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देश का जल संकट पारंपरिक जल स्नोत ही करेंगे दूर

  • दूसरे कार्यकाल के पहली मन की बात में जल संकट का उठाया मुद्दा

  • प्रधानमंत्री मोदी ने जल संरक्षण के लिए जल आंदोलन का किया आह्वान

  • गढ़वाल की महिलाओं के वर्षा जल संरक्षण के प्रयासों का किया उल्लेख

देवभूमि मीडिया ब्यूरो 

नई दिल्ली : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहली मन की बात में जल संकट का मुद्दा प्रमुखता से उठाया। मौजूदा दौर में गहरते जा रहे इस संकट पर चिंता जताते हुए देशवासियों से इसके संरक्षण के लिए जल आंदोलन का आह्वान किया। उन्होंने चेताया कि हमें अपने पारंपरिक जल स्नोतों को बचाना होगा तभी हम इस संकट से निकल पाएंगे।

उन्होंने कहा दरअसल हमारे प्राकृतिक जल स्नोतों का जब से तेजी से क्षरण शुरू हुआ तभी से यह संकट गहराया। धरती का पेट प्राकृतिक तरीकों से पानी से नहीं भर रहा। कृत्रिम तरीके लोग अपनाते नहीं। अहम स्नोतों की बेकद्री हमने कैसे की:नदियां: देश की हिमालय से निकलने वाली नदियों को छोड़कर शेष बारिश के पानी पर निर्भर हैं। इन नदियों की जल ग्रहण क्षमता 272.7 मिलियन हेक्टेयर है।

प्रधानमंत्री ने कहा कि आज आलम यह है कि ज्यादातर नदियां सूख चुकी हैं, जिनमें पानी है वह विषैला हो चुका है। कभी ये नदियां पेयजल, सिंचाई और भूजल स्तर बढ़ाने के साथ मत्स्य सहित आदमी की तमाम जरूरतों को पूरा करने का माध्यम हुआ करती थीं।

‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उत्तराखंड के प्रति विशेष स्नेह है। उनके मार्गदर्शन में हमारा राज्य निरंतर आगे बढ़ रहा है। ऑल वेदर रोड, केदारपुरी का पुनर्निर्माण, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, भारतमाला परियोजना में तमाम सड़कों का कायाकल्प समेत अनेक केंद्र पोषित योजनाएं उन्हीं के प्रयासों से चल रही हैं। केदारनाथ के प्रति प्रधानमंत्री की अगाध श्रद्धा है। उत्तराखंड प्रधानमंत्री के दिल में बसा है। मन की बात कार्यक्रम में उन्होंने दो बार उत्तराखंड का जिक्र किया। यह इस छोटे से राज्य के प्रति उनके स्नेह का प्रतीक है।

त्रिवेंद्र सिंह रावत, मुख्यमंत्री उत्तराखंड।

ताल, तलैया और पोखर पर प्रधानमंत्री ने कहा वैसे तो देश में तालाब जैसे प्राकृतिक जल स्नोत का कोई समग्र आंकड़ा मौजूद नहीं है। उन्होंने कहा एक आंकड़े के अनुसार 1947 में देश में कुल चौबीस लाख तालाब थे। इन तालाबों के माध्यम से ही 1950 से पहले 17 फीसद खेतों में सिंचाई इन्हीं के जरिए हुआ करती थी। 2000-01 में देश में तालाबों, बावडिय़ों और पोखरों की संख्या 5.5 लाख रह गई। हालांकि इसमें से 15 फीसद बेकार पड़े थे, लेकिन 4 लाख 70 हजार जलाशयों का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में हो रहा था। ज्यादातर सूख चुके हैं।

प्रधानमंत्री ने गढ़वाल की महिलाओं के वर्षा जल संरक्षण के प्रयासों का उल्लेख कर यहां की मातृशक्ति को भी सलाम किया है।देवभूमि उत्तराखंड यदि प्रधानमंत्री मोदी के मन में बसता है तो इसकी खास वजह भी है।

जल श्रोतों के खात्मे की वजहों पर उन्होंने कहा देश भर के तालाबों की जिम्मेदारी अलग-अलग महकमों के पास है। राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाईं, स्थानीय निकाय और पर्यटन जैसे विभागों के पास इन तालाबों का जिम्मा है। लिहाजा अतिक्रमण की स्थिति में सब एक दूसरे पर जिम्मेदारी डाल जवाबदेही से बचने की कोशिश करते हैं।

झीलें के बारे में प्रधानमंत्री ने कहा देश में हर साल मानसून के चार महीने में करीब 1170 मिमी बारिश होती है। इस बारिश के पानी का हम केवल 20 फीसद ही उपयोग करते हैं और शेष पानी को हम संरक्षित नहीं करते। दरअसल कभी झीलें हर प्रदेश की शोभा हुआ करती थी, अतिक्रमण और देखरेख के अभाव में इनका अस्तित्व भी मिटता जा रहा है। अगर ये बारिश से लबालब रहतीं तो पेयजल सहित भूजल स्तर को बढ़ाने में मददगार होती।

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