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जल, जंगल और जमीन बने केवल सियासी मुद्दे

पहाड़ी क्षेत्रों में जनता की समस्याएं ज्यों की त्यों 

जारी है प्रदेश में संसाधनों की लूट खसोट का खेल

देवभूमि मीडिया ब्यूरो 

देहरादून । उत्तराखण्ड का चौथा विधानसभा आम चुनाव सिर पर आ गया है। राज्य गठन के इन सोलह वर्षो में राज्य की जनता की पहाड़ी क्षेत्रों के विकास की सारी अवधारणाएं धूमिल होती नजर आ रही है। प्रदेश में राजनीतिक दलों की लड़ाई सिर्फ एक दूसरे से सत्ता हथियाने तक सिमट कर रह गयी है। इस बार भी कांग्रेस और भाजपा के बीच सत्ता हथियाने के महासंग्राम में जनहित के मुद्दों से अधिक बागी विधायकों पर राजनीति अधिक नजर आ रही है। एक दूसरे को भ्रष्टाचारी बताकर कांग्रेस और भाजपा प्रदेश की जनता को फिर से अपने पक्ष में करने के लिए दरवाजे पर जा रही है। जबकि प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र में विकास की मुख्यधारा राज्य के अस्तित्व में आने के 16 साल बाद अब तक नही पहुँच पाई है। इसके विपरीत राज्य के प्राकृतिक संसाधानों की लूट मची हुई है। इस लूट ने कभी भाजपा ही पीछे रही और न कांग्रेस ही कभी पीछे रही है।

जल, जंगल, जमीन जैसे मसले अब केवल  जुमलों व चुनावी सियासत तक सीमित रह गए हैं, ऐसे में ग्रामीण अंचलों में रहने वालों लोगों की परेशानियों में इजाफा होना लाजिमी है। यहां भी पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग विषम परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि राज्य के मूल निवासियों के हक और हकूकों पर दूसरे राज्यों के लोगों का बुरी तरह कब्जा हो चुका है और वह इसका अतिशय लाभ उठा रहे हैं। किन्तु राजनीतिक दलों से इनका कोई सरोकार नही है।

राज्य बनने के 16 वर्षों बाद भी जनआकांक्षाओं की पूर्ति में प्रदेश में आई भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों की सरकारें विफल साबित हुई हैं। सरकारों ने जनता से वादों की लंबी झड़ी तो लगा दी, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए किसी ने भी राह नहीं बनाई। यही कारण रहा कि आज उत्तराखण्ड का जनमानस स्वयं को उपेक्षित और ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में दूसरे राज्य से आए लोग यहां के स्थानीय लोगों पर भारी पड़ रहे हैं। यह हालात तब हैं जब सत्ता से लेकर सरकार तक में स्थानीय लोगों का ही बोलबाला है।

राज्य में हो रहे फर्जीावड़ों में दूसरे प्रदेशों के लोगों के नाम निरंतर सामने आ रहे हैं। वह दस्तावेजों में खुद को मूल निवासी बताकर नौकरियों और अन्य स्थानों में पूरा लाभ उठा रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल राज्य के प्राकृतिक संसाधानों की बाबत भी देखने को मिल रहा है। इन संसाधानों की लूट मची है। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई में स्थानीय लोग निरंतर पिछड़ रहे हैं और इसकी ओर कोई भी राजनीतिक या सामाजिक दल द्वारा  ध्यान  देने की जहमत नहीं उठाई जा रही है।

राज्य आन्दोलनकारी नेत्री प्रमिला  रावत की माने तो राज्य आज भी अपने शैशवकाल में हैं, लेकिन यहां घोटालों और घपलों की बड़ी-बड़ी  इमारतें  खड़ी हो चुकी है। सियासी दलों ने केवल जनता को छलने का काम किया है। यही कारण है कि आज लोगों का भरोसा नेताओं के ऊपर से उठता जा रहा है। उनका कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के साधान न के बराबर हैं और पलायन के पीछे इसकी ही अहम भूमिका रही है। पहाड़ी गांव खाली हो चुके हैं और जो लोग वहां बचे हुए हैं उनमें से अधिकांश बुजुर्ग हैं। किसी भी सरकार ने पर्वतीय क्षेत्रें में विकास की योजनाओं को अमली जामा नहीं पहनाया है, जिसके चलते लोगों में रोष पनप रहा है, और यह रोष कब ज्वालामुखी बनकर फूटेगा कहा नहीं जा सकता। सरकारों को यहां के मूल निवासियों की चिंता करनी चाहिए थी, उनके उत्थान की योजनाओं पर क्रियान्वित करना चाहिए था, लेकिन इसमें वह विफल रही।

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