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वोट पहाड़ का,राज्य पहाड़ी,सरकार पहाड़ की और नेता गैर !

  • पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड की गैर पहाड़ी भाजपा
  • भाजपा में पहाड़ी नेताओं से लगातार किया गया छल 

राजेन्द्र जोशी 

देहरादून : दो अक्टूबर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जयंती, राज्य आन्दोलनकारियों का शहादत दिवस, पिछले 17 सालों से यही दिन राज्य निर्माण को लेकर आन्दोलनकारियों को सरकारीतौर याद करने का दिन, लेकिन इस बात पर कोई भी गौर करने को तैयार नहीं कि आखिर जिन्होंने इस राज्य के लिए शहादत दी थी उनके सपनों को कितना साकार किया गया इन 17 सालों में, या केवल रस्म अदायगी के लिए ही इस दिन इन शहीदों को याद किये जाने की परंपरा सी बन गयी है। जैसे – जैसे समय बढ़ता जा रहा है इस राज्य के भाग्य विधाता भी बदलते जा रहे हैं, इसे इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि राज्य आन्दोलन की मूल भावना से इतर यह राज्य गैर उत्तराखंडियों का उपनिवेश बनता जा रहा है और मूल निवासी ही बन गए हैं अपने ही राज्य में दोयम दर्जे के नागरिक।  

क्या इस उत्तराखंड के भाग्य विधाता रामलाल, शिवप्रकाश, श्याम जाजू, संजय कुमार, अभिमन्यु कुमार, देवेन्द्र भसीन, नरेश बंसल, या कोई और वैश्य या गैर उत्तराखंडी ही होगा। यह सवाल आज हर उत्तराखंडी के जेहन में कौंध रहा है। और उसके जेहन में यह बात भी कौंध रही है कि क्या इसी उत्तराखंड के लिए हमारे शहीदों ने अपने प्राणों को न्योछावर किया था? कि इनके ही इशारों पर पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड की भाजपा झूमती नज़र आएगी? कुलमिलाकर भाजपा ने उत्तराखंड में अपना नेतृत्व ऐसे हाथों में सौंप दिया है जिसे न पहाड़ के सरोकारों से कोई मतलब और न पहाड़ियों से कोई संवेदनशीलता।

राज्य के अस्तित्व में आने के कुछ वर्षों तक और राज्य निर्माण के सपने को अंजाम तक पहुंचाने वाली और उत्तराँचल प्रदेश का गठन करने वाली अटल बिहारी वाजपेयी वाली भाजपा में जब तक भगत सिंह कोश्यारी और मनोहरकांत ध्यानी जैसे नेताओं का वर्चस्व था तब तक राज्यवासियों को तब की भाजपा से पहाड़ की खुशबू आती थी और उसे पहाड़मय अथवा उत्तराखंडी भाजपा महसूस होती थी और तब पहाड़ में मुद्दों पर संवेदनशील भी लगती थी, लेकिन पिछले एक दशक से उत्तराखंड की भाजपा वैश्यवाद और गैर उत्तराखंडी लोगों के हाथों की कठपुतली बनती दिखाई देने लगी। क्योंकि इस भाजपा से पहाड़ का वर्चस्व धीरे-धीरे कम होने लगा अथवा जानबुझकर कम किया जाने लगा है। इतना ही नहीं पहाड़ियों का चेहरा केवल दिखाने मात्र तक सीमित कर दिया जाने लगा और गैर पहाड़ी वर्तमान भाजपा के नीति नियंता बन बैठे। इतना ही नहीं जहाँ एक ओर प्रधान मंत्री मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह देश के प्रमुख मंचों से कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाते नहीं थकते हैं वहीँ उत्तराखंड भाजपा परिवारवाद सहित वैश्यवाद और गैर उत्तराखंडीवाद से ग्रसित होती नज़र आ रही है। इतना ही नहीं जिस पार्टी में यह गीत गया जाता रहा हो ‘’मुख में जाति पंथ की न बात हो ‘’ उस पार्टी के होर्डिंग और बैनरों में केवल वहीँ चेहरे नज़र आते हैं जो भाजपा की इस विचारधारा के विरोधी हैं ।

इतना ही नहीं जहाँ तक गैरसैण राजधानी के सवाल पर भी वर्तमान भाजपा पीछे हटती नज़र आ रही है। भले ही गैरसैंण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गैरसैंण में राजधानी का पक्का निर्माण करवाकर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सहित हरीश रावत ने बाज़ी मार दी। लेकिन अबकी भाजपा केवल देहरादून के ड्राइंग रूम में ही गैरसैंण पर चर्चा करती है जबकि अटलजी के समय की भाजपा ने उत्तरांचल प्रदेश बनाकर राज्यवासियों को नए राज्य की सौगात दी थी यहाँ यह बात भी दीगर है कि इन 17 सालों में पहले तो भाजपा उत्तराखंड की नज़र आती थी चिंता करती थी लेकिन बाद में गैर जिम्मेदार संवेदनशील लोगों के हाथों में भाजपा की कमान आने के बाद से गैरसैण का मुद्दा ही ”गैर” कर दिया गया।    

बात पहाड़ मैदान की ही नहीं हो रही बल्कि उत्तराखंड के मूल और गैर मूल की भी है। आज उत्तराखंड भाजपा में जो भी लोग खेवनहार बने हुए हैं वे उत्तराखंड मूल के नहीं हैं तो स्वाभाविक रूप से उनकी उत्तराखंड के प्रति कोई संवेदना भी नहीं होगी इसलिए जिस तरह बाहरी कैडर के लोग किसी भी राज्य में अपनी सेवाएं देते हैं उसी तरह यह लोग भी उत्तराखंड के माई बाप बनकर नेतृत्व कर रहे हैं । जिस राज्य की लड़ाई यहां की जनता ने लड़ी थी वह दूर दूर तक नहीं दिखाई देता है इस सबके जिम्मेदार उत्तराखण्ड बीजेपी के वे पहाड़ी महानुभाव हैं जो राज्य का मुख्यमंत्री तो बनना चाहते हैं मगर पहाड़ियों की बात करके अपनी छवि खराब नहीं करना चाहते। इसका खमियाजा भी पहाड़ी भुगत रहे हैं। प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष के दौरे में हवाई अड्डे के स्वागत में ये नेता या इनके बेटे ही दिखाई देते हैं। इसे कौन तय करता है, इसी से साबित होता है मूल उत्तराखण्डी किस हैसियत में है।

इतना ही नहीं सरकार भी अभी तक उन पहाड़ी और पहाड़ की जमीन से जुड़े ऐसे नेताओं को नहीं खोज पायी  जो पहाड़ का दर्द, पहाड़ की समस्याओं को स्वयं अनुभव करके पार्टी से जुड़े हैं और पहाड़ की जमीन पर अपने पसीने से पार्टी को मजबूत कर रहे हैं। तो क्या ऐसे जुझारू पहाड़ी नेताओं को नाकारा जा रहा है ? या उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से नकार कर हतोत्साहित किया जा रहा है ? यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या सरकार की जिम्मेदारी सिर्फ  दिल्ली से आने वाले नेताओं के स्वागत करने, उन्हें घुमाने-फिराने, नहलाने-घुलाने-सुलाने से लेकर  टीका-पीठाई सहित विदाई तक की जिम्मेदारियों की रह गयी है।

छोटी सोच और सरकार की अंतर्मुखी कार्यशैली भाजपा को पहाड़ से दूर तो कर ही रही है साथ ही साथ पहाड़ी राज्य में सरकार के खिलाफ अविश्वास भी पैदा करने लगी है। कहा तो अब यहाँ तक जाने लगा है कि सरकार केवल उतना ही सोचती  है जितना केंद्र के नेता उसे सोचने को कहते हैं ? अब तो यह भी सुगबुगाहट जनता के बीच होने लगी है कि क्या सरकार की क्षमता ही इतनी है? या पहाड़ के नेतृत्व को पूरी तरह से नकार देने के लिए जमीन तैयार की जा रही है ?  इस मुद्दे पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है?

चर्चाएँ तो यहाँ तक आम है कि छोटे-छोटे कामों की दलाली दिल्ली दरबार से हो रही है। सरकार के हाथ मे 12 हजार करोड़ के आल वेदर रोड का झुनझुना है, सरकार प्रत्येक प्रेस कान्फ्रेंस या सार्वजनिक मंच और जनसभाओं में केवल  ‘’आल वेदर चालीसा’’ गाती ही नज़र आ रहे हैं। सरकार का राज्य के विकास को लेकर क्या एजेंडा है, बीते छह माह बीत जाने के बाद भी जनता को सन्नाटा ही सन्नाटा नज़र आ रहा है। जिलों की प्लानिंग कमेटी की बैठकें लापता हैं, कमिश्नरी उजाड़ पड़ी हैं। 57  का आंकड़ा देख मदमस्त भाजपा खुद की पीठ थपथपाने पर लगी है।

devbhoomimedia

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