उत्तराखंड: जंगल के सवाल
इतिहास के आईने में उत्तराखंड के जंगल
प्रमोद शाह
हालांकि पहली नजर में उत्तराखंड के लोग अपने आपको बनवासी कहने में शर्माते हैं । लेकिन उत्तराखंड के पिछले 150 वर्ष के संघर्ष का इतिहास अगर हम देखते हैं ,तो जंगल के सवाल पर ही उत्तराखंड का जनमानस हमेशा मुखर रहा है । उत्तराखंड ग्रामीण समाज की आर्थिकी का अंतर्संबंध जंगलों से रह है। इसमें किसी प्रकार की छेड़छाड़ से यहां का उत्तराखंडी समाज हमेशा से उद्वेलित होता रहा है। जंगल के सवाल को सिर्फ वन महकमे तक सीमित कर नहीं देखना चाहिए, उसके सामाजिक आर्थिक पहलुओं की भी गहरी पड़ताल की जानी आवश्यक है।
प्राचीन समय से वनों को ग्रामीणों ने अपनी पारंपरिक उपज के रूप में ही पाला। इसलिए यहां यह बता पाना भी कठिन होता है कहां तक खेत हैं और कहां से जंगल शुरू हैं। इसलिए यहां जंगलों की रक्षा की परंपरा ,सरकार के बजाय देवताओं के हवाले भी रही है..।
भारत में रेल के विस्तार के साथ जंगलों के कटान का लोभ अंग्रेजों के सर चढ़ा, उसी लोभ के वशीभूत होकर अंग्रेजों ने पूरे भारत में जंगलों की पैमाइश और अधिकार के लिए ब्रिटिश शासन के मात्र 6 वर्ष के भीतर 1864 मे भारत में वन विभाग की स्थापना कर दी। वन सर्वेयर के रूप में 1864 में ही वेबर की नियुक्ति किया गया ।
वनों की पैमाइश के बाद 1868 में उत्तराखंड में जंगल वन विभाग के हवाले कर दिए गए, उत्तराखंड के ग्रामीण समाज जो कि पशुपालक और कृषि समाज था। जंगल पर निर्भरता के सवाल को नजरअंदाज किया गया। उसके परंपरागत हक हकूक विदा हो गए। अभी तक जो संरक्षित वन क्षेत्र गांव के परंपरागत हकों के लिए आरक्षित था। वहां से ग्रामीणों को हक से बेदखल कर दिया गया। इन जंगलों से व्यापार प्रारंभ हो गया। दुर्भाग्य हुआ जिन जंगलों से ग्रामीणों को बेदखल किया गया उनके कटान और उसके बाद ढुलान के लिए इन्हीं ग्रामीणों से बेगार और बर्दायाश का एक नया कर आरम्भ हुआ। सरकार को वनों से भारी कमाई होने लगी।
वनों की पैमाइश के बाद 1868 में उत्तराखंड में जंगल वन विभाग के हवाले कर दिए गए, उत्तराखंड के ग्रामीण समाज जो कि पशुपालक और कृषि समाज था। जंगल पर निर्भरता के सवाल को नजरअंदाज किया गया। उसके परंपरागत हक हकूक विदा हो गए। अभी तक जो संरक्षित वन क्षेत्र गांव के परंपरागत हकों के लिए आरक्षित था। वहां से ग्रामीणों को हक से बेदखल कर दिया गया। इन जंगलों से व्यापार प्रारंभ हो गया। दुर्भाग्य हुआ जिन जंगलों से ग्रामीणों को बेदखल किया गया उनके कटान और उसके बाद ढुलान के लिए इन्हीं ग्रामीणों से बेगार और बर्दायाश का एक नया कर आरम्भ हुआ। सरकार को वनों से भारी कमाई होने लगी।