जौनसार की अनोखी दीपावली के अनोखे रंग !
दीवाली के एक माह बाद क्यों मनाई जाती है जौनसार बावर में दिवाली?
मनोज इष्टवाल
उत्तराखंडी लोक संस्कृति की अभी भी साँसे जीवित हैं। धड़कनों में जो उल्लार व प्यार भरा है वह ढोल की घमक क़दमों की चाप और मुंह से फूटते बोलों में एक ऐसा जीता जागता उदाहरण है क़ि सचमुच हर कोई इसे न सिर्फ भरपूर आँखों से निहारना चाहता है बल्कि मन होता है क़ि खुद भी इस रंगत में रंगीन होकर मदमस्त नाचूं और गायूं । लेकिन कैसे यही एक यक्ष प्रश्न है?
इस यक्ष प्रश्न का जबाब अगर कभी ना मिले तो देहरादून जिले के टोंस (तमसा) व यमुना नदी के बीच घिरे जन जातीय क्षेत्र में चले आये विशेषकर तब जब यहाँ कोई लोकोत्सव मनाये जा रहे हों। यहाँ की दीवाली इन्हीं लोकोत्सव में एक विचित्र व अनोखी इसलिए है कि क्योंकि यह पूरे देश में मनाई जाने वाली दीवाली से ठीक एक माह बाद एक हफ्ते तक मनाई जाती है।
इसके पीछे तर्क यहाँ के जनमानस तर्क देते हैं क़ि पुरुषोत्तम राम के राजतिलक की जानकारी यहाँ एक माह बाद पहुंची इसलिए यह एक माह बाद मनाई जाती है। दूसरा तर्क यह क़ि यहाँ खेती का काम देरी से निबटने के कारण यहाँ के जनमानस ने इस उत्सव को देरी से मनाया। वहीँ तीसरा तर्क अब यह भी जोड़ा जाता है कि वैराट गढ़ के दानवी राजा शामुशाह के अत्याचारों से मुक्ति मिलने पर ही यहाँ के जनमानस ने इस प्रकासोत्सव को देरी से मनाया। लेकिन इसमें किसी ने यह बात नहीं बतायी क़ि अमावस्या की तिथि से शुरू होने वाली इस दीवाली के प्रथम दिवस की रात्रि को क्यों मातम दिवस के रूप में मनाया जाता है। ब्याठै/होला(चीड़ देवदार/भेमल इत्यादि की लकड़ियों से निर्मित प्रकाश पुंज)
अगली सुबह प्रातः 4 बजे गॉव की सरहद के बाहर ढोल के साथ क्यों जलाए जाते हैं खुशियां क्यों मनायी जाती है। भिरुडी पर अखरोट क्यों फेंके जाते हैं? हाथी व हिरन क्यों बनाये जाते हैं?
इन सबका जबाब मैं आपको दूंगा अगर आप उत्सुक हैं तो कृपया मुझे लिखें क़ि आपकी उत्सुकता यह जानने की है। मैं अगली पोस्ट में अपने 10 बर्ष के शोध का बखान करूँगा तब तक के लिए होलड़ी होला होला… होले की बूटी….।
फकीरा सिंह चौहान का गाया व चतर सिंह चौहान द्वारा रचित एक गीत मुझे बेहद हृदय स्पर्शी है जिसमें जौनसार के सभी लोक त्यौहारों का ब्यौरा था और एक पत्नी अपने पति चन्दरु से मायके जाने की जिद में कहती है – यारा चन्दीरु ढाया आइगो नेडा यारा चन्दीरु…यारा चन्दीरु जौनसारी दीवाड़ी यारा चन्दीरु…!
आज वही दीवाली सचमुच हृदय को स्पर्श कर देने वाला जबरदस्त आभास अनुभूति है। आज वे माँ बहनें बहुएं सब श्रृंगारित होकर जब दीवाली के जश्न में शिरकत करते हुए पंचायती आँगन की फटालों को में अपने गुदगुदे मुलायम पैरों की थाप में नृत्य करती हैं तो मानों सोई हुई फटालें जाग गयी हों। प्रफुल्लित मन से वह यह मातृस्पर्श पाकर गदगद हो जाती हैं। नृत्य और लोकगीतों के बोलों में अपनी खुद बिसराते जौनसार बावर के पंचायती आँगन मानो अपने आप के सौन्दर्य संवरने पर गर्व का अनुभव कर रहे हों।
यही विधा इस जनजातीय क्षेत्र को अतुलनीय बनाये हुए है लेकिन हमें चेतना भी होगा क्योंकि तेजी से लोक आवरण और आभूषण गायब हो रहे हैं जिन्हें लंबे समय तक संजोये रखना अब हमारी जिम्मेदारी है।
पिछली पोस्ट में मेरे द्वारा दीवाली एक माह पीछे क्यों होती है उसके वे अपुष्ट कारण आपकी जानकारी में रखे थे अब मैं अपने ब्यक्तिगत शोध के आधार पर दीवाली के उस हर अंश व रंग को आपके सम्मुख रखने की कोशिश कर रहा हूँ जो प्रामाणिक हैं।
दीवाली एक माह देरी से शुरू होने का मूल कारण लाखामण्डल के यदुवंशी राजा जालंधर नरेश व उनकी बेटी बिउंरी (भिरुडी) से जुड़े उन ऐतिहासिक दस्तावेजों व लोकगीतों में वर्णित इतिहास है जिस पर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया।
कालांतर में लाखामण्डल की रानी ईश्वरा के पति जालंधर नरेश (वर्तमान का हिमाचल) व उनकी पुत्री को दीवाली पर उस समय हाथी से गिरकर मौत हो गयी जब वे दीवाली के लिए तमसा और यमुना के मध्य बसे रानी ईश्वरा के राजमहल लाखामण्डल लौट रहे थे।
कहा तो यह भी जाता है कि यह प्राचीन राजा जब हिरण का शिकार करता हुआ आदिवासी राजा के इलाके में घुस गया तब इसे अतिक्रमणकारी राजा समझकर आदिवासी राजा ने न सिर्फ परास्त किया बल्कि बेहद जलील भी किया । जिससे क्षुब्ध राजा ने हाथी से कूदकर आत्महत्या कर ली। यह खबर सुनकर उसकी बेटी भिरुडी ने भी अपनी देह त्याग दी।
यह खबर लेकर जब ईश्वरा का दास जाति का चमार जब अपने राज्य लौटा तो ईश्वरा विलाप करती हुई बोलि- लोगुं की ध्यान आई मेरी भिरुडी ना आई….
तब पूरे राज्य में एक माह का शोक घोषित किया गया एक माह बाद घुमडी बैठी और राज्य के सयानाओं ने रानी को इस हादसे से निकालने के लिए एक युक्ति निकाली। उन्होंने दीवाली के एक माह बाद अमावस्या की तिथि मातम की तिथि घोषित की। अगली सुबह जश्न की। शांय रानी की पुत्री बिउंरी के लिए भिरुडी आयोजित की जिसमें प्रसाद के रूप में अखरोट बांटे जाते हैं जिन्हें महासू का प्रसाद कहकर बांटा जाता रहा है। राजा से जोड़कर उनकी यादों को संजोने के लिए काल्पनिक हाथी व स्वर्ण हिरण बनाया जाता है फिर एक हफ्ते तक पूरा क्षेत्र दीवाली के जश्न में डूबा रहता है ।
कोरुवा में पहली बार मैंने दीवाली में आदिवासी राजा व हिरण पर बैठा प्राचीन राजा का युद्ध देखा तो मेरे सारे प्रमाण पुष्ट हो गए। वहीँ ठाणा गॉव का हाथी इस बात का धोतक है।
वहीँ भिरुडी को स्याणा की बेटी बताना सिर्फ कल्पना मात्र है क्योंकि एक स्याणा की बेटी के लिए पूरे क्षेत्र में एक माह का मातम नहीं मनाया जा सकता यह तय है।
लेकिन तब से लेकर अब तक यह सुखद है कि किसी भी घर में अगर ऐसी घटनाएं होती हैं तो गॉव के सब लोग पहले उसी के घर त्यौहार खोलने को इकठ्ठा होते हैं।
जौनसार की दीवाली के रोचक खेलुटे !
खेलुटे यानि ऐसे नाट्य कर्मी जो अपनी अभिनय कला से आपका भरपूर मनोरंजन कर सकें।जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में इन नाट्य कर्मियों को “खेलुटे” नाम से जाना जाता है। खेलुटे यानि नाट्य कर्मी कौन बने यह तय नहीं है क्योंकि जिसमें कला है वही कलाकार। उनसे कोई भी बीच में कूदकर संवाद कर सकता है। जौनसार बावर में खेलुटे मैंने जाने कितने गॉव में दीवाली पर अपनी कला का प्रदर्शन करते देखे हैं लेकिन हाजा-दसेउ व चिल्हाड़ के अर्जुनदेव एंड पार्टी का कोई तोड़ नहीं। हाजा दसेउ के एक बुजुर्ग जो मुखौटा भी लगाते थे का वास्तव में इस कला में कोई सानी नहीं हो सकता।
ठाणा गॉव के खेलुटे भी हंसने हंसाने में बेहद माहिर हैं वहीँ कोरुवा गॉव में बने खेलुटे शब्दों में भले ही पीछे रहे हों लेकिन अपने कृत्यों से लोगों को केंद्रित करने में सक्षम रहते हैं। इन खेळूटों के मुंह से कब कौन सा अभद्र शब्द निकल जाए कोई नहीं जानता। लेकिन इन्हें हर माँ बहन बहु रंगमंचीय कला का प्रतीक समझ हृदय से माफ़ कर देती हैं ।
टीवी शो कपिल की अगर बात कर दें तो यह तय है क़ि इन खेळूटों के आगे उस शो के सभी आर्टिस्ट आकर खड़े कर दो तो ये लोग इनके आगे ज्यादादेर नहीं टिक पाएंगे क्योंकि खेलुटे कब किसकी कहाँ पैंट उतार दें पता नहीं चलता। खेलुटे तब अपनी कला कौशल का प्रदर्शन करने उतरते हैं जब रात्रि को नृत्य करते करते ग्रामीण थोड़ा सा थकान महसूस करें या फिर हाथी या हिरण नृत्य करवाने वाले काँधे तक जाएँ।
खेलुटे क्यों बनाये जाते रहे हैं इस पर मेरा मत है कि यह खेलुटे तब ही मनोरंजन करने आँगन में उतरते हैं जब रात्रि प्रहऱ का अंतिम चरण हो और लोगों की आँखों में नींद की खुमारी तैरने लगती है। ऐसे में जब गले में दमाऊ टाँगे खेलुटे अपने मनोरंजन को लेकर आते है तब नींद स्वत्: ही खुल जाती है। ये लोग कुछ भी बोल देते हैं भले ही बावर में मैंने एक परंपरा देखी है क़ि सुबह यही खेलुटे अपने बदन पर राख़ मलकर घर घर जाकर सबसे क्षमा याचना करते हैं क़ि अगर भूल से कोई अपशब्द माँ बहनों बहुओं की शान में गलत निकल गया हो तो वे उन्हें माफ़ करें। माँ बहने बहुएं सहृदयी बन अखरोट फैंककर इन्हें माफ़ भी कर देती है। लोभ संस्कृति का यह अनूठा रूप कालान्तर से चलता आ रहा है जिसे आज हम खुद को हंसाने के लिए कपिल शो जैसे शो टीवी पर देखते हैं।
फिलहाल अपनी लोकसंस्कृति की बानगी करने वाला यह जनजातीय क्षेत्र आज भी अपनी लोक परंपराओं सामाजिक सरकारो के लिए बेहद धनी है।
(सभी फोटो सौजन्य से मनोज इष्ट वाल )