क्या अकेली सुसवा ही दोषी है दूधली घाटी में खेतों की बर्बादी के लिए ?
हजारों बीघा खेती के लिए मुसीबत बन गया शहर का कचरा
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : दूधली से देहरादून का रास्ता मुझे बहुत अच्छा लगता है। सड़क के दोनों ओर दूर तक दिखती हरियाली, कहीं कहीं खेतों के बीच में पेड़ दिखाई देते हैं, जो शायद पक्षियों को आसरा और खेतों में दिलों जान से जुटने वाले किसानों को छाया देने के लिए हैं। मैं तो दूधली घाटी के बारे में बचपन में सुनता था कि यहां के खेतों में पैदा हुई बासमती अपनी खुश्बू से हर किसी को दीवाना बना देती है। चावल की इस खास किस्म को और भी खास बनाने का काम करती थी सुसवा, जो जंगली स्रोतों के स्वच्छ जल से खेतों को सींचती थी।
अब जब भी किसी से दूधली की बासमती और सुसवा के सुनहरे अतीत के बारे में बात करता हूं तो सुनने को मिलता है, मौके पर जाकर देखो तो पता चलेगा कि सुसवा खेतों को कैसे बर्बाद कर रही है। खेतों को कचराघर बना रही है सुसवा। एक नदी के प्रति इतना गुस्सा, वो भी उस नदी के प्रति, जिसके जल से सींचे खेतों ने बासमती पैदा की, हां… मैं खुश्बू वाली बासमती की बात कर रहा हूं। नदी तो जीवनदायिनी होती है, नदी तो अन्न उगाती है, फिर सुसवा ऐसा क्या कर रही है, जो आपके खेतों के लिए जहर बन गई। हमें जानकारी मिली कि दूधली घाटी में बासमती की खेती पहले दो से तीन हजार बीघा में होती थी, वर्तमान में यह लगभग दस से 15 फीसदी पर सिमट गई। इसका पूरा दोष सुसवा पर मढ़ा जा रहा है।
हम रविवार को सुसुवा और उसके खेतों को देखने पहुंचे। हम उस वजह को जानना चाहते थे, जिसने एक नदी के बारे में यह सुनने को मजबूर करा दिया कि सुसवा तो जहर बांट रही है। सुसवा नदी खेतों तक ऐसा क्या पहुंचा रही है, जिससे उनका सौंदर्य बिगड़ रहा है। एक नदी, अन्न से उसकी खुश्बू कैसे छीन सकती है। एक नदी, किसी गांव या घाटी के गौरवशाली अतीत को बरकरार रखने में बाधा कैसे बन सकती है। बहुत दुख होता है, जब हम अपनी गलतियों को स्वीकार करने की बजाय प्रकृति को ही दोष देने लगते हैं।
मानव भारती सोसाइटी के निदेशक डॉ. हिमांशु शेखर के निर्देशन में तक धिनाधिन की टीम दूधली घाटी पहुंची। यहां यह बात तो स्पष्ट तौर पर समझ में आती है कि चिंतन करने के लिए हालात को नजदीकी से देखना बहुत आवश्यक है। सवाल उठता है खेतों में शहर का कचरा कौन लेकर आया। जवाब मिला, सुसवा नदी। सुसवा में देहरादून की रिस्पना मिलती है। रिस्पना, खासकर बरसात में, पूरे शहर का कचरा ढोती है।
हमारे कुछ सवाल हैं, क्या आपने कभी सुना है या देखा है कि कोई नदी घर-घर जाकर कूड़ा कचरा इकट्ठा करती है। क्या नदियां, इसलिए होती हैं कि हम अपने घरों का कचरा, उनमें फेंक सकें। क्या नदियां कूड़े कचरे को एक शहर से दूसरे शहर में शिफ्ट करने के लिए होती हैं। क्या ऐसा कोई नियम है, कि जो भी कुछ आपके पास बेकार हो, आपके किसी काम का नहीं हो, वह सब किसी नदी को दे दो। नदी या नालों में तो घरों की गंदगी और कूड़े को फेंका जाता होगा, तभी तो वो बहाकर ले जाती है।
यह बात हम पूरी तरह मानते हैं कि दूधली घाटी के निवासियों ने सुसवा नदी को प्रदूषित नहीं किया। पर इसको दूषित बनाने में योगदान तो हम इंसानों का ही है। इंसानों ने नदियों को दूषित किया और नदियों ने हमारे खेतों को और खेतों में पैदा हुए अनाज से स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा है।
हम अपनी दिनचर्या में सामान्य तौर पर जिन भी ब्रांड की खाद्य या सौंदर्य सामग्री का इस्तेमाल करते हैं, उन सभी के प्लास्टिक, पॉलीथिन रैपर दूधली घाटी के खेतों में मिल जाएंगे। हम शहर में जो भी कुछ खाते हैं, पीते हैं, सौंदर्य प्रसाधनों में इस्तेमाल करते हैं, उनके कचरे को अनियोजित तरीके से फेंक देते हैं। नदी का दोष केवल इतना है कि शहर के कचरे को बहाकर गांवों में पहुंचा देती है। ऐसा इसलिए हैं, क्योंकि हमने कभी नदी को स्वच्छ बनाने के लिए ध्यान नहीं दिया।
खैर, हमने बासमती के स्वाद और खुश्बू पर 63 वर्षीय प्रोग्रेसिव फार्मर पूर्व सैनिक नारायण सिंह जी से बात की। वो बताते हैं कि मुझे बड़ा गर्व होता था कि हमारे खेतों ने देशी बासमती, लालकिला जैसी फसलों को उपजा है, जिनकी सुगंध पूरे गांव में फैलती थी। हमारे खेतों में धान रोपाई के समय ही खरीदार आ जाते थे। मांग बहुत थी, पर स्रोतों से पत्तियों की खाद लेकर आ रहे स्वच्छ पानी और गोबर, सनी व पत्तियों की खाद से पैदा होने वाली बासमती की बात ही कुछ और थी। मैं मानता हूं कि हमने बासमती की खुश्बू को खो दिया है। अब भी हमारे खेतों में बासमती उगाई जाती है, इसमें सुगंध है पर पहले से तुलना नहीं कर सकते। हम उस सुगंध को फिर से वापस ला सकते हैं।
सिमलास ग्रांट के कास्तकार व दुग्ध संघ में प्रतिनिधि भगवान सिंह मानते हैं कि बासमती धान की खेती में मेहनत बहुत चाहिए। बारिश भी कम हो रही है। साफ पानी नहीं मिल पा रहा है। हमारे खेत कचरा घर बनते जा रहे हैं। हम आर्गेनिक खेती में सुसवा के लिए पानी का इस्तेमाल नहीं कर सकते। इसके लिए हमें खेतों मे ट्यूबवैल बनाकर खेती करनी होगी। दूषित जल से खेती बीमारी को न्योता है। बासमती की वर्षों पुरानी सुगंध को वापस लौटाने के लिए स्रोतों से सीधे खेतों तक पानी लाना होगा।
हमने जैविक खेती के पैरोकार और उन्नशील किसान उमेद बोरा से बात की। उमेद बोरा मानते हैं कि दूधली से सुगंधित बासमती का खिताब छिन चुका है। हम चाहते हैं कि इसका नाम नहीं मिटना चाहिए। टाइप थ्री बासमती भी विलुप्त होती जा रही है, जबकि यह स्वाद और सुगंध में शानदार है। इस चावल का दाना थोड़ा छोटा होता है, लेकिन पकने के बाद चावल बड़ा हो जाता है। उमेद जी बताते हैं कि देहरादून को बासमती के लिए भी जाना जाता है। कुछ कंपनियां बाहर के चावल को मशीनों से उबाल कर उसके दाने को बड़ा कर देती हैं। फर्जी तरीके से बाहर पैदा होने वाले चावल को देहरादूनी बासमती के नाम से बेचा जाता है।
वर्षों पुरानी बासमती के विलुप्त होने की वजह क्लामेट चेंज होना भी है। जमीन कंक्रीट से ढंक रही है। सुसवा में स्रोत का साफ पानी नहीं आ रहा। नदी कचरा बहाकर ला रही है। मांग बढ़ने के साथ अधिक उत्पादन की चाह के कारण यूरिया का इस्तेमाल हो रहा है। वहीं बासमती का पुराना बीज संरक्षित नहीं हो सका और गुणवत्ता पर असर पड़ा। इससे उसकी खुश्बू धीरे धीरे उड़ती चली गई। अभी भी बासमती में खुश्बू है, जरूरत है संरक्षण की। हम इसको खाते हैं या बाहर ले जाकर पकाते हैं तो इसकी खुश्बू को महसूस करते हैं।
एक सवाल पर उनका कहना है कि बासमती के खेत अब गन्ने की कृषि में बदल रहे हैं। पहले ही तुलना में लगभग दस फीसदी हिस्से में ही बासमती उगाई जा रही है। जब लाभ नहीं होगा तो किसान ऐसा करेगा। वैसे भी नदी में बहकर आ रहे कचरे ने खेतों का उपजाऊपन कम किया है। बताते हैं कि एक दौर ऐसा भी था कि बासमती का खरीदार किसान के घर पहुंच जाता था। केवल इतना देखा जाता था कि कितने बीघा में खेती हो रही है। उसी हिसाब से किसान को बासमती का एडवांस दे दिया जाता था। अब तो क्राप ही मिट गई है कैश कहां से आएगा।
हमने सिमलास ग्रांट निवासी रेशमा बोरा से बात की। रेशमा गोविंद वल्लभ पंत विश्वविद्यालय से एग्रीकलचर एग्रोनॉमी में पोस्ट ग्रेज्युएट हैं। वर्तमान में देहरादून के किसी कॉलेज में शिक्षिका हैं। धान की खेती में उनका स्पेशलाइजेशन है। रेशमा बताती हैं कि धान की खेती में ज्यादा मेहनत लगती है। लेबर कॉस्ट ज्यादा होती है। पहले नर्सरी तैयार होती है। जितने एरिया में आपको धान की खेती करनी है, उसके दसवें हिस्से में आपको पौध तैयार करनी होती है, जिसमें 21 दिन लगते हैं।
खेत को तैयार करके उसमें पौधों की रोपाई की जाती है। रोपाई को ध्यान से देखा जाता है, अगर कोई पौधा सही तरीके से नहीं लग सका या खराब हो गया तो उसकी जगह दूसरा पौधा लगाया जाता है। उन्होंने बताया कि आर्गेनिक खेती के लिए आर्गेनिक फर्टिलाइजर भी आते हैं।
हमने उनसे पूछा कि उस खेत में आर्गेनिक खेती कैसे की जा सकती है, जहां सिंचाई के लिए प्रदूषित पानी है। उन्होंने बताया कि किसी भी खेत को आर्गेनिक बनाने के लिए एक प्रक्रिया होती है। तीन साल तक आपको समान खेत में आर्गेनिक खेती करनी होगी। उसके बाद आपके उस खेत को आर्गेनिक होने का सर्टिफिकेट मिल सकता है। प्रक्रिया का नियमों से पालन करने पर ही उसको आर्गेनिक घोषित किया जाता है।
प्रदूषित सुसवा नदी से सिंचित होने वाली फार्मिंग आर्गेनिक नहीं हो सकती। जहां तक वाटर फिल्टरेशन का सवाल है, इससे उत्पादन लागत बढ़ जाएगी। अगर पूरा एक गांव आर्गेनिक में जाता है, तो वाटर फिल्टरेशन की व्यवस्था की जा सकती है।
हमने धान रोपाई में व्यस्त केशवपुरी निवासी महिलाओं से बात की। उन्होंने बताया कि धान रोपाई में मेहनत बहुत है पर अगर श्रम नहीं करेंगे तो परिवार के खर्चे कैसे चलेंगे। वैसे भी कोरोना में कोई काम नहीं था। खेत में पानी में कई घंटे खड़े रहकर पौध रोपाई करना कष्टकारी होता है।
कृषि शिक्षिका रेशमा ने उनको सलाह दी कि खेत में जाने से पहले पैरों में सरसों का तेल लगाएं, इससे त्वचा को नुकसान नहीं होगा। हमें बताया गया कि वर्तमान में प्रतिबीघा रोपाई करीब 800 बीघा है। दो महिलाएं एक दिन में एक बीघा खेत में रोपाई कर लेती हैं।
करीब सात किमी. दूर आकर खेती में श्रम करने वाले केशवपुरी के ही दिलीप साहनी अपने साथियों के साथ धान की नर्सरी से पौधों को इकट्ठा करते मिले। उनका कहना है कि कोरोना के समय कोई काम नहीं था। निर्माण कार्य में दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, अब खेती का समय है तो खेत में श्रम कर रहे हैं।
सुसवा नदी के संरक्षण के लिए अभियान चला रही दृष्टिकोण समिति के संस्थापक और स्थानीय काश्तकार मोहित उनियाल का कहना है कि सुसवा नदी गंगा की सहायक नदी है। सुसवा को प्रदूषणमुक्त करके गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए ही कार्य होगा। उनका कहना है कि सुसवा नदी को बचाने के लिए रिस्पना और बिंदाल की गंदगी को इसमें मिलने से रोकना होगा।
हमने मानव भारती सोसाइटी के निदेशक डॉ. हिमांशु शेखर से जानना चाहा कि व्यक्तिगत स्तर पर कौन सीं ऐसे छोटी छोटी पहल हैं, जो किसी शहर में बह रही नदी को प्रदूषण से मुक्त कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि सबसे पहले हमें अपनी जरूरतों को कम करना होगा। अगर कोई सामान हमारे इस्तेमाल के लिए नहीं हैं या घर में इकट्ठा होने वाला कचरा, उसको हमें घर पर ही निस्तारित करना होगा। जैविक और अजैविक कचरा अलग-अलग डिब्बों में होना चाहिए। हम किसी भी कचरे को सावधानीपूर्वक सही स्थान पर निस्तारित करें।
उनका कहना है कि बाजार से सामान खरीदने, सब्जी खरीदने के लिए घर से कपड़े का थैला लेकर जाएं। पॉलीथिन को न कहने की आदत डालनी होगी। कहते हैं कि खेतों में पॉलिथिन, प्लास्टिक कचरा देखकर दुख होता है। यह सब रसायन हैं, जो हम इंसानों ने नदियों में फेंके या कचरे के गलत तरीके से निस्तारण की वजह से यहां पहुंच गए, आखिर में ये हमारे ही स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाएंगे। अनाज में रसायन होंगे और यही अनाज हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करेगा। पानी में रसायन मिलकर खेतों में पहुंचे और फिर ये रसायन फसलों के माध्यम से हमारे पास पहुंच जाएंगे। यह सायकल इसी तरह चलता रहेगा, यह तभी रुकेगा, जब हम नदियों में रसायनों को मिलने से रोंकेगे। ऐसा करके ही हम स्वस्थ रहने की परिकल्पना कर सकेंगे।
पर्यावरण संरक्षण के पैरोकार बीएचयू से डॉक्टरेट, संस्कृत विद्वान डॉ. अनंतमणि त्रिवेदी ने शास्त्रों में अन्न और कृषि के महत्व के साथ इस श्लोक से कृषकों के श्रम की महत्ता पर चर्चा शुरू की।
धान्य अन्न, चावल के जनक पर चर्चा करते हुए सभी कृषकों के प्रति सम्मान व्यक्त किया। कचरा फेंकने की प्रवृत्ति पर रोकने लगाने की अपील की। उन्होंने कचरा फेंकने से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचने की बात कही। दून यूनिवर्सिटी से प्रोडक्ट डिजाइनिंग में ग्रेजुएट निहारिका मिश्रा तथा मानवभारती स्कूल देहरादून के छात्र सार्थक पांडेय इस पूरी चर्चा में शामिल हुए।
वरिष्ठ पत्रकार संजय शर्मा बताते हैं कि 1980 से 90 तक सुसवा का जल बहुत स्वच्छ था। इंसान पानी पीते थे। आज हालात इतने खराब है कि इस पानी में पैर नहीं रख सकते।
हमने सुसवा के किनारे जाकर दूर दूर तक जमा कचरे के ढेर भी देखे, जो यह बताने के लिए काफी है कि हमें अपने कल यानी अपनी आने वाली पीढ़ियों की सुख सुविधाओं और संसाधनों की फिक्र तो बहुत सताती है पर हम उनका प्रकृति की अमूल्य सौगातों से उस रूप में परिचय कराना नहीं चाहते, जिनसे हमारे पूर्वज और थोड़ा बहुत हम रू-ब-रू हो चुके हैं या हो रहे हैं। आइए हम सब मिलकर अपने आसपास मौजूद प्रकृति को कृतियों को उनके स्वरूप में लाने के लिए अपने स्तर पर ही पहल करें….। ऐसा हम सब करेंगे, इसी उम्मीद के साथ किसी और पड़ाव पर फिर मिलने का वादा करते हुए आपसे विदा लेते हैं…. हम फिर मिलेंगे, तब तक के लिए बहुत सारी शुभकामनाओं का तकधिनाधिन…
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