प्रदीप सती की फेस बुक वाल से साभार
भाग-1
कुछ साल पहले तक सत्ता के गालियारों में घुसपैठ करने वाला एक शक्स जब चंद वर्षों बाद ‘बड़ा पत्रकार’ बन कर प्राइवेट प्लेन लेकर स्टिंग करने निकलता हो तो उसकी ‘तरक्की’ ‘ईमानदारी’ और ‘सरोकारों’ का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। आपको याद होगा तीन बरस पहले मुख्यमंत्री हरीश रावत का जो स्टिंग उमेश कुमार ने किया था उसे अंजाम देने वे प्राइवेट प्लेन से आए थे। स्टिंग के आखिर में वे कहते हैं, ‘कैप्टन उमेश बोल रहा हूं, प्लेन लगवा दीजिए…’
उमेश कुमार नाम के यही ‘सज्जन’ इन दिनों एक बार फिर से चर्चा में हैं। उत्तराखंड के संदर्भ में सोशल मीडिया में वे खासे सक्रिय हैं। उनकी यह सक्रियता तब से ज्यादा बढ़ी है जबसे वे ‘ब्लैकमेलिंग’ के आरोप में जेल की हवा खा कर आए हैं। यूं तो उत्तराखंड की पूरी सरकार ही सवालों के घेरे में है, मगर उमेश कुमार के निशाने पर सिर्फ और सिर्फ मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत हैं। त्रिवेंद्र सिंह रावत के फैसलों पर निशाना साधते हुए उमेश कुमार खुद को इस तरह प्रचारित कर रहे हैं, मानो उनके सिवा बाकी सभी पत्रकार चुप हों। दुर्भाग्यपूर्ण हैं कि प्रदेश के अहम मुद्दों पर लिखने-बोलने और उमेश कुमार के ‘अतीत’ से अच्छी तरह वाकिफ कुछ साथी उन पर जबर्दस्त फिदा हैं, उनकी प्रशस्ति कुछ इस तरह हो रही है मानो उत्तराखंड को मसीहा मिल गया हो। ऐसा मसीहा जिसके पास पत्रकारिता के पवित्र मानदंड स्थापित करते हुए भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ने का माद्दा हो, जिसके पास प्रदेश के तमाम सरोकारों को पूरा करने की जिजीविषा हो और जो उत्तराखंड को शहीदों के सपनों का राज्य बनाने के लिए दिन-रात बेचैंन हो। ऐसा दिखाया जा रहा है मानो उत्तराखंड के सवालों को अपनी पत्रकारिता के जरिए केवल और केवल उमेश कुमार ही उठा रहे हैं, बाकी के तमाम पत्रकार साथी तो बस प्रेसनोट ही टाइप कर रहे हैं।
इससे भी आश्चर्यजनक यह है कि उमेश कुमार उत्तराखंड के सरोकारों से वास्ता रखने वाले तमाम ऐसे संघर्षशील साथियों को कभी वीडियो के जरिए, कभी पोस्टर निकाल कर तो कभी लिख-बोल कर।
ईमानदारी का ‘प्रमाण पत्र’ बांटने में लगे हैं, जो न तो किसी परिचय के मोहताज हैं और ना ही किसी प्रमाणपत्र के। सवाल उठता है कि उमेश कुमार आखिर किस हैसियत से ईमानदारी का प्रमाणपत्र बांट रहे हैं ? क्या वे कोई अथारिटी हैं ? क्या वे इमानदारी की पवित्र मूर्ति हैं ? या फिर इसके पीछे उनके मंसूबे कुछ और ही हैं। उमेश कुमार के ‘अतीत’ को देखते हुए ये सवाल बेहद अहम हैं।
उमेश कुमार ने कुछ दिन पहले अपने फेसबुक पर इस तरह के वीडियो और पोस्टर डालने शुरू किए तो उन्हें शेयर किया जाने लगा। उन वीडियो और पोस्टर में जिन लोगों का जिक्र था उनमें से दो लोगों से मेरी बात हुई। चारु तिवारी और योगेश भट्ट। चारु दा और योगेश भाई साहब किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। जिस दौर में तमाम चाटुकार अखबारों और चैलनों के मालिकों की चापलूसी कर रहे हैं, नेता, अफसरों की मेहरबानी से ऐश काट रहे हैं, उस दौर में ये दोनों अग्रज बिना किसी लोभ-लालच के उत्तराखंड के सरोकारों की पत्रकारिता कर रहे हैं। लगातार लिख-बोल रहे हैं, संघर्षों में शामिल हो रहे हैं। जब मैनें दोनों से इस बारे में बात की तो दोनों की ही बातों का सार यह था कि इस तरह की प्रवृत्ति न केवल पत्रकारिता के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए खतरनाक है। एक पत्रकार या एक्टिविस्ट की मान्यता तब है जब जनता उसके काम को रिकग्नाइज करे और सरकार उसका संज्ञान ले। उमेश कुमार इनमें से कुछ भी नहीं हैं। न तो वे जनता हैं और न ही सरकार। वे विशुद्ध रूप से अपना उल्लू सीधा करने वाले व्यक्ति हैं। ऐसे में उनका लोगों को ईमानदारी का प्रमाणपत्र बांटना बेहद शातिराना और खतरनाक खेल है, जिसके दुष्परिणाम भविष्य में इस राज्य को भुगतने पड़ेंगे। दोनों अग्रजों ने इस प्रकरण पर गंभीर चिंता जाहिर की। मुझे लगा कि इस बारे में मुझे भी कुछ बातें जरूर कहनी चाहिए।
सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हुए जब भी
Rajiv Lochan Sah , Jay Singh Rawat ,Rajiv Nayan Bahuguna, Charu Tiwari, Yogesh Bhatt, Mahipal Negi, Geeta Gairola,Indresh Maikhuri,Dinesh Juyal,Trilochan Bhatt,Jagmohan Rautela, Chandra Shekhar Kargeti,Aap KA Saklani,Ratan Singh Aswal,Gunanand Jakhmola,Akhilesh Dimri, Mohit Dimri, Bhargava Chandola
जैसे तमाम संघर्षशील साथी (सभी का नाम न लिख पाने के लिए माफी) कुछ लिखते-बोलते हैं, तो सत्ता प्रतिष्ठान को इतना तो लगता ही है कि उत्तराखंड में कुछ लोग तो हैं जिन्हें उसके नकारेपन का पता चल रहा है, मगर जब उमेश कुमार जैसे लोग सिस्टम में कोई खोट निकालते हैं तो क्या तब भी सिस्टम में बैठे हुए लोग ऐसा ही सोचते होंगे ? सिस्टम तो छोड़िए, हम ही क्या सोचते हैं ?
साफ है कि ऐसे लोगों की आड़ लेकर उमेश कुमार या तो खुद को इन्हीं की तरह उत्तराखंड का सच्चा हितैषी दिखाना चाहते हैं या फिर इन्हें भी अपनी ही तरह अवसरवादी और सत्ता से सांठ-गांठ करने वाला साबित करना चाहते हैं।
अब जब बात निकली है तो दूर तक जानी भी चाहिए। उमेश कुमार के बारे में बताया जाता है कि सोलह-सत्रह बरस पहले वे जब पहली बार पत्रकारिता करने देहरादून आए थे तो सड़क पर थे। मगर आज उमेश कुमार का ‘साम्राज्य’ देख कर ऐसा लगता है कि इतने वर्षों में तो पूरे उत्तराखंड ने भी इतनी तरक्की नहीं की होगी। राज्य बनने के वक्त उत्तराखंड का कुल बजट चार हजार करोड़ रुपये था जो आज 45 हजार करोड़ के पार जा चुका है, तब भी उत्तराखंड की इतनी समृद्धि नहीं हुई जितनी अकेले उमेश कुमार की हुई है।
कैसे ? ईमानदारी से ?
अगर ईमानदारी से इतनी तरक्की होती है तो फिर अपने आस-पास किसी दूसरे पत्रकार की तरक्की का आकलन कीजिए, जो उमेश कुमार से भी पहले से पत्रकारिता करते आ रहे हैं और हमेशा जनता के पक्ष की पत्रकारिता करते रहे हैं।
इन वर्षों में उमेश कुमार एक न्यूज एंजेंसी से समाचार चैनल के सर्वेसर्वा बन गए और दूसरी तरफ सरोकारी पत्रकारिता करने वाले तमाम पत्रकार साथी लगातार संसाधन विहीन होते रहे। अपने खुद के अनुभव की ही बात करूं तो योगेश भट्ट भाई साहब के नेतृत्व में चार बरस पहले दैनिक उत्तराखंड नाम से एक न्यूज वेबसाइट की शुरूआत हुई। बिकारू मीडिया के दौर में एक छोटा सा ही सही मगर जनपक्षीय मंच तैयार करने के मकसद से इस वेबसाइट को को-आपरेटिव माड्यूल से चलाया गया। बहुत शानदार तरीके से काम होने लगा और धीरे-धीरे दैनिक उत्तराखंड के पाठकों की संख्या बढ़ने लगी। दैनिक उत्तराखंड ने उत्तराखंड के जनपक्षीय मुद्दे उठाते हुए सरकार की गलत नीतियों पर खुल कर कलम चलाई और पाठकों का भरोसा जीता। मगर आर्थिक संसाधनों के मोर्चे पर आखिरकार हम हार गए और वेबसाइट बंद हो गई। इतने समर्पण और सदिच्छा के बावजूद हम दस-बाहर लोगों की मामूली तनख्वाह के लिए रेवेन्यू माडल नहीं बन सका। तमाम प्रयासों के बाद भी दैनिक उत्तराखंड को जिलाया नहीं जा सका। दैनिक उत्तराखंड में काम करने वाले पत्रकार साथी आज अलग-अलग संस्थानों में शानदार काम कर रहे हैं। मगर उसके बंद होने की टीस सभी के मन में है। आज भी हम फिर से खड़े होने के बारे में सोचते हैं, मगर आर्थिक संसाधनों की बात आते ही बेबस हो जाते हैं।
सोचने वाली बात ये है कि हममें ऐसी क्या कमी रही होगी कि हम लोग भी उमेश कुमार जैसा मीडिया हाउस नहीं बना सके ? यही ना कि हमने तो उमेश कुमार की तरह मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और अफसरों के बेडरूम तक एंट्री वाली पत्रकारिता की और न ही मोटी फाइलें लेकर सचिवालय में ‘शिकार’ तलाशे। दुखद है कि इस पर कोई कुछ नहीं बोलता।
आज उत्तराखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पर निशाना साध कर उमेश कुमार खुद को इस राज्य का हितैषी बताने में लगे हुए हैं, मगर क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि इस पूरी सरकार में बाकी के मंत्री क्या दूध के धुले हैं ? इनमे से कुछ तो उमेश कुमार के परम मित्र हैं।
आज खुद को जनता की आवाज उठाने वाला पत्रकार होने का दम भरने वाले उमेश कुमार से क्या ये नहीं पूछा जाना चाहिए कि विजय बहुगुणा, बीसी खंडूरी या एनडी तिवारी के कार्यकाल में उनकी जनसरोकारिता कहां चली गई थी ?
राज्य के तमाम लोग जानते हैं कि विजय बहगुणा के दौर में उन्होंने क्या कुछ नहीं किया। तब के सबसे भ्रष्ट अफसर राकेश शर्मा के साथ उमेश कुमार की कितनी गहरी दोस्ती थी, ये किसको नहीं मालूम ?
उसी दौर में रुद्रपुर में कई एकड़ जमीन को एक बड़े कारोबारी समूह, जिसके चैनल के उमेश कुमार झंडाबरदार हैं, को कौड़ियों के भाव लुटाया गया। उस सौदे के पीछे कौन था, ये किसको नहीं मालूम ? उसी दौर में अफसरों से सांठ-गांठ करके रुद्रपुर में ही एक बिल्डर को जमीन लुटाई गई, उस सौदे के पीछे कौन था, ये किसको नहीं मालूम ?
उसी दौर में प्रदेश में खनने के पट्टों की बंदरबाट में किस तरह दलाली खाई गई, ये किसको नहीं मालूम ?
और तो छोड़िए जब केदारनाथ में भयंकर विनाशलीला आई और देश दुनिया के लोग पीड़ितों के लिए प्रार्थना कर रहे थे, तब फर्जी एविएशन कंपनियां बना कर किसने आपदा के पैसों में दलाली और कमीशन खाया, ये किसको नहीं मालूम ?
सोचिए, जो मदद पीड़ित लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए भेजी गई, उस तक पर डाका डाला गया।
क्या उमेश कुमार ने कभी इन मुद्दों का जिक्र किया, इन पर सवाल उठाया ? आज खुद को सच्चा और जनता का हितेषी पत्रकार साबित करने वाले उमेश कुमार से क्या ये सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए ?
उत्तराखंड में भ्रष्टाचार की शुरुआत तो राज्य बनने के दिन ही हो गई थी, मगर इसे असली खाद पानी विकास पुरुष कहे जाने वाले एनडी तिवारी के दौर में मिलना शुरू हुआ। भू-माफिया, शराब माफिया, मीडिया माफिया, शिक्षा माफिया, संस्कृति माफिया, एनजीओ माफिया तथा और भी न जाने किस-किस तरह के बेईमानों को एनडी राज में संरक्षण मिला, जो आज इस राज्य के सबसे बड़े दुश्मन हैं। संयोग देखिए कि उमेश कुमार की उत्तराखंड में एंट्री उसी दौर में हुई थी। क्या उनसे नहीं पूछा जाना चाहिए जब इन सब बुराइयों के बीज पड़ रहे थे, सरकार इन्हें पनपा रही थी, तब उनकी सरोकारी पत्रकारिता कहां थी ? तब वे गनर लेकर क्या-क्या खेल कर रहे थे, किस तरह ‘सल्तनत’ खड़ी कर रहे थे ये उस दौर के पत्रकार अच्छी तरह जानते हैं। इसी तरह भुवन चंद्र खंडूरी के दौर में उन्होंने कितने सवाल उठाए ? निशंक के मुख्यमंत्री बनने पर उमेश कुमार के भीतर का सरोकारी पत्रकार जागा और उसने उनकी पोल खोलनी शुरू की। मगर क्या ये सच नहीं है कि वह सरोकारी पत्रकारिता तब शुरू हुई जब निशंक राज में उमेश कुमार का सहस्त्रधारा रोड स्थित अवैध कांप्लैक्स गिराया गया। इसी तरह हरीश रावत के राज में भी शुरुआती दौर में उन्होंने कितनी सरोकारी पत्रकारिता की ये सभी जानते हैं।
अब चूंकि त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में उनकी दाल नहीं गल रही है तो उनके भीतर का सरोकारी पत्रकार फिर से जाग गया है। यहां पर त्रिवेंद्र सिंह रावत को किसी तरह की क्लीनचिट नहीं दी जा रही है। मेरी नजर में एनडी तिवारी से लेकर त्रिवेंद्र सिंह रावत तक सभी मुख्यमंत्री एक जैसे हैं, और भ्रष्ट व्यवस्था के पोषक हैं। यहां पर असल मुद्दा उमेश कुमार के ‘पिक एडं चूज’ वाले सलेक्टिव एजेंडे पर सवाल उठाना है।
एक और अहम बात का जिक्र यहां पर करना जरूरी है। अपनी प्रशस्ति में उमेश कुमार इन दिनों दावा कर रहे हैं कि उन्होंने उत्तराखंड में तमाम बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है, मगर क्या ये पूरा सच है ? उदाहरण के लिए दो बड़े घोटालों स्टर्डिया और पवार प्रोजेक्ट आवंटन घोटाले की बात करें तो बेशक उन्होंने इन घोटालों पर रिपोर्टिंग की, मगर क्या ये सच नहीं है कि उनसे पहले इन घोटालों पर अखबारों में खबरें छप गई थीं। अगर में गलत नहीं हूं तो योगेश भट्ट पहले पत्रकार थे जिन्होंने अमर उजाला में सबसे पहले ये घोटाले उजागर किए। बाद में अन्य पत्रकारों ने भी इन पर खबरें लिखीं। मगर उमेश कुमार अपना महिमामंडन इस तरह कर रहे हैं मानो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले वे एकमात्र व्यक्ति हैं। एक व्यक्ति खुद ही अपना ढोल पीट रहा है और उसकी असलियत जानते हुए भी लोग उसकी थाप पर नाच रहे हैं। इससे दुखद और क्या होगा ?
यह दरअसल इस राज्य की जनता के साथ एक नए तरह का षड़यंत्र है। यह षड़यंत्र उन असली लोगों के संघर्ष को भी कमजोर करने की साजिश है जो राज्य के असल मुद्दों के लिए सच्चे दिल से संघर्ष कर रहे है, लिख-बोल रहे हैं, सड़क पर उतर रहे हैं और जेल भी जा रहे हैं। ऐसे संघर्षशील लोगों की आड़ में एक आदमी पावर सेंटर बनने की जुगत भिड़ा रहा है ताकि फिर से खेल शुरू कर सके। इस खतरनाक खेल को समझना बेहद जरूरी है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों की सरकारें इस राज्य की सबसे बड़ी दुश्मन हैं मगर इसका ये तो मतलब नहीं कि उमेश कुमार की व्यक्तिगत खुन्नस को भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई मान लिया जाए। उमेश कुमार जिस मुख्यमंत्री हटाओ एजेंडे पर चल रहे हैं हो सकता है कि उसमें कामयाब भी हो जाएं, मगर क्या इससे उत्तराखंड की बुनियादी समस्याओं का निदान हो जाएगा ?
यह सोचने और समझने की बात है कि जो व्यक्ति सरकार बनाने और गिराने के खेल में बिचौलिए की तरह भूमिका निभाता हो, जो व्यक्ति स्टिंग करने के बाद पत्रकारिता के उसूलों के खिलाफ जाकर अपने चैनल में प्रसारित करने के बजाय स्टिंग को एक राजनीतिक दल की चौखट पर दे आता हो, जो व्यक्ति पंद्रह वर्षों में अकूत संपत्ति का मालिक हो जाता हो, जो व्यक्ति कभी भी इस प्रदेश के असल सरोकारों से वास्ता न रखता हो उस व्यक्ति के झांसे में आकर हम कहीं जन संघर्षों की राह और मुश्किल तो नहीं कर रहे
उमेश कुमार भले ही एक व्यक्ति का नाम हो मगर राज्य बनने के बाद हमारा उत्तराखंड ऐसे कई उमेश कुमारों को झेलता आ रहा है, जिनके लिए पत्रकारिता केवल और केवल अपना उल्लू सीधा करने का साधन मात्र है। जिन्होंने अपने मतलब के लिए सत्ताओं के साथ सौदेबाजी कर अकूत ताकत हासिल की और उसका मन मुताबिक इस्तेमाल किया। ऐसे व्यक्ति भ्रष्ट राजनेताओं से ज्यादा खतरनाक हैं। राजनेता को तो उसके कारनामों के लिए जनता सबक सिखा देती है, मगर ऐसे उमेश कुमारों को जनता के किस बात का डर होगा भला ? इस लिए सबसे पहले इस प्रवृत्ति के खिलाफ लामबंद होने की जरूरत है। सरकारों पर सवाल उठाए जाने जरूरी हैं और सवाल उठाए भी जा रहे हैं, मगर जो उमेश कुमार खुद में ‘सवाल’ हैं, उनकी नीयत कहीं से भी उत्तराखंड के हित में नहीं हो सकती .
भाग-2
उमेश कुमार पर लिखी मेरी पोस्ट पर आने वाली तमाम प्रतिक्रियाओं और आरोप साबित करने की चुनौती के बाद पहली बार जवाब दे रहा हूं. सबसे पहले उमेश कुमार जी की चुनौती का दिल से स्वागत है…
मगर उससे पहले कुछ और बातें करनी जरूरी हैं. सबसे पहली बात यही कहनी है कि मेरी नजर में उमेश कुमार पत्रकार तो कतई नहीं हैं. जो लोग उन्हें अभी तक पत्रकार मान रहे हैं, वे उन्हें सर पर बिठाएं, उनका गुणगान करें, उनकी जय-जयकार करें, इस सबके लिए वे स्वतंत्र हैं. मगर अपनी पोस्ट के जरिए मैंने उमेश कुमार को लेकर जो भी सवाल उठाए हैं, क्या उन्होंने उनमें से अभी तक एक का भी जवाब दिया ? मानहानि का दावा और कोर्ट-कचहरी का डर दिखाने के सिवा अपने बचाव में उन्होंने अभी तक कोई एक भी ठोस दलील दी? मुझे अपने आरोप साबित करने की चुनौती देने वाले सुधी मित्रों ने क्या उनसे एक भी सवाल पूछा ?
मेरे कुछ सवाल हैं, अगर उमेश कुमार या उनके समर्थकों में साहस है तो वे इनका बिंदुवार जवाब दें. बिंदुवार मतलब बिंदुवार. हर सवाल का जवाब.
1- मैंने अपनी पोस्ट की शुरुआत में लिखा कि एक पत्रकार जब प्राइवेट प्लेन से स्टिंग करने आता है तो उसकी ‘तरक्की’ का राज आसानी से समझा जा सकती है. क्या उमेश कुमार ने इस सवाल का जवाब दिया कि तब उनके पास प्राइवेट प्लेन कहां से आया था ? प्राइवेट प्लेन का किराया घंटों के हिसाब से लाखों रुपये आता है, इतने रुपये उन्होंने अगर अपने पत्रकारिता कौशल को दिखाने के लिए ही खर्च किए थे तो फिर क्यों उस स्टिंग को अपने चैलन में चलाने के बजाय बागी नेताओं को दे आए ? क्या इसे आप पत्रकारिता कहेंगे ?
उस वक्त जब दिल्ली में कुछ पत्रकारों ने उमेश कुमार से यह सवाल किया तो उन्होंने कहा कि अगर वे स्टिंग के सिर्फ अपने चैलन में दिखाते तो उसे राष्ट्रीय स्तर पर तवज्जो नहीं मिलती. वाह…इसका मतलब तो यह हुआ कि अपने चैलन में उमेश कुमार बाकी जितनी भी खबरें प्रसारित कर रहे हैं, उनका कोई महत्व नहीं है, कोई सुनवाई नहीं है. तो फिर उमेश कुमार चैनल चला ही क्यों रहे हैं ?
बतौर पत्रकार मैंने तहलका जैसे संस्थान में काम किया है, जो अपनी खोजी पत्रकारिता के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध रहा है. बड़े-बड़े अखबारों और न्यूज चैनलों के मुकाबले बेहद कम प्रसार संख्या वाली तहलका पत्रिका ने तमाम ऐसे-ऐसे खुलासे किए जिनमें इतना दम था कि राष्ट्रीय चैनलों को वे खबरें चलानी पड़ीं. ऐसी एक नहीं दर्जनों खबरें हैं. दैनिक उत्तराखंड में भी हमने बहुत सी रिपोर्ट्स की, जिन्हें उमेश कुमार के चैनल समाचार प्लस से लेकर तमाम दूसरे चैनलों और अखबारों ने भी प्रमुखता से दिखाया.
अपनी इसी पोस्ट की बात करूं तो इससे पहले मैं तमाम मुद्दों पर बोलता-लिखता रहता हूं, जिनमें से कुछ पोस्ट को खूब पढ़ा जाता है तो कुछ को जरा सी भी तवज्जो नहीं मिलती, तो इस हिसाब से तो मुझे यह पोस्ट अपने अकाउंट के बजाय किसी ऐसे अकाउंट से करनी चाहिए थी, जो पब्लिक फिगर हो. ताकि ये पोस्ट ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके. क्यों ? दरअसल जब नीयत साफ हो तो माध्यम छोटा हो या बड़ा कोई फर्क नहीं पड़ता.
फिर भी मान लेते हैं कि उमेश कुमार इस खबर को लेकर थोड़ा सा भी चूक नहीं करना चाहते थे, तो क्या बागियों की चौखट पर चले जाना ही एकमात्र विकल्प था ? जिन लोगों के पोस्टर और वीडियो निकाल कर उमेश कुमार आज प्रमाण पत्र बांट रहे हैं, उनमें से बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा है, जिनकी बातों को हर मंच पर सुना जाता है, उमेश कुमार उनमें से किसी व्यक्ति या संगठन को भी तो चुन सकते थे, जो प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर इसका खुलासा करते. क्या तब स्टिंग सभी चैनलों में नहीं चलता ? किसी खबर को करके खुद प्रसारित करने के बजाय बागियों को सौंप देने को क्या पत्रकारिता कहा जाना चाहिए ?
2- उसी स्टिंग में और भी बहुत सी बातें हैं जो उमेश कुमार की ‘पत्रकारिता’ पर गंभीर सवाल उठाती हैं. पहली बात तो ये कि आम तौर पर स्टिंग असली पहचान छिपाकर किये जाते हैं. देश के सभी चर्चित स्टिंग असली पहचान को गुप्त रखकर ही किए गए हैं. अगर बतौर पत्रकार उस व्यक्ति से मिला जाए जिसका स्टिंग करना हो तो वह कभी भी डील नहीं करेगा. लेकिन उमेश कुमार अपनी असली पहचान के साथ ही हरीश रावत से मिले थे और हरीश रावत भी उमेश कुमार को पहले से जानते थे. फिर भी वे उनसे सौदेबाज़ी कर रहे थे, इससे साफ है कि हरीश रावत को उमेश कुमार के सौदेबाज होने का पक्का यकीन था.
उसी स्टिंग में उमेश कुमार हरीश रावत से कहते हैं, ‘भाई साहब पिछली बार की तरह नहीं होना चाहिए, कमिटमेंट पूरा होना चाहिए. पिछली बार इंदिरा जी का पूरा हुआ था, इनका नहीं हुआ.’ क्या इससे ये साबित नहीं होता कि उमेश कुमार पहले भी सौदेबाजी में लिप्त रहे हैं ?
एक और अहम सवाल ये है कि जिस दिन, 23 मार्च 2016 को वह स्टिंग हुआ उस दिन हरक सिंह समेत सभी बागी मीडिया से दूर गुड़गांव के किसी होटल में थे. ऐसे में सिर्फ उमेश कुमार के ही संपर्क में हरक सिंह रावत कैसे थे ? उस स्टिंग में उमेश कुमार ने हरीश रावत की हरक सिंह रावत से बातचीत करवाई जो इस तरह है-
हरीश रावत: हैलो
हरक सिंह रावत: हां भाई साहब नमस्कार
हरीश रावत: नमस्कार नमस्कार, कितना गुस्सा नीचे आया?
हरक सिंह रावत: नहीं भाई साहब सब नार्मल है. भाई साहब मैंने उमेश को सब बता दिया है. उमेश आपसे बात कर लेगा.
स्टिंग के आखिरी पलों में उमेश कुमार एक बार फिर हरक सिंह रावत को फोन करके कहते हैं, ‘भाई साहब ‘मोर ओर लेस बात हो गई है, ठीक है. बाकी मैं आपको आके बताता हूं.’
इस बातचीत से क्या साबित होता है ? इन मुद्दों पर उमेश कुमार और उनके ‘मुरीद’ क्या जवाब देंगे ?
3- अपनी पोस्ट में मैने उमेश कुमार को ‘पिक एंड चूज’ वाले सलेक्टिव एजेंडे पर काम करने वाला बताया है. क्या वे दावा कर सकते हैं कि उन्होंने हर मुख्यमंत्री की गलत नीतियों पर खुल कर आवाज उठाई, कलम चलाई ? जिन विजय बहुगुणा कि विदाई में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा कारण था, उनके भ्रष्टाचार पर उमेश कुमार ने कभी सवाल उठाया ? रुद्रपुर में जमीनों के अवंटन से लेकर, खनन पट्टों के बंटवारे और नकली एविएशन कंपनियों का जो जिक्र मैनें किया वो सब विजय बहुगुणा के दौर की कारस्तानियां हैं, मगर क्या तब उमेश कुमार ने उन मुद्दों पर कुछ लिखा-बोला ? आज तो विजय बहुगुणा कुछ भी नहीं हैं, क्या आज उमेश कुमार कह सकते हैं कि, हां विजय बहुगुणा भ्रष्ट थे ?
4- उत्तराखंड का कोई भी मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों से अछूता नहीं है. एनडी तिवारी, भुवन चंद्र खंडूरी, रमेश पोखरियाल निशंक, विजय बहुगुणा, हरीश रावत और अब त्रिवेंद्र सिंह रावत, हर सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. मैं इस बात को पूरी जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं कि हर सरकार ने उत्तराखंड के साथ छल किया और भ्रष्टाचारियों को पनाह दी. क्या उमेश कुमार ने सभी सरकारों के बारे में इसी तरह नाम लेकर यही बातें कही? क्या उनमें आज यह कहने का साहस है कि, हां तिवारी, खूंडूरी, निशंक, हरीश, त्रिवेंद्र सबके सब भ्रष्ट हैं ? ये सवाल केवल उमेश कुमार से नहीं बल्कि उनके पैरोकारों से भी हैं, लिहाजा वे भी इनका संज्ञान लें.
5- मैनें उमेश कुमार के साम्राज्य पर सवाल उठाते हुए कहा कि बीस वर्षों में इतनी तरक्की तो पूरे उत्तराखंड ने भी नहीं की जितनी उन्होंने अकेले की है. यह बात मैनें न तो भावुकता में कही है और नादानी में, बल्कि तथ्यों के साथ कह रहा हूं. उमेश कुमार बस एक पत्रकार का नाम बता दें जिसे इतने ही वर्षों में इतनी समृद्धि मिली. वे किसी एक पत्रकार का नाम बता दें जो इतने ही वर्षों में उतनी कंपनियों में हिस्सेदार है जितनी में वे खुद हैं. उमेश कुमार कुल 15 रजिस्टर्ड कंपनियों में, मैनेजिंग डायरेक्टर, डायरेक्टर और मानद डायरेक्टर हैं. दिलचस्प तथ्य यह है कि ये सभी कंपनियां उमेश कुमार के उत्तराखंड आने के बाद अस्तित्व में आईं. इन 15 कंपनियों में से दस कंपनियां तो साल 2010 से 2015 के बीच खोली गईं. उत्तराखंड में और कितने सरोकारी पत्रकार हैं जो हर साल तो छोड़िए इन बीस वर्षों में किसी एक कंपनी के कुछ हजार रुपयों के शेयर ही खरीद पाए हों ? उमेश कमार बता सकते हैं कि उनके पास हर मुराद पूरी करने वाला ऐसा कौन सा जादुई जिन्न था?
जिन कंपनियों में उमेश कुमार की हिस्सेदारी है, उनकी डिटेल्स इस लिंक पर जाकर देखी जा सकती हैं.
6- जिन कंपनियों में उमेश कुमार की हिस्सेदारी है, उनमें से दो कंपनी के नाम हैं, – उत्तराखंड एयरवेज प्राइवेट लिमिटेड और उत्तराखंड एविएशन प्राइवेट लिमिटेड. उमेश कुमार बताएं कि इन कंपनियों को वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के दौरान राहत एवं बचाव कार्यों के एवज में कितना भुगतान हुआ ? उमेश कुमार ये भी बताएं कि वर्तमान में इन कंपनियों का क्या स्टेटस है, इनमें कितने विमान हैं, कितने पायलट हैं, कितने कर्मचारी हैं?
7- उत्तराखंड आने के बाद उमेश कुमार पर दर्जनभर से ज्यादा आपराधिक मामले दर्ज हुए, जिनमें फिरौती मांगने से लेकर धोखाधड़ी जैसे गंभीर अपराध शामिल थे. बाद में सरकारों ने इन मामलों को एक-एक करके ‘जनहित’ में वापस ले लिया. एक व्यक्ति पर दर्ज मुकदमों को वापस लिए जाने के पीछे कौन सा ‘जनहित’ था ?
8- एक और वाकया याद दिलाना चाहूंगा. हरीश रावत के स्टिंग प्रकरण से सात-आठ महीने पहले जुलाई 2015 में भी एक और स्टिंग सामने आया था. वह स्टिंग था, हरीश रावत के बेहद खास सचिव मोहम्मद शाहिद का. याद कीजिए तब क्या हुआ था. स्टिंग को अंजाम देने वाले उमेश कुमार ने वह स्टिंग अपने चैनल में चलाने के बजाय एक और बड़े ‘पत्रकार’ महाशय को दे दिया जो अपने कारनामों के लिए कुख्यात रहे हैं. वे पत्रकार महोदय और भी बड़े निकले, स्टिंग को अपने संस्थान में चलाने के बजाय वे दिल्ली प्रेसक्लब पहुंच गए और वहां प्रेस कांफ्रेस की.
तब दावा किया गया था कि मोहम्मद शाहिद का एक और स्टिंग किया गया है, जिसे जल्द सार्वजनिक किया जाएगा. मगर वो स्टिंग कभी भी नहीं दिखाया गया. क्या उमेश कुमार उस स्टिंग के बारे में जवाब दे सकते हैं ? क्या वे यह दावा कर सकते हैं कि उस स्टिंग में उनकी कोई भूमिका नहीं थी ?
9- इन दिनों उमेश कुमार लगातार मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के करीबियों के स्टिंग पोस्ट करते हुए कह रहे हैं कि ये तो झांकी है, अभी पूरी पिक्चर बाकी है. उमेश कुमार की मंशा अगर वाकई में त्रिवेंद्र सिंह रावत के भ्रष्ट कारनामों का भंडाफोड़ कर उत्तराखंड को भ्रष्टाचार मुक्त राज्य बनाना है तो उनसे सवाल है कि पूरी पिक्चर क्यों नहीं रिलीज करते ?
सारे स्टिंग सार्वजनिक करने के लिए वे किस ‘शुभ मुहूर्त’ का इंतजार कर रहे हैं ? उमेश कुमार को चुनौती है कि यदि उनमें हिम्मत है, नैतिक बल है और भ्रष्टाचार के खिलाफ वास्तव में लड़ने का माद्दा है तो इस पोस्ट को पढ़ने का बाद वो सबसे पहले सभी स्टिंग सार्वजनिक करके दिखाएं. उमेश कुमार के मुरीदों से भी निवेदन है कि वे उनसे सभी स्टिंग सार्वजनिक करने को कहें.
उमेश कुमार में साहस है तो इन सभी सवालों का एक-एक करके तथ्यों के साथ जवाब दें. बाकी रही बात चुनौती की, तो दिल से स्वागत है. मगर सवाल अभी और भी हैं…
जो लोग मुझे मेरी पोस्ट के बाद, सरकार का पक्षधर, उमेश विरोधी और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को डायवर्ट करने वाला बता रहे हैं, उनसे बस इतना ही कहना है कि वे मेरे बारे में अपनी जानकारी दुरस्त करने का कष्ट करें. जो सुधी साथी सच को सच और झूठ को झूठ कहने का खुल कर साहस दिखा रहे हैं, उनका आभार…