देश का यह पहला चुनाव, जब एनडी तिवारी नहीं हैं
- 1951 में नैनीताल नॉर्थ से विधायक चुने गए थे तिवारी
- एनडी तिवारी हर चुनाव में वो दलों की जरुरत बन जाते थे
अजित सिंह राठी
आज़ाद भारत का यह पहला चुनाव होने जा रहा है जिसमे पंडित नारायण दत्त तिवारी नहीं है। सियासी पंडितों को उनकी कमी खल रही है और एनडी के रूप में राजनीति का वो शक्तिशाली प्रतिबिम्ब नहीं है जहाँ चुनाव आते ही सभी छोटे बड़े राजनीतिक दलों के नेताओं का जमावड़ा रहता था। एक ऐसे कद्दावर नेता के जाने का खालीपन तो रहता ही है जिसने मरते दम तक सक्रीय राजनीति को जिया हो। इस चुनाव में वो महफ़िले भी नजर नहीं आ रही है जहाँ एक नेता के पास सभी दलों के नेताओ का जमावाड़ा हो। इस चुनाव में एनडी के नहीं होने को आसानी से महसूस किया जाता सकता है। क्योंकि हर चुनाव में वो दलों की जरुरत बन जाते थे और केंद्र बिंदु बनकर रहते थे। उनके अनुयायी तो थे ही बड़ी संख्या में, तभी तो मुलायम सिंह और अखिलेश यादव भी उनकी अनदेखी नहीं करते थे।
यूपी विधानसभा के 1951 के पहले चुनाव में नारायण दत्त तिवारी नैनीताल नॉर्थ विधानसभा सीट से विधायक निर्वाचित हुए। 1951 से पिछले 2017 के विधानसभा चुनाव तक कोई ऐसा चुनाव नहीं रहा जिसे पंडित जी ने किसी ना किसी रूप में प्रभावित ना किया हो। जैसे ही चुनाव आते तो पंडित जी के पास सभी सियासी दलों के बड़े नेताओ का जमावाड़ा लग जाता। सोनिया गाँधी रही हो या फिर मुलायम सिंह, अमित शाह रहे हो या फिर उत्तराखंड के सभी दलों के नेता, सभी की राह एनडी तिवारी से होकर गुजरती थी।
उनमे बड़ी क्षमता थी। जानकार लोग बताते है कि उत्तराखंड के 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने दिल से चुनाव प्रचार नहीं किया। उनके पांच साल के कार्यकाल में कांग्रेस नेताओं ने उन्हें इतना परेशान किया कि उन्होंने प्रचार ही नहीं किया और परिणामस्वरूप कांग्रेस चुनाव हार गयी। आज भी खासतौर पर उत्तराखंड में विकास की बात होती है तो एनडी का ही जिक्र होता है। लोग बताते ही कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहते हुए भी कैसे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें हमेशा “सर” कहकर ही सम्बोधित करते थे। यह तिवारी का कद ही था कि किसी भी टाटा बिड़ला जैसे औद्योगिक घराने को फोन ही कर दिया तो सैंकड़ों करोड़ रूपये का निवेश आ गया। और अब हालत यह है कि जमे जमाये उद्योग पलायन करने की स्थिति में हैं।
कभी कभी तिवारी का शायराना अंदाज भी होता था।
“जब से सुना है मरने का नाम जिंदगी है
सिर पर कफ़न लपेटे क़ातिल को ढूंढता हूँ”
सन्दर्भ तो ज्ञात नहीं लेकिन ये पंक्तियाँ कभी नारायणदत्त तिवारी ने कही थी।
देश और प्रदेश की राजनीति में 2002-2007 तक उनका अंतिम पोर्ट-फोलियो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का रहा। संवैधानिक पद पर आंध्र प्रदेश के राज्यपाल का तौर पर उनकी अंतिम विवादित पाली थी। उसके बाद भी उनकी राजनीतिक हैसियत बरकरार रही। तमाम विवादों और आरोप प्रत्यारोप के बावजूद भी एनडी तिवारी देश की सियासत में अपनी जगह बनाये रहे जो कि आज किसी नेता के वश की बात नहीं है।