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सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक फिलहाल प्रमोशन में आरक्षण का रास्ता साफ

नई दिल्‍ली। जब तक संविधान पीठ इस पर अंतिम फैसला नहीं देती, तब तक सरकार इसमें आरक्षण को लागू कर सकती है। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अहम फैसला सुनाते हुए केंद्र सरकार से कही। वहीँ इस मामले में अनुच्छेद 145 (3) यह अनुच्छेद कहता है कि जब कभी कानून या संविधान की व्याख्या का महत्वपूर्ण प्रश्न उठेगा तो उस पर कम से कम पांच जजों की पीठ सुनवाई करेगी।

वहीँ सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह ने कोर्ट से कहा कि कमर्चारियों को पदोन्‍नति देना सरकार की जिम्मेदारी है। पदोन्‍नति में आरक्षण को लेकर विभिन्न हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण कई विभागों में सरकारी कर्मचारियों के पदोन्‍नति के मामले लटके हुए हैं। कोर्ट ने अहम फैसला देते हुए अन्य सभी मुकदमों को एक साथ कर दिया है, अब इनकी सुनवाई संविधान पीठ करेगी।

गौरतलब हो कि कार्मिक विभाग ने 30 सितंबर 2016 को एक आदेश निकालकर सभी तरह की पदोन्नति पर रोक लगा दी थी, तब से प्रमोशन को लेकर कर्मचारी प्रोन्नति के लिए भटक रहे हैं।

इससे पहले लोकजनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात कर दलितों के खिलाफ अत्याचार पर कानून के मूल प्रावधानों को बहाल करने के लिए अध्यादेश लाने की मांग की। उन्होंने समुदाय के लिए पदोन्नति में आरक्षण सुनिश्चित करने की भी मांग की।

इससे पहले एससी-एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण देने के एम नागराज के फैसले में 2006 में पांच जजों ने संशोधित संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 16(4)(ए), 16(4)(बी) और 335 को तो सही ठहराया गया था लेकिन कोर्ट ने कहा था कि एससी-एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण देने से पहले सरकार को उनके पिछड़ेपन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने होंगे। फैसले में यह भी कहा गया था कि अगर आरक्षण देना बेहद जरूरी हो है, तो उसे ध्यान रखना होगा कि यह 50 फीसद की सीमा से ज्यादा न हो, क्रीमी लेयर को समाप्त न करे तथा अनिश्चितकाल के लिए न हो। इससे कुल मिलाकर प्रशासनिक कार्यकुशलता भी प्रभावित न हो।

त्रिपुरा हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील से यह मामला सामने आया। इसमें त्रिपुरा एससी-एसटी (सेवा पोस्ट में आरक्षण) कानून, 1991 की धारा 4(2) को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इस प्रावधान के कारण सामान्य श्रेणी के लोगों को बराबरी के अधिकार से वंचित कर दिया है क्योंकि सरकार ने आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को प्रमोशन दे दिया है। यह नगराज मामले का सरासर उल्लंघन है। लेकिन राज्य सरकार ने दलील दी कि त्रिपुरा जैसे राज्य में जहां एससी-एसटी की आबादी 48 फीसद है वहां आरक्षण में 50 फीसद की सीमा (इंदिरा साहनी फैसला 1992) नहीं मानी जा सकती।

वहीँ वर्ष 2005 में ईवी चेन्नैया के फैसले में पांच जजों ने आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा एससी-एसटी में किये गये वर्गीकरण को असंवैधानिक ठहराया गया था। कोर्ट ने कहा था कि एससी-एसटी के बारे में राष्ट्रपति के आदेश पर जारी सूची में कोई छेड़छाड़ नहीं हो सकती। उसमें सिर्फ संसद ही कानून बनाकर बदलाव कर सकती है।

जस्टिस कुरियन जोसेफ व जस्टिस आर. भानुमति की दो सदस्यीय पीठ ने एससी-एसटी को प्रमोशन में आरक्षण का मामला संविधान पीठ को भेजते हुए आदेश में कहा कि ईवी चेन्नैया और एम. नागराज दोनों मामलों में एससी-एसटी के पिछड़ेपन की चर्चा हुई है। लेकिन एम नागराज का फैसला बाद में आने के बावजूद उसमें चेन्नैया के फैसले का जिक्र नहीं है। इसके अलावा इस मामले में एससी-एसटी में क्रीमीलेयर का मुद्दा भी उठा है। इसलिए मामले पर अनुच्छेद 145(3) में संविधान पीठ को विचार करना चाहिए। जस्टिस कुरियन की पीठ ने इसके लिए मामला मुख्य न्यायाधीश के सामने पेश करने का आदेश दिया था।

वहीँ इससे पहले इंद्रा साहनी के 1992 के फैसले में जिसे मंडल जजमेंट से नाम से भी जाना जाता है, कहा गया था कि एससी एसटी के मामले में क्रीमीलेयर का फंडा नहीं लागू होगा।

जबकि इस फैसले में 2016 में दो न्यायाधीशों ने एम नागराज के फैसले पर पुनर्विचार करने की मांग ठुकरा दी थी। ये फैसला कहता है कि दो जज सीधे नहीं भेज सकते संविधानपीठ को मामला भारत पेट्रोलियम मामले में 2001 में पांच जजों की संविधानपीठ ने कहा था कि दो जजों की पीठ किसी मामले को सीधे संविधानपीठ को नहीं भेज सकती। दो जजों की पीठ पहले मामले को तीन जजों को भेजेगी और फिर तीन जजों की पीठ मामले को पांच जजों की संविधान पीठ को भेज सकती है।

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