अलगाववादी तत्वों के विरोध पर चुप्पी ने पहुंचाया देश को नुकसान
साम्राज्यवादी विचारों के सामने चुप रहकर उन्हें संतुष्ट करने की ही हो रही है राजनीति
कमल किशोर डुकलान
खतरनाक राजनीतिक मतवादों के बारे में पर्याप्त शिक्षा देने के बजाय अलगाववादी तत्वों पर चुप्पी की नीति ने देश को भयंकर नुकसान पहुंचाया है। भारत में पिछले सौ साल से अनेकों प्रकार के गलत और साम्राज्यवादी विचारों के सामने चुप रहकर उन्हें संतुष्ट करने की ही नीति रही है….
पिछले एक माह से भी ज्यादा समय से किसान आंदोलन में पंजाब के किसानों की बड़ी भागीदारी को देखकर ऐसा लगता है, कि अलगाववादी तत्व पुन: खालिस्तान की मुहिम को हवा देने की तिकड़म कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने किसानों के समर्थन के नाम पर इंग्लैंड,कनाडा और अमेरिका में भारतीय दूतावासों के सामने मुट्ठी भर लोगों को जुटाकर भारत-विरोधी नारे लगाए। फिर फेसबुक ट्विटर जैसे मंचों पर सिखों या हिंदुओं को लेकर प्रलाप शुरू हो गया। इससे उनका प्रचार पाने का अलगाववादियों का मंसूबा कुछ हद तक सफल रहा।
खालिस्तानी अलगाववाद को उभरे चार दशक हो गए, लेकिन ‘संवेदनशीलता’ के नाम पर आज भी इस कुविचार को लेकर चुप्पी साधी जाती है। इस मामले में न केवल सच बताने से बचा जाता है,बल्कि उस पर पर्दा भी डाला जाता है। फलत: राष्ट्र पर आघात करने वाले हानिकारक हिंदू विरोधी अपने खोल से बाहर आकर लोगों को भड़काने लगते हैं। किसान आंदोलन के नाम पर भी यही हो रहा है जिसमें खालिस्तान की मुहिम से जुड़े कुछ लोग किसान आंदोलन में पैठ बनाने की जुगत में लगे हैं। इसके जवाब में केंद्रीय एजेंसियां खालिस्तानी संगठनों,एनजीओ आदि के वित्तीय स्त्रोतो को बंद करने की योजना बना रही हैं। कई वेबसाइटों को भी प्रतिबंधित किया गया है,परंतु क्या यह काफी है?
वास्तव में विचारों को ताकत से नहीं दबाया जा सकता। अलगाववाद का उपाय सेंसरशिप नहीं है। उससे दुष्प्रचार और अफवाहों को मदद मिलती है। अलगाववादी विचारों के प्रभाव में आने वालों को लगता है कि सत्ताधारी जबरदस्ती कर रहे हैं, किंतु कश्मीरी-इस्लामी से लेकर खालिस्तानी अलगाववाद तक हमारे नेता दशकों से वही गलती दोहराते आ रहे हैं। गांधी जी से लेकर आज तक यह भूल यथावत है। गलत विचारों को चुप्पी साधकर नहीं, बल्कि उनकी पोल खोलकर ही परास्त किया जा सकता है। कुछ लोगों की ‘भावना’ के नाम पर उससे बचना दोहरा-तिहरा हानिकारक होता रहा है।
पंजाब में अलगाववाद को खत्म करने वाले केपीएस गिल ने इसे प्रमाणिक रूप से दर्शाया था। अमृतसर हरि मंदिर से अलगाववादियों को निकालने के लिए ऑपरेशन ‘ब्लैक थंडर’ (1988) के दौरान उन्होंने देसी-विदेशी मीडिया को स्वतंत्रतापूर्वक अपना काम करने देने की अनुशंसा की थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उसे स्वीकार किया। गिल रोज स्वयं मीडिया के सवालों का जबाव देते थे। फलत: चार साल पहले ऑपरेशन ‘ब्लू स्टार’ वाली भूल नहीं हुई। अफवाहों का रास्ता बंद हो गया। लोगों ने सच्चाई देखी और अलगाववादियों की नहीं चली। जल्द ही पंजाब में उस आग को पूरी तरह बुझा दिया गया,किंतु जिस गिल ने पंजाब को भारत से तोड़ने का षड्यंत्र विफल किया,उनके निधन पर हमारे नेता उनके अंतिम दर्शन करने नहीं गए। क्यों? ताकि खालिस्तानी ‘संवेदना’ को बुरा न लगे।
ठीक यही भीरुता हमारी संपूर्ण शिक्षा और विमर्श में भी शामिल कर दी गई। यहां इस्लामी या खालिस्तानी अलगाववादी विचारों को चुनौती नहीं दी जाती। इससे हमारे किशोर,युवा उन बातों को लेकर अंधेरे में रहते हैं। किन लोगों ने और क्या कहकर कश्मीरी पंडितों का सफाया किया,यह बात संपूर्ण शिक्षा में लुप्त है। वही स्थिति खालिस्तानी असलियत के प्रति भी है।हालांकि वही भूल आज तक जारी है। हमारी अधिकांश राजनीतिक बिरादरी न गिल के अनुभवों से परिचित हैं,न दसों सिख गुरुओं की शिक्षाओं से। अंतत: जब मामला सिर से ऊपर उठने लगता है तो ताकत लगाकर उससे निपटाया जाता है। जो काम सरलता, सत्यनिष्ठा से हो सकता है,उससे नजरें बचाकर उसे सौ गुना कठिन बना लिया जाता है। यह एक विचित्र दुष्चक्र है।
खालिस्तानी गुटों के वित्तीय स्रोतों पर चोट करना पर्याप्त नहीं है। मूल समस्या शैक्षिक है। सिख-हिंदू अलगाव या एकता के बारे में नई पीढ़ियां अनजान हैं,लेकिन दुख की बात है कि इसकी ओर ध्यान दिलाने वाले विद्वानों, जानकारों की देश में खिल्ली उड़ाई जाती है। देश-विभाजन से लेकर पंजाब, बंगाल,कश्मीर में हिंदुओं-सिखों की हत्या और दंगों के भयावह अनुभवों के बाद भी वह खामख्याली वैसी की वैसी ही है। पहले समस्या को बिगड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। जानकारों को अनसुना किया जाता है। राष्ट्रीय हित से पहले दलीय हित और छवि का हिसाब होने लगता है। फिर मामला बिगड़ने पर आसान उपाय ढूंढे जाते हैं। इस तरह मामूली घाव को गहरा कर उसका जैसे-तैसे इलाज किया जाता है।
सिख-हिंदू अलगाव का मामला भी मूलत: वैचारिक भ्रम है। सिखों को जबरन हिंदू बताने के बजाय हमें मुगल काल,इस्लामी अत्याचारों के विरुद्ध सिख गुरुओं के बलिदान और हिंदू वीरता का पूरा इतिहास सामने रखना चाहिए। सिखों को हिंदू समाज का ‘योद्धा अंग’ कहना शेष हिंदुओं को बेचारा दिखाता है। इससे अलगाववादी घमंड को ही हवा मिलती है। वस्तुत: मुगल अत्याचारों से लड़ने वाले युग में हिंदू-सिख भेद जैसी कोई चीज ही नहीं थी। यह सारा अलगाववाद पिछले सौ-सवा सौ साल की बात है।
19वीं सताब्दी तक सिक्ख हिंदुओं का अभिन्न हिस्सा समझे जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह को ‘आखिरी हिंदू शासक’ कहा गया था। उन्होंने सबसे अधिक दान काशी विश्वनाथ और जगन्नाथ पुरी मंदिरों को दिया था। पराजित अफगानों से सोमनाथ मंदिर का द्वार लौटाने की मांग की थी। सदियों तक अमृतसर हरि मंदिर विष्णु मंदिर के रूप में ही जाना जाता था। गुरुनानक की सीख पर चलते चार सौ वर्ष बीत जाने के बाद यह स्थिति थी! क्या वह गलत थी? क्या सभी सिख गुरुओं से अधिक समझ हाल के अलगाववादियों को है। वस्तुत: सच्चे इतिहास की शिक्षा में ही खालिस्तान जैसी अनेक समस्याओं की कुंजी है। उसके बिना हम तरह-तरह के हानिकारक मतवादों के शिकार होते रहेंगे।