UTTARAKHAND
एक घुमक्कड़ की गौरव गाथा : दुनिया ने माना, हमने भुलाया

प्रारंभिक शिक्षा से वंचित नैन सिंह घुमक्कड़ी, जिज्ञासू, सूझबूझ और साहसी स्वभाव के थे पण्डित नैन सिंह रावत
पंडित नैन सिंह रावत (21 अक्टूबर, 1830-1 फरवरी, 1895)
डाॅ. अरुण कुकसाल
19वीं सदी का महान घुमक्कड़-अन्वेषक-सर्वेक्षक पण्डित नैन सिंह रावत (सन् 1830-1895) आज भी ‘‘सैकड़ों पहाड़ी, पठारी तथा रेगिस्तानी स्थानों, दर्रों, झीलों, नदियों, मठों के आसपास खड़ा मिलता है। लन्दन की राॅयल ज्याॅग्रेफिकल सोसायटी, स्टाॅटहोम के स्वेन हैडिन फाउण्डेशन, लन्दन की इण्डिया आफिस लाइब्रेरी, कलकत्ता के राष्ट्रीय पुस्तकालय, दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार, देहरादून के सर्वे ऑफ इण्डिया के दफ्तरों में नैन सिंह, अन्य पण्डितों, मुन्शियों तथा उनके तमाम गौरांग साहबों को अर्से से शोधार्थी अभिलेखों में विराजमान देखते रहे हैं।’’
(एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-21)
पण्डित नैन सिंह रावत का जन्म उत्तराखंड में जोहार इलाके के गोरी नदी पार भटकुड़ा गांव में 21 अक्टूबर, 1830 को हुआ था। उनका पैतृक गांव मिलम था। उस दौरान भटकुड़ा में उनके पिता (अमर सिंह) मिलम गांव से बाहर बहिष्कृत जीवन व्यतीत कर रहे थे। सन् 1848 में नैन सिंह का परिवार पुनः अपने गांव मिलम आकर रहने लगा। अपने पिता के साथ वे बचपन में तिब्बत गए थे। प्रारंभिक शिक्षा से वंचित नैन सिंह घुमक्कड़ी, जिज्ञासू, सूझबूझ और साहसी स्वभाव के थे। व्यापारिक पृष्ठभूमि होने के कारण हिन्दी, फारसी और तिब्बती भाषा बोलने के वे बचपन से अभ्यस्त थे। वर्ष 1856 में जर्मन के स्लागेन्टवाइट भाईयों की सर्वेक्षण टीम का अहम हिस्सा बन कर उन्होने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का शुरुआती परिचय दिया था। नैन सिंह की निपुणता से प्रभावित होकर सर्वेक्षण के उपरान्त रिर्पोट लेखन में अकादमिक सहयोग हेतु 100 रुपये मासिक वेतन पर उनसे इग्लैंड जाने के लिए कहा गया। परन्तु पारिवारिक दबाव के कारण नैन सिंह इंग्लैंड न जाकर मई, 1858 में अपने गांव मिलम के 15 रुपये मासिक वेतन पर प्रथम सरकारी अध्यापक नियुक्त हो गए। शिक्षा विभाग की नौकरी में रहते हुए धारचूला और गरब्यांग गांव की पाठशालाओं के भी वे प्रथम अघ्यापक रहे।
घुमक्कड़ी और अन्वेषण की अभिरुचि-निपुणता के फलस्वरूप जनवरी, 1863 में नैनसिंह को ट्रांस-हिमालयन एक्सप्लोरर के रूप में 40 रुपये मासिक वेतन पर सर्वे विभाग, देहरादून के लिए चयनित किया गया। सर्वेयर सम्बधित कठिन प्रशिक्षण के उपरांत मार्च, 1864 से मार्च 1875 तक उन्होने ग्रेट ट्रिगनोमेट्रिकल सर्वे में बेमिसाल योगदान दिया। इन ग्यारह वर्षों में घुमक्कड़-अन्वेषक-सर्वेक्षक के रूप में उन्होने मध्य एशिया और तिब्बत के बारे में वैज्ञानिक, पारिस्थितकीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक मौलिक तथ्य उजागर किए। उनके इस कार्य को तब विश्व भर में सराहा गया।
पण्डित नैन सिंह रावत के तिब्बत सर्वेक्षण यात्राओं में प्रशंसनीय योगदान को पुरस्कृत करते हुए रायल ज्योग्रैफिकल सोसायटी, लंदन के औनर्स बोर्ड पर पंडित नैन सिंह रावत को मिले ‘अभिभावक स्वर्ण पदक’ का उल्लेख किया गया है। आज भी यह सर्वेक्षण के क्षेत्र में भारत मूल के व्यक्ति को दिए जाने वाला सर्वोच्च और एकमात्र अवार्ड है। उन्हें ब्रिट्रिश सरकार का ‘कम्पेनियन ऑफ इंडियन एम्पायर’ भी दिया गया। भारतीय डाक विभाग ने 27 जून, 2004 को नैन सिंह पर डाक टिकट निकाला था। महत्वपूर्ण यह भी है कि 21 अक्टूबर, 2017 को गूगल ने महान घुमक्कड़-अन्वेषक पंडित नैनसिंह रावत के 187वें जन्मदिन पर डूडल जारी किया था।
पंडित नैन सिंह रावत की यात्राएं मात्र घुमक्क्ड़ी नहीं थी। वरन वे उससे बढ़कर तिब्बत की ओर प्रथम प्रामाणिक अन्वेषण यात्राएं थी। प्रसिद्ध लेखक डाॅ. रामसिंह ने नैनसिंह को ‘आधुनिक वामनावतार’ की उपाधि दी है। जैसे विष्णु भगवान ने वामनावतार के रूप में पूरी धरती नाप ली थी, वैसे ही नैन सिंह ने संपूर्ण हिमालय को जीवन-भर अपने लाखों कदमों और घोड़ों की टापों से नापा था। इस महान घुमक्कड़-अन्वेषक का निधन 1 फरवरी, 1895 को दिल का दौरा पड़ने से हो गया।
‘‘नैन सिंह को शिक्षक-प्रशिक्षक, सर्वेक्षक तथा अन्वेषक के साथ एक प्रारम्भिक विज्ञान लेखक तथा यात्रा साहित्यकार के रूप में देखने का हमारा आग्रह स्वाभाविक है। पर वह इतना ही नहीं था। एक पशुचारक-घुमक्कड़ समाज का यह बेटा अनेक गर्दिशों के बाद ही सर्वेक्षण की इस नई दुनिया में आया था।….लेकिन उसकी मेहनत तथा समर्पण उसे उन ऊंचाइयों तक ले गया, जहां कोई और उस युग में अथवा बाद में भी नहीं जा सका। किशन सिंह को अपवाद कहा जा सकता है और नैन सिंह का विस्तार भी। औपनिवेशिक सत्ता तथा साम्राज्यवादी विशेषज्ञ भी उसे मान्यता देने को उत्सुक रहे। पर नैन सिंह के जीवन तथा साहित्य को सामने लाने का काम औपनिवेशिक शासकों या विशेषज्ञों के ऐजेण्डे में नहीं था। नैन सिंह उनके लिए सम्पूर्ण नायक तो हो नहीं सकता था पर वे नैन सिंह को पूरी तरह हाशिये में भी नहीं डाल सकते थे।’’
(एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-23)

पंण्डित नैन सिंह रावत की हिमालयी यात्रायें-
नैन सिंह ने अपने जीवन में आठ विकट यात्रायें की जिसमें पहली यात्रा पारिवारिक और दूसरी यात्रा व्यापारिक दृष्टि से की गई थी। उसके बाद की 6 यात्राओं के केन्द्र में तिब्बत रहा है। इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि एकान्तवासी तिब्बतियों ने विदेशी हस्तक्षेप को कभी पंसद नहीं किया। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक वहां जाने वाले विदेशी (प्रमुखतया यूरोपियन और नेपाली) घुमक्कड़ों और अन्वेषकों की हत्या तक कर दी गई थी।
उक्त तथ्य के दूसरी तरफ उत्तराखंड और तिब्बत के पौराणिक काल से रोजी-बेटी के संबंध रहे हैं। जोहार क्षेत्र की शौका पौराणिक गाथा ‘’काक पुराण’ के अनुसार प्राचीन काल में यहां के ‘च्यरका ह्या’ राज परिवार का बालक अपहरण कर तिब्बत ले जाया गया, जिसका सांगपो नामकरण किया गया। सांगपो छोटे-छोटे सांमतों में विभाजित क्षेत्रों को एक प्रशासनिक सूत्र में शामिल करके तिब्बत का पहला राजा बना।” इन्ही संबधों के आधार पर उत्तराखंड के पांच दर्रों (भारत में सीमान्त क्षेत्र के व्यापारिक रास्तों को ‘दर्रे’ और तिब्बत में ‘ला’ का संबोधन है।) यथा- मिलम एवं गुंजी (पिथौरागढ़), नीती एवं माणा (चमोली गढ़वाल) और नेलंग (उत्तरकाशी) से स्थानीय सीमान्तवासी व्यापार और तीर्थयात्रा के लिए तिब्बत आया-जाया करते थे। लेकिन उन पर भी तिब्बत में कड़ी नज़र रखी जाती थी।
उत्तराखंड से चावल, गेहूं, जौ, दाल, चीनी, मेवे, गुड, चाय, किसमिस, चमड़े का सामान, तम्बाकू, सूती कपड़ा, बर्तन, घंटियां और तिब्बत से नमक, ऊन, घी, मख्खन, छुरबी (सुखाया पनीर), सुहागा, स्वर्ण, स्वर्ण भस्म, कीमती पत्थर, चंवर गाय की पूंछ आदि का वस्तु-विनिमय भेड़-बकरियों और खच्चर-घोड़ों के द्वारा किया जाता था। (ज्ञातत्व है कि उस दौर में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में सड़क न होने के कारण समुद्री नमक के बजाय तिब्बत की चट्टानी खदानों से निकलने वाला नमक प्रयुक्त होता था।)
उन्नीसवी सदी के प्रारंभ से ही अंग्रेजों ने तिब्बत में प्रवेश के कई प्रयत्न किए। परन्तु फिरंगियों के तिब्बत में प्रवेश पर सख्त पाबंदी होने के कारण उन्हें अधिकांशतया असफल होना पड़ा। अतः यूरोपियन अन्वेषकों ने तिब्बत सर्वेक्षणों के लिए तिब्बतीय नाक-नक्ष, जीवन-शैली, भाषा और संस्कृति की साम्यता-समझ रखने वाले जोहार इलाके के लोगों को चुना। इन कार्यों में घुमक्कड़ नैन सिंह रावत के पूर्वज धामू बुढ़ा (धाम सिंह रावत) के वंशजों का हिमालयी एवं हिमालय पार के सर्वेक्षणों में सर्वाधिक योगदान रहा। ‘‘यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि धाम सिंह रावत के परिवार के सदस्यों द्वारा भोगोलिक – सर्वेक्षणों में जो मौलिक योगदान दिया गया है वह विज्ञान के इतिहास में किसी एक परिवार द्वारा न तो पहले कभी दिया गया है और न ही उनके भविष्य में दिये जाने की सम्भावना ही दीख पड़ती है।’’
(धामू बुढ़ा के वंशज- डॉ. आर. एस. टोलिया, पृष्ठ-4)

पहली यात्रा : मिलम से बद्रीनाथ-माणा गांव (सन् 1851-1854)
नैन सिंह की पहली यात्रा पारिवारिक थी। वे जुलाई, 1851 में मिलम, मुनस्यारी, दानपुर, बधाण, जोशीमठ, बद्रीनाथ से माणा गांव आये और 3 वर्ष यहीं रहे। यहीं उन्होने अपना विवाह किया। मार्च, 1854 में वे अपनी पत्नी के साथ वापस मिलम गांव आ गए।
दूसरी यात्रा : मिलम से चम्बा, हिमाचल प्रदेश (सन् 1854)
माणा से अपने गांव मिलम आने के कुछ ही दिन बाद वे व्यापारिक यात्रा के लिए निकल पड़े। टिहरी, मसूरी, शिमला, बिलासपुर, ज्वालामुखी, कांगडा, चम्बा तक की उन्होने यात्रा की थी। इस यात्रा में उनके 300 से अधिक जानवर बीमारी से मरे, इस कारण लुटी-पिटी हालत में उनकी घर वापसी हो पाई। पुनः हिम्मत करके व्यापार करने की मंशा से वे रामनगर पहुंचे। यहां उनको मालूम चला कि लद्दाक और तुर्कीस्तान में वैज्ञानिक सर्वे के लिए स्थानीय लोगों को शामिल किया जा रहा है। नैन सिंह के मन-मस्तिष्क में विराजमान घुमक्कड़ी के भाव ने जोर मारा और वे तुरंत स्लागेन्टवाइट बंधुओं की सर्वेक्षण टीम में 35 रुपये प्रतिमाह वेतन पर बतौर दुभाषिये शामिल हो गए।





