अफसरों का तो ‘चारागाह’ है ये उत्तराखंड
योगेश भट्ट
राजतंत्र में राजनेता से अधिक अफसर की विश्वसनियता और निष्ठा के मायने हैं । यदि अफसर की ही विश्वसनीयता संदिग्ध हो तो फिर सुशासन और भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन की बात भी बेमानी है। उत्तराखंड का तो दुर्भाग्य ही यह है कि बड़े अफसरों की निष्ठा शुरू से ही संदिग्ध रही है। नयी सरकार से जो थोड़ा उम्मीदें बनी भी थीं वो भी खत्म हो चुकी हैं । शीर्ष स्तर पर प्रशासनिक अराजकता चरम पर है । नीतिगत फैसलों में राज्य व जनहित नहीं बल्कि निजी हित हावी हैं।
निजी हित साधने को अफसर किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं, राजनेताओं का उन पर कोई नियंत्रण नहीं । हालिया एक फैसले में मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र डोईवाला के सरकारी अस्पताल को स्थानीय जनता के भारी विरोध के बावजूद निजी हाथों में सौंप दिया गया। जबकि तय यह था कि इस अस्पताल को आदर्श अस्पताल बनाया जाएगा। उच्चीकरण कर तमाम सुविधाओं से सम्पन्न किया जाएगा, लेकिन हुआ यह कि सरकार ने इसे बड़ी सफाई से एक निजी संस्था द्वारा चलाए जाने वाले मेडिकल कालेज, हिमालयन इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस, जौलीग्रांट को दे दिया। आमजन में यह प्रचारित किया गया है कि मेडिकल कालेज इस अस्पताल को तमाम सुविधाएं देगा और इसका कायाकल्प कर देगा।
लेकिन असलियत यह है कि इस अस्पताल पर लम्बे समय से हिमालयन की नजर टिकी थी। अब क्षेत्र के लोग को इससे लाभ हो या न हो, मगर उस संस्था को बड़ा लाभ होना तय है, जो कि आम आदमी की समझ से बाहर है। इसके आधार पर मेडिकल की कितनी सीटें बढ़ेंगी, सरकार से क्या-क्या लाभ हासिल किए जाएंगे, यह आम जनता को कभी पता भी नहीं चलेगा। बहरहाल इस फैसले को कराने में प्रदेश के शीर्ष अधिकारियों में शुमार एक अधिकारी की बड़ी भूमिका रही। इन साहब ने अपने पूरे कार्यकाल में इतनी तत्परता शायद ही किसी दूसरे मामले में दिखाई होगी, जितनी मेडिकल कालेज से जुड़े इस मसले पर दिखाई । यही नहीं अभी कुछ दिन पहले अपने अधिकारों का प्रयोग कर इसी संस्था को एक और बड़ी मदद कर डाली।
मसला यह था कि सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल कालेजों में काउंसलिंग से पहले फीस स्पष्ट करने का निर्देश दिया। हिमालयन मेडिकल कालेज, जौलीग्रांट ने फीस और सीट को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं की हुई है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चलते हिमालयन इंस्टीट्यूट को कोई दिक्कत न हो, इसके लिए काउंसलिंग से दो दिन पहले सरकार ने एक अस्थाई व्यवस्था कर डाली। बकायदा अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश की ओर से इसके लिए एक अस्थायी व्यवस्था का आदेश जारी किया। इस कदर तत्परता से जाहिर है कि यह ‘खास मेहरबानी’ का मामला है। सवाल उठता है कि यह खास मेहरबानी आखिर हुई क्यों? चर्चा है कि ‘ साहब’ का इसके पीछे एक नितांत निजी स्वार्थ है, जो उस सीट पर दाखिले से जुड़ा है जिसके लिए समान्यतौर पर मोटी रकम खर्च होती है।
यदि वास्तव में ऐसा है, तो क्या यह सुचिता और विश्वसनीयता से जुड़ा सवाल है या नहीं? क्या यह भ्रष्टाचार के दायरे में आता है या नहीं? यदि हाँ, तो फिर उत्तराखंड में भ्रष्टाचारमुक्त शासन का दावा क्यों ? सुशासन का दावा करने वाली सरकार को तो यह आंकड़ा जुटाना चाहिए कि प्रदेश में कितने बड़े अफसरों के पुत्र-पुत्रियां और पत्नियां इस तरह उपकृत हो रहे हैं। मसलन, प्रदेश में कंसल्टेंसी दे रहे हैं। प्राईवेट महाविद्यालयों में नौकरी कर रहे हैं। प्राईवेट मेडिकल कालेजों, अर्द्ध सरकारी संस्थानों और बड़ी कंपनियों में बड़े पदों पर कार्यरत हैं। बाह्य सहायतित परियोजनाओं, वर्ल्ड बैंक से जुड़ी संस्थाओं में अहम पदों पर हैं आदि आदि । एक बार सरकार इसका ही ब्योरा जुटा ले, तो तमाम रहस्यों से खुद पर्दा उठ जाएगा। दरअसल यूं ही कोई उपकृत नहीं हुआ है , हर उपकार की इस प्रदेश ने किसी न किसी रूप में कीमत चुकाई है। aकहने का तात्पर्य यह है कि जब तक अहम पदों पर बैठे अफसरों की निष्ठा राज्य के प्रति समर्पित नहीं होगी, जब तक ज़िम्मेदार पदों पर बैठे अफसर उत्तराखण्ड को चारागाह समझना बन्द नहीं करेंगे तब तक सुशासन की बात बेमानी है।