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उत्तराखंडियों के पैसे पर अफसरों-विधायकों की यूरोप की अय्याश उड़ान!

  • मेट्रो के नाम पर यात्रा में  कांग्रेसी भी चुप और भाजपाई भी चुप!
  • यात्राओं के बाद उसका प्रतिफल उसके परिणाम पर सब खामोश !
  • इतने निरंकुश कि एक अधिकारी साल में कर लेता है तीन-तीन विदेश दौरे!

वेद विलास उनियाल 

DEHRADUN : उत्तराखंड के कुछ  विधायक और अफसर उत्तराखंड को अपने बूटों से रौदते हुए विदेश की यात्रा पर गए हैं। इस बार यह टोला  उत्तराखंड में मेट्रों ट्रेन किस तरह चलाई जाए या उसका संचालन किस तरह हो इसका अध्ययन करने गया है। एक तरह से मेट्रो का काम सीखना एक बहाना भर है, यह अय्याश यात्राओं की वही श्रंखंला की एक कडी है जिसे यह राज्य 18 साल से देखता आ रहा है। उत्तराखंड ने जिस तरह अपने लुटते पिटते देखा है उसमें जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों की आए दिन विदेश की यात्राएं हैं। कहा नहीं जा सकता है कि इन यात्राओं से इस राज्य का कितना भला हुआ लेकिन करोडों -अरबो रुपया गरीब जनता ने इन यात्राओं के लिए चुकाया है।  अब तो शायद विश्व का कोई कोना नहीं बचा जहां उत्तराखँड के नाम पर अय्याश यात्राएं न हुई हो। जब तक कुछ नेता और अधिकारियों का खटोला उडान भर लेता है। और यह यात्रा दो चार दिन की नहीं होती है  हफ्ते हफ्ते दस दिन गरीब जनता के पैसे पर अय्याशी की जाती है। 

इसे अय्याशी नाम देना इसलिए उचित है कि आज तक ऐसी यात्राओं के बाद उसका प्रतिफल उसके परिणाम पर न जनता को स्पष्टीकरण देने की कोशिश की गई न राज्य में इसका फलाभूत होते देखा गया।  इतनी यात्राओं  के बाद अगर उसका कोई सार्थक नतीजा निकलता तो वह जमीन पर साकार होते हुए दिखना चाहेए था। लैकिन किसी भी यात्रा से उत्तराखंड को कोई फायदा पहुंचा हो अब तक के किसी भी शासन में इसका परिणाम नहीं दिखा।   उत्तराखंड के हालात इतने निरंकुश हैं कि एक अधिकारी साल में तीन तीन दौरे करके आता है। यह केवल राज्य का लुटता पैसा है।

इस बार  मेट्रो के नाम पर जो अय्याश यात्रा हुई है उसमें  कांग्रेसी भी चुप और भाजपाई भी चुप है।  मेट्रो का काम सीखने के नाम पर पूरी बेशर्मी के साथ कई विधायक यूरोप के कई देशों की यात्रा पर हैं। 40 हजार करोड के कर्ज में डूबे उत्तराखंड की तबाहीऔरबर्बादी केप्रतीक है ऐसे दौरे।घोर अय्याशी के नमूने हैं ये दौरे।ताकत और पद का भद्दा, गंदा और बेशर्मी से भरा इस्तेमाल है ये। मेट्रो टेन  जब आए तब आए लेकिन विधायक और अधिकारियों ने विदेश की सैर का अअच्छा बहाना तलाश लिया। इन विधायकों में तकनीकी ज्ञान तो दूर विज्ञान में स्नातकोत्तर किए हुए भी दो तीन ही हैं। इस रेल के तकनीकी ज्ञान संचालन के लिए जो अपेक्षाएं हैं उसमें विधायक अधिकारियों की इसके लिए शिक्षा दिक्षा की कहीं कोई जरूरत नहीं।  जो बाहरी कंपनियां यहां इस सेवा को देने आई हैं  उनके हमेशा तकनीकी  विशेषज्ञ या प्रबंधक भारत के दौरे पर आते रहे हैं। कभी नेताओ का जमघट नहीं आया। लेकिन इस रेल के लिए एक छोटे गरीबी से जूझ रहे राज्य के विधायकों का विदेश भ्रमण के लिए जाना राज्य की दशा पर एक बडा सवाल है। जिस राज्य के लिए 48 लोग शहीद हुए हों वहां इन विधायकों का आचरणशर्मनाक हैं।सीधा आशय यही है कि एक बार चुन लिए जाने के बाद चाहे वो किसी भी दल के हो जनप्रतिनिधियों को आम लोगों की भावना का किसी भी तरह लिहाज नहीं रहता है। सत्ता चला रही पार्टी को रह रह कर कोसने वाले विरोधी भी आंख चुराकर किस तरह लूट खसोट में शामिल हो जाते हैं  उसे इन यात्राओं के संदर्भ में देखा जाना चाहिए जिसमें सब दलों के जनप्रतिनिधियों की भागेदारी होती है।

देश स्वाधीनता दिवस की तैयारी कर रहा है। लेकिनआजाद भारत के ये चुने जनप्रतिनिधिलोकलाजशर्म हयाछो़ड़कर किस तरह गरीब जनता परडाकाडालते हैं।ये वो नेता हैंजो चिल्लाचिल्लाकर पैसे लेकरविदेश भाग गएलोगों परटिप्पणी करते हैं। लेकिन कलाकारी हाथों से खुद भी देश और राज्य का पैसा लूट जाते हैं।विधायकों की यह यात्रा केवल लूट और लूट है। इसके सिवा कुछ नहीं।

इस यात्रा से नरेंद्रमोदीके लोगों को दिक्कतन राहुल गांधीके लोगों को दिककत।लेकिनसर्वनाश इस असहाय राज्य का।यहां न काग्रेस राज्य अध्यक्ष  प्रीतमसिंह प्रेसकांफ्रेस कर आलोचना करने वालेन  भाजपा राज्य  अजय भट्ट कुछ कहने वाले किक्यों करोडों रुपयों की अय्याशी, इस अभागे राज्य में। वास्तव में एक थैली के चट्टे बट्टे ये विधायक। कांग्रेस भाजपा के अलग अलगबैनर दिखाने के। अय्याशी और लूट में एक साथ सफर।तब किसी को किसी से दिक्कत नहीं दूरी नहीं। विचारो का अंतर नहीं।सबकाएक ही विचारकैसे मिलकर निचोडेइस अभागे राज्य को।अफसोस ।  उत्तराखंड के विकास उत्थान के नाम पर अब तक किसी भी यात्रा के बाद उसका ब्योरा नहीं दिया गया कि राज्य को उन यात्राओं से क्या फायदा हुआ या किस दृष्टिकोण में ये यात्राएं की गई।  हालात ये हैं कि एक बार नारायण दत्त तिवारी की सरकार के समय जब जत्थे जत्थे समय समय पर विदेश यात्राओं की जुगत भिडाने लगे तो तिवारी ने तब  किशोर  उपाध्याय को बुलाकर कहा कि क्यों न 70 विधायकों को एक साथ विदेश में भेज दिया जाए।

अजब यह था कि लंदन ओलपिक में जहां  उत्तराखंड  की कहीं भूमिका नहीं थी  उत्तराखंड एक दल वहां खेल परंपरा सीखने के नाम पर गया।  इनका मैदानी खेलकूद से कोई लेना देना नहीं था। उधर खेल चलते रहे ये टेम्स नदी के किनारे घूमते फिरते रहे।  लंदन के खेल उत्सव में जिसमें  राज्य का केवल एक खिलाडी भाग ले रहा था उसमें इतने बडे दल बल का जाना हैरत था उस दल के किसी भी सदस्य को इस खिलाडी के बारे में भी कुछ पता नहीं था।  वह किस खेल में है और खेल के किस दल के साथ है इस बारे में कोई जानकारी किसी सदस्य को नहीं थी।  उगांडा गिनी  सूरीनाम जैसे कई देशों में  भी पर्यटन विकास के नाम पर उत्तराखंड के जनप्रतिनिधियों की अधिकारियों की सैर होती रही।  पर्यटन शिक्षा , जन नीति ,  उद्मम  तमाम क्षेत्रों में उत्तराखंड कैसे विकास करे या आगे बढे इसकी शिक्षा दिक्षा लेने के लिए लंबी उडाने भरते रहे।  राज्य की हालात इससे बजाय सुधरने के और चरमराए। राज्य का करोडों रुपए का बजट इन फिजूल और अय्याशी की यात्राओं के के नाम पर हुआ।

बताइये ईंग्लैड जर्मनी जाकर  जनप्रतिनिधि  मेट्रो के बारे में क्या सीखेगे। सीखने की इच्छा थी तो दिल्ली की मेट्रो ढंग से देख कर आ जाते । दिल्ली मेट्रो का संचालन काफी कुछ बता देती है। दुनिया के कई छोटे कम विकसित देशों में भी मेटो आई है लेकिन किसी भी देश के जनप्रतिनिधियों ने इस तरह पैसा नहीं उडाया। यहां तक कि देश के जिन राज्यों में इस योजना को अमल में लाया जा रहा है उन राज्यों वि भी ऐसे दल बल विदेशोंमें सीखने नहीं गए। मेट्रों का किस्सा तो सामने आया है  कोई हर्ज नहीं कि मधुमक्खी कैसे पाले यह सीखने के लिए भी उडान भरी गई हो। विदेश यात्राओं के नाम पर जिस तरह अनाप शनाप पैसा इस राज्य में बर्बाद हुआ है उसकी मिसाल कोई राज्य नहीं है।  उत्तराखंड ने बेशर्मी के साथ सबको पीछे छोडा है।  यहां तक कि  सरकारी पैसे पर पत्नियों को भी यात्राए करवाई गई है। 

हिमाचल राज्य बनने के बाद  वहां पहले मुख्यमंत्री डा परमार ने बहुत गंभीरता से उन पहलुओं पर सोचा जिसने राज्य को आगे बढायाजा सकता है।  गंभीर चिंतन के बाद उन्होने महसूस किया कि प्रदेश को गांव से शहरों का विकास की अवधारणा पर आगे बढाना है और दूसरा मितव्यिता पर सबसे ज्यादा ध्यान देना है । ड परमार ने मितव्यतितता और सादगी को सबसे जरूरी मानते हुए  इस आचरण को अपनाया। वह बहुत सादगी से जीवन यापन करते थे।  उनके निधन के समय उनके बैंक में कुछ हजार रुपए ही थे।  यह आज के जनप्रतिनिधियों से तो संभव नहीं   लकिन उनके जीवन से थाह ली जा सकती है कि हिमाचल के लिए वह कितने प्रतिबद्ध थे । इन्ही मूल्यों पर चलकर उन्होंने हिमाचल प्रदेश की रूपरेखा सामने रखी। प्रदेश अपनी संपदा और क्षमता पर आगे बढता गया। वहां प्रदेश को उर्जा प्रदेश, पर्यटन प्रदेश  आयुष प्रदेश जल प्रदेश कहलाने के ढोंग नहीं हुए। बल्कि कृषि बागवानी ग्रामीण पयर्टन को आधार बनाकर ठोस जमीनी काम हुआ।

हमारे जनप्रतिनिधियों अधिकारियों को लंदन  बर्लिन  मांटियल  मेड्रिट जाने की जरूरत नही थी बगल के शिमला नहान में जाकर कुछ सीख समझ लेते इतना काफी होता।  रज्य बनने के बाद  देश के यह उन कुछ  राज्यों में हैं जहां  नौकरशाहों और जनप्रतिनिधियों ने रौंदते हुए राज्य के पैसे पर चूना लगाया है। इनकी यात्राओं के उद्देश्य और उसके परिणाम पर हमारे पास कही कोई रिपोर्ट नहीं। उत्तराखंड इन यात्राओं से क्या पाया क्या सीखा इसका कहीं कई ब्योरा नहीं है।  ये यात्राएं केवल अय्याशी के नाम है जिसका पैसा गरीब असहाय जनता चुकाती रही है।  इन यात्राओं का संज्ञान लेने वाला कहीं कोई नहीं।  जो मेटो सीखने के नाम पर विदेश गए हैं लौट कर उनसे इस रेल के बारे में कुछ पूछ लीजिएगा। आप पाएगे कि दिल्ली रेलवे का कुल्ली ज्यादा विस्तार से  आपको मेटो के संचालन  व्वस्था पर बताने की स्थिति में होगा।  बशक वह बेचारा अपने गांव भी तीन तीन साल मे एक बार जा पाता हो।

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