हालांकि पहली नजर में उत्तराखंड के लोग अपने आपको बनवासी कहने में शर्माते हैं । लेकिन उत्तराखंड के पिछले 150 वर्ष के संघर्ष का इतिहास अगर हम देखते हैं ,तो जंगल के सवाल पर ही उत्तराखंड का जनमानस हमेशा मुखर रहा है । उत्तराखंड ग्रामीण समाज की आर्थिकी का अंतर्संबंध जंगलों से रह है। इसमें किसी प्रकार की छेड़छाड़ से यहां का उत्तराखंडी समाज हमेशा से उद्वेलित होता रहा है। जंगल के सवाल को सिर्फ वन महकमे तक सीमित कर नहीं देखना चाहिए, उसके सामाजिक आर्थिक पहलुओं की भी गहरी पड़ताल की जानी आवश्यक है।
प्राचीन समय से वनों को ग्रामीणों ने अपनी पारंपरिक उपज के रूप में ही पाला। इसलिए यहां यह बता पाना भी कठिन होता है कहां तक खेत हैं और कहां से जंगल शुरू हैं। इसलिए यहां जंगलों की रक्षा की परंपरा ,सरकार के बजाय देवताओं के हवाले भी रही है..।
भारत में रेल के विस्तार के साथ जंगलों के कटान का लोभ अंग्रेजों के सर चढ़ा, उसी लोभ के वशीभूत होकर अंग्रेजों ने पूरे भारत में जंगलों की पैमाइश और अधिकार के लिए ब्रिटिश शासन के मात्र 6 वर्ष के भीतर 1864 मे भारत में वन विभाग की स्थापना कर दी। वन सर्वेयर के रूप में 1864 में ही वेबर की नियुक्ति किया गया । वनों की पैमाइश के बाद 1868 में उत्तराखंड में जंगल वन विभाग के हवाले कर दिए गए, उत्तराखंड के ग्रामीण समाज जो कि पशुपालक और कृषि समाज था। जंगल पर निर्भरता के सवाल को नजरअंदाज किया गया। उसके परंपरागत हक हकूक विदा हो गए। अभी तक जो संरक्षित वन क्षेत्र गांव के परंपरागत हकों के लिए आरक्षित था। वहां से ग्रामीणों को हक से बेदखल कर दिया गया। इन जंगलों से व्यापार प्रारंभ हो गया। दुर्भाग्य हुआ जिन जंगलों से ग्रामीणों को बेदखल किया गया उनके कटान और उसके बाद ढुलान के लिए इन्हीं ग्रामीणों से बेगार और बर्दायाश का एक नया कर आरम्भ हुआ। सरकार को वनों से भारी कमाई होने लगी।
वनों के व्यवस्थापन के लिए 1867,1878 के वन अधिनियम से राज्य की जनता के अधिकार बहुत सीमित कर दिए गए। ग्रामीणों का पुश्तैनी जंगलों में प्रवेश प्रतिबंधित हो गया। वर्ष 1893 की अधि- घोषणा के बाद उत्तराखंड के ग्रामीण समाज के वनों के अधिकार लगभग समाप्त हो गए । रामस्वरूप गांव में पशुपालन असंभव सा हो गया। वन तथा वन्य जन्तु को नुकसान से बचाने के लिए 1888 में लाइसेंस कानून सख्ती से लागू किया गया। आमतौर पर शांत रहने वाला ब्रिटिश उत्तराखंड जंगल के सवाल पर अंदर-अंदर सुलगने लगा ।
उधर टिहरी रियासत को भी जंगलात का मोह जाग गया था। वहां 1885 में वन महकमे की स्थापना हुई और राजा प्रताप शाह के साले मियां हरिसिंह पहले कंजरवेटर नियुक्त हुए, टिहरी रियासत में वनों के कानून ब्रिटिश गढ़वाल से अधिक दमनकारी थे, साथ ही रियासत के कर्मचारियों का जनता के प्रति व्यवहार बहुत ही कठोर था। वहां पशु पर पिछड़ी कर तथा रास्तों पर पथकर भी चलन में आया। जिससे टिहरी में खासकर रंवाई क्षेत्र में जंगल के सवाल पर बहुत विद्रोह (ढंडक) हुए , उसकी चर्चा हम अलग से करेंगे ।
ब्रिटिश उत्तराखंड में जंगल के सवाल पर अल्मोड़ा की जनता शुरू से ही लामबंद होने लगी थी। वर्ष 1903 में जब लॉर्ड कर्जन अल्मोड़ा आए नागरिकों के एक शिष्टमंडल ने बेगार और जंगल के अधिकारों के सवाल पर एक ज्ञापन लॉर्ड कर्जन को दिया। जंगल कटान के बाद ढूलान का कार्य भी जबरदस्ती स्थानीय नागरिकों से लिया जाता था। जो कुमायूं में बेगार के नाम से तो गढ़वाल में बर्दायाश के नाम से ज्यादा प्रचलित हुआ। बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही जंगल और बेगार के सवाल में उत्तराखंड सुलगने लगा। वर्ष1907 में जंगल के अधिकारों को लेकर अल्मोड़ा में एक बड़ी सभा हुई। अंग्रेजों के हठधर्मी रवैये के कारण धीरे-धीरे जंगलों का आंदोलन हिंसक होने लगा। जंगलों में आग भी लगाए जाने लगी। जब यह आंदोलन रामनगर ,बैवपडाव कोटद्वार भाबर ,चोरगलिया क्षेत्र में फैला नागरिक चेतना और सभाओं के विपरीत यहां जंगलों को आग के हवाले किया जाने लगा। सोमेश्वर, द्वाराहाट ,बेरीनाग कुमाऊं के कस्बों में यह आंदोलन बेगार और जंगलात दोनों के सवाल पर संयुक्त था। ऊपरी गढ़वाल में भी इस आंदोलन ने जोर पकड़ा नंदप्रयाग ककोड़ाखाल लैंसडाउन आदि स्थानों पर कुली बर्दायाश और जंगल के सवाल संयुक्त होकर आंदोलन में परिवर्तित हुए। ठीक उसी वक्त देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था। अंग्रेज एक रणनीति के तौर पर इसे बन आंदोलन कहने से बच रहे थे। असहयोग आंदोलन कह रहे थे। जबकि आंदोलन की भावना स्थानीय मुद्दे बेकार और जन रात के सवाल पर केंद्रित थी।
बागेश्वर जनवरी 1921 कुली बेगार की सफलता के बाद ,बद्री पांडे ने जंगलात के सवाल पर आंदोलन की घोषणा की। लोगों से आह्वाहन किया कि वह जंगलों में कटान ,ढुलान और लीसा निकालने जैसे सारे व्यवसायिक कार्यों से खुद को अलग कर लें। जंगल के सवाल पर क्षेत्र के सयाणा ,थोकदार, भूतपूर्व सैनिक सरकारी कर्मचारी और छात्र सब सम्मिलित थे। कुमायूं में बद्रीदत्त पांडे ,हरगोबिंद पंत गोविंद बल्लभ पंत, राम सिंह पांगती , बद्री लाल शाह ठुलघरिया ,चिरंजी लाल ,गुरूदास साह ,लक्षमी दत्त शर्मा, मोहन सिंह मेहता , हरिदत्त बिष्ट आदि अधिक सक्रिय थे। तो गढ़वाल में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, भैरव दत्त धूलिया भोला दत्त चंदोला, जीवानंद बडोला, भोला दत्त डबराल ,केशर सिंह आदि अधिक सक्रिय थे ।
वर्ष 1922 के बाद जब देश में स्वतंत्रता का आंदोलन थम सा गया था। तो भी उत्तराखंड जंगल के सवाल पर सुलग रहा था। ब्रिटिश उत्तराखंड में 2.46 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र आग के हवाले कर दिए गए। इसमें सबसे बड़ा क्षेत्र चोरगलिया की तराई था। कुल 819 वन अपराध पंजीकृत किए गए जिसमें अल्मोड़ा जनपद में ही 549 व्यक्तियों को दंडित किया गया सोमेश्वर में दुर्गा देवी को जंगल में आग लगाने के आरोप में एक माह की सजा हुई। वर्ष 1921 के साथ जब सर्वाधिक वन अग्नि की घटनाएं हुई तब गर्मी बहुत थी जंगलों में दुर्घटना से लगी आग लगी की घटनाएं आंदोलनकारियों के सिर मढ दी गईं । इस सब से सरकार पर व्यापक दबाव बना।
देश में जंगलों के कानून की बुनियाद वन अधिनियम 1926 उत्तराखंड के संघर्षों के परिणाम से ही अस्तित्व में आया। ब्रिटिश हुकूमत ने जंगलों में सीमित मात्रा में ही सही ग्रामीणों के हक हकूक बहाल किए, वनपंचायतों की व्यवस्था भी अस्तित्व में आई। कुमाऊं कमिश्नर डाई बिल तथा गढ़वाल डिप्टी कमिश्नर मैसन जंगलात के इन आंदोलनों से बहुत विचलित हुए। उनकी संस्तुति पर ही सर्वेयर जोध सिंह नेगी पट्टी असवास्यूं को पैमाइश करने के काम तथा वन सुधार कमेटी में लाया गया। उनके सुझाव पर ही 1926 के वन अधिनियम में उत्तराखंड के नागरिकों को फिर से जंगलात में सीमित अधिकार प्राप्त हए।
आजादी के बाद जंगलों की खरीद-फरोख्त फिर तेज हुई जंगल का सवाल उत्तराखंड के समाज का मूल सवाल बना रहा , जंगलों की इस मनमानी के खिलाफ वर्ष1967 -68 में कुमाऊं और गढ़वाल दोनों जगह कमस्टर ने बड़े आंदोलन शुरू की किए , जो कालांतर में सर्वोदय आंदोलन में तब्दील होकर ”चिपको आन्दोलन” के रूप में बदल गया। वर्ष 1980 के वन अधिनियम फिर वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से वन पंचायतों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाना और अब वर्ष 2006 में फिर सरकार जंगल में निवास कर रहे गुर्जर व आदिवासियों के विरुद्ध नियम बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की। वर्ष 2017 के कानून संशोधन से वन्य उत्पादों को पुनर्परिभाषित किया इन सब कानून के द्वारा उत्तराखंड का आम आदमी और ग्रामीण जंगल से दूर होता गया जिस कारण जंगलों की नीति के खिलाफ आम उत्तराखंड के ग्रामवासी के भीतर असंतोष का भाव इसे सरकार को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सुलझाना चाहिए। जंगल के सवाल उत्तराखंड के ग्रामीण समाज को लगातार उद्वेलित करता रहा है । टिहरी रियासत में जंगलों के विद्रोह का और व्यापक इतिहास है जिस पर हम अलग से बात करेंगे।