टर’ के भरोसे ही बैठे रहे हों। बहरहाल कारण जो भी रहे हों, हार तो उत्तराखंड की ही हुई है। सरकार की स्थिति से तो यही लगता है कि वह एक तरीके से ‘अचेत’ अवस्था में है। विरोध भी करे तो किसका? दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जुमलों में कहा जाएग तो इस मसले पर डबल नहीं, बल्कि ‘ट्रिपल इंजन’ भी प्रदेश के काम न आ सका। न त्रिवेंद्र हक ले पाए न योगी दे और ना ही मोदी दिला पाए।