जो रहीं सरकारी मुलाजिम आखरी साँस तक पूर्व गृहमंत्री बूटा सिंह के आदेश से…..
कुसुम रावत
नायक सिर्फ वह नहीं जो युद्ध के मैदान में तलवारें भांजता है बल्कि वो बड़ा नायक है जो समाज में खामोशी से जीते हुए विवेक व करूणा से सर्वोच्च मानवीय मूल्यों की हर पल हिफाजत करता है। मैं ईश्वर की शुक्रगुजार हूं जो उसने मुझे ऐसे खामोश नायकों का साथ दिया- जिनमें परम प्रभु का ‘नूर’ शिद्दत से चमकता-दमकता-छलकता है। पुरानी टिहरी की ऐसी ही खास शख्सयित हैं- विद्या चानना। लोग उनको ‘रेडक्रास वाली आंटी जी’ के नाम से जानते थे। यह खामोश साध्वी टिहरी में बिना डाक्टरी डिग्री के पचास के दशक से आखरी सांस तक ‘प्रैक्टिसिंग न्यूरोलोजिस्ट’ के तौर पर मशहूर रहीं। दीन-दुखियों-बीमारों-गरीबों की सेवा ही भारतीय रेडक्रास सोसाईटी की इस अनोखी मुलाजिम की साधना थी। वो निर्विकार संत थीं-जिनके खामोश व्यक्तित्व में टिहरी ने साधना-सेवा-करूणा-बेशर्त प्रेम का अद्भुत संगम देखा। मैं पहली बार आंटी की अद्भुत कहानी दुनिया को सुना रही हूं।
वह देश का ऐसा बेजोड़ उदारहण हैं- जिनकी निस्वार्थ सेवा व न्यूरोलॉजी ज्ञान के कारण महानिदेशक रेडक्रास सोसाईटी की पहल पर तत्कालिन गृहमंत्रा सरदार बूटा सिंह ने रेडक्रास सोसाईटी को लिखा कि विद्या चानना, प्रिंसीपल रेडक्रास स्कूल, टिहरी महान समाजसेवी हैं। उनकी निस्वार्थ सेवाओं के कारण उनको ताउम्र रेडक्रास सोसाईटी का मुलाजिम रखना उनका सम्मान व बीमारों को आश्रय देना होगा। रेडक्रास सोसाईटी ने यह प्रस्ताव माना। यह भारत का अनोखा केस होगा, जहां मुलाजिम को आखरी सांस तक सेवारत रहने के आदेश हुए हों। मैंने वह दस्तावेज देखे हैं। आप हैंरान होंगे ना! पर यकीन करें यह उतना ही बड़ा सच है जितना खुद में रेडक्रास आंदोलन।
विद्या चानना टिहरी की लेडी विद द लैंप- फ्लोरेंस नाईटिंगेल से कम नहीं। वह अविवाहित थीं। भारत-पाक बंटवारे के वक्त मां-बहन के साथ हिंदुस्तान आईं। बहन कहीं शरणार्थी कैंप में खो गईं। इससे ज्यादा किसी को कुछ पता नहीं। क्योंकि वो बहुत खामोश थीं। दुनियादारी के बजाय प्रभु सुमिरण व सेवा में डूबी रहतीं। यह संस्मरण सोनी क्लाथ हाऊस टिहरी के प्रकाश सोनी, बैंकर रिटायर्ड चीफ मैनेजर हरीओम सोनी, मीनू चड्ढ़ा, टिहरी राजा के पुजारी देबू पंडित जी के बच्चों आशा-राकेश पांडे, आंटी के करीबी बाल्मिकी परिवार विनोद-रेनू, रेडक्रासकर्मी बलवीर भंडारी-पत्नी उजला समेत सैकड़ों टिरियाली वाशिन्दों और मेरा आंखों देखा हाल है। वह ऐसी गुमनाम धरोहर हैं जिनको इतिहास में दर्ज होना अभी बाकी है। वह नसों के ज्ञान-विज्ञान की बड़ी जानकार थीं। अस्पताल से रिजेक्टडेड मरीजों को वह नसें मलकर चंगा कर देतीं। वह जगत आंटी थी- बच्चों, मां-बाप, दादा-दादी सभी की आंटी। वह बिना गेरवे रंग की संत सिपाही थीं। इस मुक्त आत्मा का सानिध्य और रेडक्रास का सुर्ख लाल निशान मेरी जिंदगी का ऐसा सत्य है- जो मुझे हर पल उस रूहानी पंछी का अहसास कराता है जिसे हम ‘ईश्वर’ कहते हैं। आंटी ऐसी शक्स थीं- जिसके ‘अक्स’ में रेडक्रास सोसाईटी के पवित्र उद्देय छल्लारें मारते हैं। आईए आप भी आनंद लें इस खास इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व का-
हेंवलघाटी से टिहरी आते वक्त हम 3-4 महीना चंबा रहे। हमारा घर ब्लॉक रोड़ पर था। चंबा में पानी की किल्लत थी। लोग रेडक्रास स्कूल में पानी लेने जाते। मैं भी मां के साथ चाय की केतली में पानी लाती। वहां बड़ी भीड़ होती। सो नंबर आने तक हम खेलते-कूदते। वहीं पहली बार मैंने रेडक्रास का लाल निशान देखा। टीचर ने बताया कि यह खास डाक्टरी निशान है। जब तक कुछ समझती हम टिहरी आ गये। लेकिन यह लाल निशान याद रहा। बात आई-गई हो गई। इस निशान ने फिर दस्तक दी- जब शिशु मंदिर में नर्सिंग की जन्मदात्रा फ्लोरेंस नाईटिंगेल की कहानी सुनी कि कैसे वह रात को लैंप लेकर घायलों की सेवा करती? कैसे स्विस व्यवसायी हैनरी ड्यूनांट ने क्रीमिया युद्ध से आहत हो सारी दौलत लगा अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रास सोसाईटी की शुरूआत की पहल की? कैसे सर क्लाउड हिल ने 1920 में भारतीय रेडक्रास सोसाईटी बनाई? मैं नैपोलिया कन्या पाठशाला में रेडक्रास टीम की कैप्टेन थी। सो यूं यह लाल निशान मन में बैठता गया। नहीं मालूम था कभी यह लाल निशान ही मेरी बाकी सांसों का गवाह बनेगा? तो सुनें रेडक्रास वाली बिना डिग्री की मेरी इस प्रैक्टिसिंग न्यूरोलोजिस्ट की अनोखी कहानी?
बात 10 अक्टूबर 1998 की है। मैं महिला समाख्या टिहरी में थी। जीप ड्राईव करते वक्त चढ़ाई पर एक बच्ची व गाय को बचाते वक्त मैंने गाड़ी चट्टान से ठोक दी। नीचे गहरी खाई थी। महेन्द्रा की भारी जीप पलटी। मैं बीस मिनट दबी रही। मैंने सारा बोझ गर्दन पर महसूसा। तेज दर्द हुआ- लगा प्राणान्त। अचानक लगा मेरी गुरू कैलाशपुरी माईजी ने मुझे गोद में उठा लिया। मैं चुपचाप पड़ी रही। मुझे निकाला पर खरोंच भी ना थी। डाक्टरों ने देखा। बात आई-गई हो गई। मैं मई 2002 में नीरू नंदा जी के पास अचानक चंडीगढ़ गई। वह आई.ए.एस. अधिकारी हैं। वह गर्वनर की सलाहकार थीं। वहां मेरा पांव मुड़ा। मुझे डाक्टर के पास भेजा। मेरा एम.आर.आई. हुआ। रिपोर्ट आई। रेडियोलॉजिस्ट ने मुझे घूरा। क्या ये आपका ही है? स्पाईनल इंजरी सैंटर चंडीगढ़ में मशहूर न्यूरोसर्जन डा. राजबहादुर और पी.जी.आई. चंडीगढ़ के न्यूरोविभाग के हैड ने मुझे देखा। डा. राजबहादुर आंख चुराते बोले- घबराओ नहीं। तुम्हारी स्पाईनल सर्जरी होगी। तुमको तीन हफ्ते में खड़ा कर दूंगा। मुझे हुआ क्या है डाक्टर? वह बोले तुम्हारी एल.5 और एस.1 वर्टीब्रा प्रोलैप्स हैं। तुम्हारी हालत ठीक नहीं। तुमको हर वक्त तेज दर्द में होना चाहिए या पैरालाईज हो जाना था या कुछ और भी? घबराओ नहीं। मेरी जन्मपत्री में 32 साल में एक्सीडेंट से मौत लिखी थी। मैंने शांत हो पूछा- डाक्टर आपरेशन के बाद मैं मांऊटेनिरिंयग कर पाऊंगी? यह मेरा पंसदीदा शौक था। नीरू दी ने कई राय ले आपरेशन तय कर दिया। 3 महीने की छुट्टी ली। टिहरी में राधा रतूड़ी कलक्टर थीं। मेरी मां बहुत बीमार थीं। घर में किसी को इस एक्सीडैंट का पता नहीं था। सो नीरू दी ने राधा दी, मेरी जंगलाती दोस्त ज्योत्सना सितलिंग और सहकर्मी गुरमीत को फोन किया कि इमरजैंसी में मां को देख लेना। मैं आपरेशन करा रही हूं। यह सर्जरी रिस्की थी। आपरेशन से एक दिन पहले मैंने हाथ खड़े कर दिये- मैं माईजी से पूछे बिना सर्जरी नहीं कराऊंगी। मेरा तर्क था कि एक्सीडैंट 4 साल पहले हुआ। मैं पहाड़ों पर चढ़ती हूं। बोझा उठाती हूं। मुझे ऐसा दर्द नहीं तो फिर क्यों? पर डाक्टरों ने डरा तो दिया था। तय हुआ माईजी से मिल मैं चंडीगढ़ लौटूंगी। लेकिन फिर मैं न कभी चंडीगढ़ गई और ना मेरा आपरेशन हुआ। वो रिपोर्ट आज भी रखी हैं। निर्मल अस्पताल ऋषिकेश के निदेशक मेरे परिचित डा.अजय शर्मा ने भरोसा दिया- कुसुम फिकर नॉट। कोई इंमरजैंसी में मैं हूं ना! दूसरे एक्सीडैंट के बाद मेरी साध्वी मित्रा मैती दी, होम्योपैथ डा.मुकुन्द और डा. अजय शर्मा ने बड़ी मदद की। आज भी लगता है कोई कुदरती ताकत मुझे थामे है। वो निसंदेह मेरी रेडक्रास वाली आंटी ही हैं।
नीरू दी ने माईजी को चोट की गंभीरता बताई। उन्होंने सर्जरी को दृढ़ता से मना किया कि मेरी जिम्मेदारी है। उन पर मेरा अगाद्य विश्वास था। सो मैंने अपनी जिंदगी डाक्टरों के बजाय गुरू को सौंप दी। बूढ़ी माईजी मुझे अगस्त 2002 की एक दोपहरी इन्हीं आंटी के पास ले गईं। वहां रेडक्रास के लाल निशान ने मेरा स्वागत किया। यह हमारी पहली मुलाकात थी। आंटी साधारण शक्ल, भारी बदन की उम्रदार पंजाबी महिला थीं-इतनी साधारण कि मुझे लगा कहां फंस गए? वो हलका बादामी सूट पहने तख्त पर बैठी थीं। सिर पर सपफेद दुपट्टा। यह छोटा सरकारी कमरा था। उसमें एक तख्त, मेज, दो बक्से, दो कुर्सी और छोटा-मोटा सामान। मेज पर तेल की कटोरी और स्लोन बाम की शीशी। यही उनकी जागीर थी। आंटी की छोटी-छोटी अजीब सी नीली गहरी आंखें थीं। उन आंखों में एक अनोखा नूर था। वैसी आंखें दुर्लभ हैं। वो एकदम गोरी चिट्टी थीं पर सुंदर नहीं। आंखों के नीचे गहरी झुर्रियां और माथे पर साधुओं से बल। नर्सरी क्लास से उनको देखने वाली देहरादून की 58 वर्षीया मीनू चड्ढ़ा कहती हैं- हमने बचपन से आंटी को मरते दम तक ऐसे ही देखा- उनके झक सफेद बाल, धीर गंभीर चेहरा, खामोश निगाहें और मदद को धड़कता दिल हमेशा वैसा ही रहा। वो रिटायरमेंट के बाद भी स्कूल-हैड थीं। वो स्कूल में रह सेवा कर रही हैं। ऐसा मैं माई जी और आंटी की बात से समझी। पर क्या सेवा? और क्यों रिटायरमेंट के बाद स्कूल में? मेरी जिज्ञासा चोट से ज्यादा आंटी में बढ़ गई? मैंने उनको गौर से घूरा।
खामोश आंटी में मुझे दुनियादारी के प्रपंचों से परे किसी खास मकसद में डूबी एक महान आत्मा नजर आई। उनके चेहरे की हर झुर्री, गजब की चुप्पी और बंद होठों में चल रही बुदबुदाहट मुझे लुभा रही थी- कुछ अलग ठहरा व्यक्तित्व था। आंटी ने माईजी को बैठे-बैठे नमस्कार किया। दोनों की पहली मुलाकात थी। माईजी ने चोट के बारे में बताया। वह पूछताछ कर बोली- घबराओ नहीं। आपरेशन ना कराओ। ठीक हो जाऐगा। महीने भर आना होगा। वह ऐसे आत्मविश्वास से बोलीं जैसे गोया दुनिया की सबसे कुशल न्यूरोसर्जन हों और इनकी आंखों में एम.आर.आई. का हुनुर हो। मैं और गुरमीत एक दूसरे को देख हंसे कि कहां फंसे? आंटी बोली पेट के बल लेटो। मुझे वो दिन याद है। पता नहीं उन बूढ़ी ऊंगलियों में क्या जादू था कि वो दाहिने हाथ के अंगूठे से मेरी रीढ़ की हड्डी पर कुछ प्वांइट दबाती गई। दर्द से चीख निकल रही थी। बाद में मेरी नाभि पर आटे का दीपक जला उस पर लोटा रख वैक्यूम बना कुछ देर बाद निकाला। यह दर्द भरी प्रक्रिया थी। फिर निर्विकार भाव से बोली- कल फिर आना। बोलकर ऐसे चुप कि हमें जानती भी ना हों। नीरू दी बहुत बिगड़ीं। पर कुछ था आंटी के व्यक्तित्व और माई जी के विश्वास में कि मैंने यह जुआ भी खेला। यह सिलसिला महीने भर चला। फिर मेरी जिंदगी सामान्य हो गई। मैं भूल गई कि मेरी स्पाईनल सर्जरी ड्यू है। सालों डरी नीरू दी व राधा दी मेरी चोट का पूछती तो मैं उनको यह कविता सुनाती-
आशावादी बारह मंजिल से नीचे गिरा,
हर मंजिल की खिड़की से गुजरते हुए उसने अपने डरे दोस्तों से कहा,
दोस्तों घबराओ नहीं अभी मैं जिंदा हूं…..
अब मेरे दाहिने ओर सिर से पांव व हाथ तक होने वाला दर्द कम था। मेरी पीठ पर कई जगह पड़े नसों के गुच्छे और खून के काले चक्कते ठीक हो गये थे। इनका मुझे पहली बार पता चला-क्योंकि कभी पीठ किसी ने देखी ही नहीं थी। आंटी में मेरी दिलचस्पी बढ़ती गई। वहां आने वाली बहुरंगी भीड़ का कोई चरित्र नहीं था- भीड़ में पढ़े लिखे, अनपढ़, नौकरी वाले, किसान, व्यापारी, ग्रामीण, शहरी, पहाड़ी, पंजाबी, बनिया, सवर्ण और स्वीपर सब होते। हर जाति, उम्र, वर्ग के लोग अपनी उल्टी पुल्टी नसों की डेंटिग-पेंटिग करवाते। मैंने वहां टिहरी के आर्थोपीडिक डा. पाठक को मोच उतरवाते देखा। आंटी बोली यहां बड़े-बड़े डाक्टर रात को छिप कर आते है। दिन में उनको शर्म लगती है कि लोग कहेंगे डाक्टर भी आंटी से मोच निकलवा रहा है? आंटी से अब दिली नाता बन गया था।
आंटी की कहानी बड़ी दिलचस्प है। बकौल सोनी ब्रदर्सस- वह 1947 में लाहौर, गुजरावाला से मां-बहन के साथ दिल्ली आईं। वह शरणार्थी कैंप में रहे। दिल्ली रेडक्रास सोसाईटी ने 1952 में उन्हें हरिजन कल्याण विभाग लखनऊ और बाद में नरेन्द्रनगर भेजा। उनकी मां हरिद्वार किसी आश्रम में थीं। वह कठिनाईयों का दौर था। कुछ दिन चम्बा रह वह 60 के दशक में टिहरी आईं। फिर टिहरी डूबने तक वहीं रहीं। वह हमारी मां की मुंहबोली बहन और हमउम्र थीं। स्कूल में एक शरणार्थी टीचर लीला श्रृंगारी थीं। जो गुस्से वाली थीं। आंटी के पास लोगों की भीड़ उन्हें पसंद ना थी। पर आंटी चुप रह सब निभाती। आंटी ने नर्सरी स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के अलावा हजारों औरतों को सिलाई, बुनाई, कढा़ई व मशीन पर स्वेटर बुनना फ्री में सिखाया। वह उस जमाने में दिल्ली से लोगों को बुला डाक्यूमैंट्री फिल्म बनवातीं जिससे लड़कियों का आत्मविश्वास बढ़े। वह नसों का विज्ञान जानती थीं। वह नस मलने और मिट्टी पानी का ईलाज करतीं। गहरी पड़ी नसों को आटे के दीये व लोटे से निकालतीं। कच्ची रोटी से नसों व हडि्डयों को दुरस्त करतीं। आहार चिकित्सा व मालिश से ईलाज करतीं। वहां मरते दम तक मरीज आते रहे। कोई नहीं जानता आंटी ने यह विद्या कैसे सीखी? मैंने पूछा तो बोलीं बेटा ये कुदरती है। पता नहीं कैसे चमत्कार हुआ मुझे नहीं मालूम?
बकौल हरिओम सोनी व मीनू चड्ढा वह शुरू से ही नसों का काम करती थीं। वह एक बार बहुत बीमार पड़ीं। उन्हें सांस की तकलीफ थी। मैंने उन्हें गंगाराम अस्पताल दिल्ली में नर्स पुष्पा बिष्ट के पास छोड़ा। आंटी महीना भर वहां रहीं। उनकी हालत बिगड़ती गई। आंटी ने बताया- मैं खिन्न हो गई थी। अचानक एक दिन मेरा हाथ छाती पर गया। कोई नस अनजाने में दबी। मुझे थोड़ा आराम लगा। मैंने कुछ सोच वहीं दबाव दिया। मेरी हालत सुधरती गई। मैंने डाक्टरों से कुछ नहीं कहा पर पुष्पा को कहा-मुझे अपने घर ले चलो। उस अनजान नर्स ने मेरी बहुत सेवा की। मैं धीरे-धीरे ठीक होने लगी। कुदरत का करिश्मा था कि मेरे अंदर उस दौर में नाड़ियों का ज्ञान-विज्ञान पूरी तरह से उतरता गया। मुझे लगता था कि जैसे कोई खामोशी में शरीर विज्ञान पढ़ा रहा हो? मुझे अपने आप ही तंत्रिका तंत्र, नस-नाड़ियों के आपसी कनेक्शन शरीर की हडि्डयों की जानकारी और रक्त प्रवाह क्रिया का पता चला? पता नहीं वह कौन कुदरती ताकत थी जिसने मेरे अंदर यह सब भरा? उसी ताकत ने मुझे लोगों के ईलाज का काम सौंपा। कुसुम जिसे मैंने चुपचाप किया। हरिओम मुझे टिहरी ले आया। मैं टिहरी स्वस्थ होकर आई। कुछ ही दिनों में यह बात टिहरी-उत्तरकाशी जिले में फैल गई।
बकौल आशा पांडे, रेडक्रासकर्मी बहादुरगढ़ दिल्ली- मुझे आंटी ने नर्सरी में पढ़ाया। वह गंभीर, सौम्य व अनोखी टीचर थीं। देष भक्ति उनमें कूट-कूट कर भरी थी। मैंने उनसे पढ़ना, लिखना व जीने का सलीका सीखा। मैं 1983 में रेडक्रास में टीचर बनी। आंटी बेहद खुश थीं कि मेरा पढ़ाया बच्चा आज मेरे स्कूल में टीचर है। मैं उनके चेहरे की चमक कभी नहीं भूली। मुझे स्कूल में ही कमरा मिला। सो मैंने आंटी को बच्चा और टीचर बनकर देखा। कुसुम वहां हर तरह के चोट खाये लोग गांवों से पलंग पर आते और कुछ ही घंटों में पैरों पर चलकर जाते। 1989 में घनसाली से पेड़ से गिरे एक आदमी को लोग पलंग पर लाये। आंटी ने मिट्टी-पानी की चिकित्सा की। वह सुबह आया था और शाम को चलकर गया। मैंने खुद उनको चाय पिलाई। मैंने ऐसे हजारों मरीज वहां देखे। हमें कुछ भी होता तो वही हमारा ईलाज करतीं। टौंसिल होते तो हाथ के नीचे दबाकर मलती और हम फिट। वह सबकी मदद करतीं। वह कितनी मदद पैसे, सेवा और अन्य तरीकों से लोगों की करतीं- हम बता नहीं सकते? लोग कराहते या रोते आते और हंसकर जाते। वहां से कोई निराश नहीं गया। 1990 में रेडक्रास सचिव एन.सी.शर्मा बहुत बीमार थे। पूरी तरह निराश हो वह दिल्ली से आंटी के पास आये और ठीक होकर गये। जाते हुए बोले आंटी आपकी ऊंगलियों में जादू है। यही जादू टिहरी वालों ने आंटी की ऊंगलियों में दशकों महसूसा। हम बहुत गरीब थे। बड़ा परिवार था। आंटी ने हमारी बड़ी मदद की। मेरी शादी का खर्चा भी उठाया। कितनों की गुप्त मदद करी होगी? कितनों को हुनुर सिखा लायक बनाया होगा, कोई गिनती नहीं? वह जून 1988 में रिटायर हुईं। उन्होंने अपना फंड रेडक्रास को दान कर दिया। कितना- कोई नहीं जानता? सिर्फ 1,65,000 रू. की एफ.डी.आर. उजला भंडारी के नाम कर गईं। इन्हीं बलवीर-उजला ने ही उनकी देखभाल की थी. रिटायरमेंट के बाद वह नियत 1560 रूपये महीना लेतीं।
आंटी सही मायनों में अध्यात्मिक थीं। वह जांति पांति, धर्म, छुआ छूत, ऊंच नीच, गरीबी अमीरी के भेदभाव से ऊपर उठकर मानवीय मूल्यों में जीती थीं। वहां अधेड़ उम्र की प्रेमवती बेटे विनोद व बहू रेनू के साथ आती। घंटों बैठते-खाते पीते। मैं समझी कोई मित्र होंगी? पर वह सफाईकर्मी थी। रेनू आजकल यूनियन बैंक चम्पावत में पोस्टेड है। बकौल रेनू आंटी के साथ हमारा रिश्ता व व्यवहार घर का था। खाना पीना सब साथ होता। हर परेशानी में आंटी ने हमेशा साथ दिया। मेरी ननद व पति की बीमारी में बहुत खर्च किया। कभी कोई हिसाब किताब नहीं रखा। वो सबके लिए ऐसे ही करतीं। उनकी मौत पर मुझे लगा मेरी मां मर गई है। मेरे बच्चों को उन्होंने पढ़ाया। बेटा पॉलिटैक्निक और बेटी नर्सिंग कर रही है। मैंने दुनिया में आंटी जैसा दयालु व नेक बंदा ना देखा। उनके गुणों का वर्णन मुश्किल है? वह बोलती बच्चों को डांटो मत। प्यार से समझाओ। उन्होंने बलवीर समेत कई बच्चों को पढ़ा-लिखा नौकरी लगाई। बलवीर 5 साल का आया था। उसकी शादी की। बलवीर ने ही उनकी देख रेख की। 2002 में टिहरी डूबने पर जून 2003 तक वह रेडक्रास चम्बा में रहीं। बाद में इस्तीफा दे बलवीर के साथ ऋषिकेश चली गईं।
मैंने आंटी की प्रशंशा में लिखे हजारों पत्रों का ढ़ेर देखा। वह हर मान-सम्मान से ऊपर थीं। लोग जबरदस्ती चिठि्ठयां छोड़ते। वह कहती मैं क्या करूंगी इनका? वह कोई पुरूस्कार या प्रमाणपत्र नहीं स्वीकारतीं थीं। मरीज की शन्तुष्टि ही उनका संतोष था। बलवीर से वह फाईल मांगी तो बोला- आंटी की मौत के बाद उनकी फोटो के सिवा मैंने सब कुछ दानकर फाईलें जला दी थीं। मैं क्या करता उनका? रेडक्रॉस चम्बा से भी पुराना रिकोर्ड होने के कारण वह मिल नहीं पाया.
आंटी जगत के प्रपंचों से परे अध्यात्म का जीवंत रूप थीं। वह ऐसी इंसान थीं जैसा इंसान को होना चाहिए। प्रेम उनका हथियार था जिसने एक अनजान महिला को जगत आंटी बना दिया। बकौल आशा वह सबकी मां जैसी थीं। वह बीमार को प्रेम से बिठा उसके पांव धुलतीं। उनमें अहम भाव नहीं था- ना किसी गुण या मशहूरी का। ना कोई चाह और ना कोई चिंता ही थी। वह मस्तमौला फकीर हमेशा गुरूवाणी पढ़तीं। गीता भवन से पुस्तकें मंगा बांटती। वह किसी से पैसा, फल या सब्जी नहीं स्वीकारतीं। बल्कि सबको खाना खिलाती। कोई आ-जा नहीं सकता तो उसे अपने पास रखतीं। ईलाज में लगने वाला तेल, बाम आदि खुद लातीं। जरूरतमंद को किराया भी देतीं। जाते वक्त हाथ जोड़ती- आपने सेवा का मौका दिया। वह हर शिकायत, गिले, शिकवे से कोसों दूर थीं।
मैंने पूछा क्या यह हुनूर किसी ने सीखा? बोलीं- बड़ी कोशिश की। कोई तैयार नहीं हुआ? यह एक तपस्या है। थोड़ा टिहरी के व्यापारी गुलशन राय की पत्नि विनोद ने सीखा। बकौल विनोद राय- बेटा मेरी बीमारी में ही आंटी ने मुझे नस पकड़ना सिखाया। मैं थोड़ा सीख पाई तब तक डाम की अफरातफरी मच गई। मैं पीठ, कमर की नसें मल देती हूं। कई लोग ठीक हुए। 26 साल पहले तेरे अंकल की बहुत तबियत खराब हुई। बम्बई कोलीबाड़ा, साईन अस्पताल ने हार्ट सर्जरी बताई। हम बम्बई जा रहे थे। आंटी बोलीं रूक जाओ कुछ दिन। मैं देखती हूं। तेरे अंकल 15 दिन में ठीक हो गये। मेरी तो दुनिया ही बदल गई। आंटी ने नसों का आपसी कनेक्शन सिखाया। हार्ट, पेट और टांगों की नसें आपस में जुड़ी होती हैं। वो मैं ठीक कर देती हूं। रतन लाला का पोता आंटी से सीखा। कईयों की नाल की दिक्कत मैंने ठीक की। आंटी भाप का लोटा, मिट्टी का लेप व दर्द मार पत्ता लगातीं। बकौल पूर्णिमा सोनी वह रीढ़ की हड्डी का दर्द ठीक कर देती थीं। मेरा ईलाज उन्होंने ही किया। उनके हाथों में ताकत नहीं थी पर उस एक ऊंगली में ना जाने क्या जान थी? वह बीमार होतीं तो हम अपने घर ले आते तो वहां भीड़। देहरादून आतीं तो यहां भीड़। जाखन में उन्होंने सैंट्रल बैंककर्मी की 28 साल पुरानी बीमारी ठीक की। यहां सैकड़ों लोग ठीक हुए। कुसुम बड़ी कहानियां हैं। क्या-क्या बताएं?
बकौल मीनू चड्ढ़ा आंटी र्निविकार-र्निविशयी साधु थीं। वह विवेकी और समदृष्टि थीं। बिना भेद सबसे प्रेम करती। वह सिर्फ देना जानती थीं। लेना नहीं। उनको ना किसी के आने की खुशी होती और ना जाने का गम। वह सुख-दुख, मान-अपमान, शोक-हर्ष में समान रहतीं। आंटी अच्छाई व गुणों की खान थीं। उनमें बुराई भगवान भी नहीं खोज सकता? उनको देख कोई नहीं कह सकता था कि उनमें इतने गुण थे। उनकी हिन्दी, अंग्रेजी, व्याकरण बहुत अच्छी थी। वह अग्रेंजी फ्लो में नहीं बोलतीं पर लिखती बहुत अच्छा थीं। वह हर कला में परफैक्ट थीं। वह मंदिर-गुरूद्वारा नहीं जातीं पर घर में कीर्तन-पाठ करातीं। उनके यहां हरिजन,मुसलमान,चमार,जमादार,हिन्दू सबको देखा। वह व्यवहारकुशल, सामाजिक व उदार थीं। वह अपनी तनख्वाह को समाज की धरोहर हर मानतीं। लोगों के सुख दुख में जातीं। पैसा ना होने के बावजूद लोगों की मदद करतीं। वह रूढ़ीवादी नहीं थीं। वह नीची जाति के लोगों को अपने बर्तनों में खिलाती-पिलातीं। कुसुम हम आज भी रूढ़ीवादी हैं। सोचो 50 साल पहले वह कितने खुले विचारों की रही होंगी? वह किसी भी जाति के लोगों के पांव मल देतीं। हां वह सफाई पसंद व सादगी प्रिय थीं यही उनकी एकमात्र शर्त थी। वह गणित की प्रकांड विद्वान थीं। उनकी गणित देख सब हैरान होते। उनको हमने कभी थका, हताश या आलस्य में नहीं देखा। वह बड़ी स्वाभिमानी थीं। वह बहुत शांत थी। झगड़ना-डांटना तो जानती ही न थीं। बच्चे उनसे सम्मानवश डरते। कई लोग उनको बुरा-भला बोलते पर वो ऐसे चुप्प रहतीं जैसे गूंगी-बहरी हों। कभी पाठ करते कोई मरीज आता तो वह पाठ छोड़ ईलाज करतीं। वह सबके रिश्ते जोड़तीं। वह इतनी प्रभावशाली थीं कि मेरे भाई की शादी में राजमाता टिहरी से चांदनी मांग लाईं। राजमाता जी स्कूल का सामान किसी को नहीं देती थीं। पर आंटी को सम्मान से दिया।
बकौल देहरादून के बैंकर रमेश छाबड़ा- मेरे मित्र सतीष कक्कड़ के बच्चे न थे। आंटी ने 10 दिन उनकी पत्नि की नाड़ी देखी। बाद में उनके बच्चे हुए। मेरा एक दोस्त की नसें शव उठाते वक्त खिंच गई। बहुत ईलाज हुआ पर वह 2-3 साल दर्द से सो नहीं पाया। आंटी ने उसे 2 दिन में ठीक किया। सैकड़ों-हजारों कहानियां हैं। वह टिहरी से प्रेम करती थीं। वह इतनी सरल थीं कि बच्चे भी उनसे पैसा ठग लेते। पता चलने पर बुरा नहीं मानतीं। बस बच्चा है, छोड़ो भी कहकर टाल देतीं। मेरे ओ.एन.जी.सी. के एक परिचित पैरालाईज थे। आंटी ने उनको चलाना शुरू करा दिया। गुस्सा वह जानती ही न थी। चेहरा अजीब शान्ति भरा था। आंटी ने हजारों-लाखों की मदद की पर कोई पलटकर नहीं आया। ना उन्होंने कभी अपेक्षा की। वह जब यहां आतीं तो लाईन लग जाती। पता नहीं क्या जादू था उन बूढ़ी ऊंगलियों में? वह सफेद धोती-ब्लाऊज पहनतीं। बाद में हल्के सूफियाना या क्रीम रंग के सूट। दुपट्टा हर वक्त सिर पर। वह युवा अवस्था से ही गंभीर, शांत, परिपक्व थीं। वह दाहिने हाथ के अंगूठे से नसें मलतीं पर हट्टे कट्टे लोगों की चीखें निकल जातीं। थोड़ी देर में बंदा ठीक। उसी अंगूठे में नाड़ी विद्या का राज था।
आंटी अगर पैसा लेतीं तो करोड़ों कमाती पर उनको लोभ-मोह ही नहीं था। उनके लिए इंसानियत बड़ी थी। वह औरतों के साथ होने वाले भेद भाव और हिंसा पर चुपचाप मदद करतीं। उनको नसों का इतना ज्ञान था कि वह विपरीत दिशा में मलतीं। अगर कंधें में दर्द है तो कलाई से शुरू करतीं। तेज दर्द दो मिनट में ठीक। मां के मौत के वक्त वह एकदम शांत थीं। लोग दहाड़े मार रहे थे। उनका काम दूसरों को ख़ुशी देना था नाकि अपने गम दिखाना। वह अपने दांये हाथ की ऊंगली को सिर पर रख हाथ बांये पांव के घुटने पर रख सोचने की मुद्रा में सहलाती रहीं। वह जब बहुत परेशान होती तो इसी मुद्रा में बैठतीं। थोड़ी देर में दो डकार लेकर शांत हो जातीं। उनको कभी किसी ने आवेश या उत्तेजना में नहीं देखा। पूरा टिहरी उस दिन घाट पर गया। अपने कारण किसी को कष्ट होने पर वह शर्मिंदा होतीं। देहरादून के कई परिवार उनको लाते और छोड़ जाते। वह खाली वक्त में जप करतीं। एक सूत की माला उनके सिरहाने होती। वह अपने कारण किसी को परेशान करना पसंद नहीं करतीं। एक बार किसी ने उनको तरबूज के बाद नींबू पानी पिला दिया। रात भर उल्टी-दस्त हुए। उन्होंने थैली में उल्टी भरी पर हमें नहीं उठाया। सुबह शर्मिन्दगी से बोलीं आपकी नींद खराब होती सो नहीं उठाया। उनका एक ही फंडा था- कोई बात नहीं-चलो छोड़ो।
वह बड़ी निडर थीं। वह स्कूल में अकेले रहतीं। वहां घना जंगल था। लोग कहते कि आजाद मैदान के आम के पेड़ पर भूत है लेकिन आंटी बेधडक चलती। वह लाजवाब कुक थीं। उनके हाथ का खाना लोग बहुत याद करते हैं। वह लजीज गाजर वाले चावल बनातीं। वह भांति-भांति के अचार बनातीं। लोगों को खाना खिलाना उनका प्रिय शौक था। आंटी के बारे में कहा जाता है कि टिहरी वालों का भाग्य था कि रेडक्रास स्कूल के भीमल, नींबू और चकोतरे के पेड़ के नीचे सबने आंटी से पहला आखर और हाथ पकड़कर जोड़ घटाना सीखा। हजारों को कटिंग,सिलाई,बुनाई का ऐसा फंडा सिखाया कि सब परफैक्ट मास्टर बने। पर यह टिहरी का दुर्भाग्य है कि लोग आंटी को उनकी पूर्णता में न समझ पाये कि आखिर वह क्या थीं? टिहरी डूबने पर वह बड़ी निराश थीं। वह ऋषिकेश नहीं जाना चाहती थीं। टिहरी के एक नजदीकी परिवार ने भरोसा दिलाया कि नई टिहरी में मकान दिलाएंगे। कई बार साईन करवाए पर बाद में कुछ पता नहीं चला? आंटी की कहानी कुछ ऐसी थी कि पूरी टिहरी की सेवा करके भी आखिरी में हम टिहरी वालों ने उनके लिए कुछ नहीं किया।
आंटी जब तक जिंदा रहीं मैं नियमित मिली। बकौल टिहरी के मंजूर बेग आंटी ने गुमनाम रह बिना थके-बोले सारा जीवन बीमारों की सेवा की। टिहरी वालों ने आंटी के रूप में देवी को जमीन पर देखा। वह राग-द्वेष-प्रंपच से ऊपर थीं। वह टिहरी की शान थीं। सेवा और इंसनियत क्या होती है? यह हमने उनको देखकर समझा। उनका आखरी सांस तक नौकरी पर रहना अनोखी बात है। आज नेता ऊंचाई पर पहुंच जमीन की हकीकत भूल जाते हैं। सरदार बूटा सिंह ने आंटी के मामले में ऐसा दूरदर्षी निर्णय लेकर सिद्ध किया कि निस्वार्थ समाजसेवियों की देखरेख सरकार की जिम्मेदारी है। यह नेताओं के लिए बड़ी सीख है। ऐसी ऐतिहासिक घटना दुबारा नहीं होगी। कुसुम दुनिया में इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं हो सकता। यह मांगकर, जुगाड़कर या सिफारिश से मिले भारत रत्न या नोबुल प्राइज से बड़ा रत्न है।
आंटी पाकिस्तान से खाली हाथ आई थीं। आखरी में उनकी संपति एक अटैची थी। बकौल उजला अपनी अंतिम यात्रा को वह बोल गईं कि बलवीर को मत बुलाना। 2 किलो घी और एक सफेद कपड़ा ला मुझे एक छोटी जीप में थोड़ी लकड़ी मंगा अपने बेटे से अग्नि दिला देना। बाकी कोई क्रिया-कर्म नहीं। हमने तेरहवें दिन हवन कराया। लोग कहते रहे-वह भूत बनेंगी पर ना वो भूत बनी ना हम परेशान हुए। वो आज भी शांति से हमारी यादों में है। वह गुणों की खान थीं। 17 अगस्त 2005 को आंटी जी ने आखरी सांस ली। बहुत बारिश थी। मजबूरी में तय हुआ कि तपोवन घाट के शेड में जलाएंगे। मैं दुखी हो प्रार्थना कर रही थी कि ऐसा क्यों? घोर आश्चर्य! जब हम घाट की ओर चले तो एक बड़ा, मोटा, लाल बंदर दीवाल पर ना जाने कहां से आया? वह सड़क से घाट तक अर्थी के साथ चला। चिता तैयार होते ही वह गायब। जैसे-जैसे बंदर चला वैसे-वैसे पीछे से बारिश बंद होती गई। मैं नहीं जानती वह लाल बंदर कौन था? पर कोई तो जरूर था-जो लाल रेडक्रास के निशान वाली विद्या आंटी जी की अंतिम क्रिया को र्निविघ्न कराकर चुपचाप चला गया। मैंने लकड़ी दे, चिता की परिक्रमा कर अग्नि भी दी। वह पुण्यात्मा थोड़े वक्त में सौम्य-शांत लाल अग्नि की लपटों में लीन हो गईं पर उनका रेडक्रास का सुर्ख लाल निशान मेरी सांसों का साक्षी बन दिल में कैद हो गया।
मेरी चोटिल स्पाईनल कार्ड के साथ चलती ये सांसें जन्म-जन्मांतर तक रेडक्रास के लाल निशान, विद्या आंटी जी, माईजी, नीरू दी, राधा दी, साध्वी मैती दी की कर्जदार हैं। सालों बाद इस अकल्पनीय ऐतिहासिक संस्मरण को लिपिबद्ध कर मैं बहुत संतुष्ट हूं। रेडक्रॉस के सुर्ख लाल निशान वाली हमारी प्रिय आंटी जी जरूर सितारों के बीच से इसको पढ़कर मंद-मंद मुस्करा रही होंगीं।
मैं और आंटी के प्रियजन युगवाणी संपादक संजय कोठियाल के आभारी हैं कि इस ऐतिहासिक किरदार को पहले पहल इतिहास में कैद करने का श्रेय ‘युगवाणी’ ने लूटा.
आंटी जी! बरसों बाद आपको टिहरी के हर वाशिंदे की भावभीनी श्रधांजलि-
परम प्रिय आंटी जी ! सितारों से ऊंचा हो रुतबा तुम्हारा
तुम बनो उस जहां में भी हरेक की जिंदगी का सहारा