- पहाड़ विरोधी लॉबी की तिकड़मबाजों की कुत्सित चाल !
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
उत्तराखंड की सरकारों ने एक सुनियोजित साजिश के तहत डॉक्टरी,इंजीनियरिंग सहित उच्च शिक्षा में मूल निवास प्रमाण पत्र की अनिवार्यता खत्म कर दी थी। अब स्थायी निवास प्रमाणपत्र के जरिये ही बाहरी प्रदेशों के मूल निवासी उत्तराखंड में स्थायी निवासी बनकर ये परीक्षा दे रहे हैं।
मूल निवास प्रमाणपत्र का सिस्टम अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा था। उत्तर प्रदेश सहित बहुत राज्यों में इसे नहीं बदला गया। लेकिन उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहले नौकरियों में मूल निवास की अनिवार्यता खत्म की गई और उसकी जगह स्थायी निवास प्रमाणपत्र लाया गया। फिर समूह ”ग” में गढ़वाली कुमांयूनी के ज्ञान का प्रावधान हटाया गया। फिर उच्च शिक्षा में मूल निवास की अनिवार्यता खत्म कर दी गई।
इस साजिश में सचिवालय की पूरी पहाड़ विरोधी लॉबी ही शामिल नहीं है बल्कि मैदानी क्षेत्र के भाजपा-कांग्रेस के नेताओं सहित आलाकमान नेतृत्व भी शामिल है। इनका लक्ष्य है कि उत्तराखंड में बाहरी राज्य के लोगों का इतना दबदबा कायम कर दिया जाय कि पहाड़ के लोगों की कमर टूट जाय और उनका प्रतिरोध खत्म हो जाय। लेकिन अफ़सोस हो रहा है कि पर्वतीय प्रदेश में ही पर्वतवासियों के जिन छात्रों और नौजवानों का भविष्य दांव पर लगा है वे क्यों चुप हैं तथा वे सिर्फ और सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के युवा मोर्चो की कमान सँभालने में ही अपना भविष्य बर्वाद कर रहे हैं।
प्रदेश के हालात अब इतने बदतर हो चुके है कि गढ़वाल और कुमाऊं के नौजवानों को अपना भविष्य दिल्ली अथवा अन्य प्रदेशों में ही उज्जवल नजर आ रहा है उत्तराखंड की धरती उन्हें उजाड़ एवं बंजर दिखाई दे रही है जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड आदि के युवाओं, पत्रकारों ,ठेकेदारों, दलालों, तिकड़मबाजों को उत्तराखंड की धरती उपजाऊ,कारोबारी तथा नेतागिरी या दलाली के लिहाज से उनके प्रदेशों से ज्यादा दमदार लग रही है। वे यहां दो – चार सालों में ही फ़टेहाल से लखपति से करोड़पति बन रहे हैं तथा पहाड़ से पढ़कर आये नौजवान यदि उत्तराखंड के मैदानी हिस्सों में आ भी गए तो वो नए धन्ना सेठों के होटलों, ढाबों या कोठियों में नौकर बन कर शोषित हो रहे रहे हैं।
अब तो कुछ ही वर्षों में पहाड़वासियों का अस्तित्व ही खत्म होने के कग़ार पर पहुंच चुका है, पहाड़वासी अपनी गौरवशाली एवं शालीन लोक संस्कृति और संस्कारों तक को हेय दृष्टि से देखने लगे हैं, परिणाम हमारा समाज मैदान में अब अपनी ”पहाड़ी” पहचान से ”कठमाली” बन चुका है।
अब भी थोड़ा समय बचा है पहाड़ को बचाने का, पहाड़ के लिए लड़ने का, पर्वतीय क्षेत्रों की भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप नीति बनाकर क्रियान्वित करने का. पहाड़ बचाने की लड़ाई पहाड़ में जाने से नहीं बल्कि सचिवालय से लड़नी होगी, नीति नियंता बाबू और अफसरान तो सचिवालय में ही बैठते हैं।