VIEWS & REVIEWS
उत्तराखंड की सैन्य परंपरा को नमन
वेद विलास उनियाल
मुंबई के वानखेडे स्टेडियम में भारत इंग्लैंड का क्रिकेट टेस्ट मैंच चल रहा था। कमेंट्रेटर सुरेश सरैया मुंबई में जब भी मैच होते थे हमें दिखाने ले जाते थे। कमेंट्रेटर बाक्स के सामने बडे से स्क्रीन पर मैच दिखाई दे रहा था। तभी न्यूज पर में एक ब्रेकिंग खबर ने आंख नम कर दी। लिखा हुआ पढा जा रहा था थलसेनाध्यक्ष वी के जोशी नही रहे । मैच देखने का क्या मन होता , मैं सरैयाजी से कहकर चुपचाप वहां से घर चला आया।
उत्तराखंड की सैन्य परंपरा का एक सुंदर इतिहास है। इस सैन्य परंपरा ने सीमा पर लड़ने वाले आम सैनिक से लेकर देश को थलसनाध्यक्ष भी दिया था। लेकिन एकाएक उनके निधन से देश और उनके राज्य उत्तराखंड का एक एक व्यक्ति दुखी था। आज लगभग ढाई दशक के बाद फिर उत्तराखंड की पृष्ठभूमि से बिपिन रावत थलसेनाध्यक्ष का पदभार संभालने जा रहे हैं। एक बार फिर उत्तराखंड को गौरव मिला है कि उसका एक ,सैनिक देश की थल सेना का नेृतत्व करने का गौरव मिला है।
बिपिन्न रावत को वरियता क्रम पर नहीं बल्कि मेरिट आधार पर इस पद पर लाया जा रहा है। और उनकी नियुक्ति का आधार बताया जा रहा है कि देश की वर्तमान परिस्थितियों में वह कुशल सैन्य संचालन की क्षमता रखते हैं। 1978 मे ग्यारहवीं गोरखा राइफल्स बटालियन में कमीशन पाए बिपिन्न रावत की असाधारण क्षमता और अनुभव काबंटे और फक्शनल स्तर पर लडने का है। उत्तराखंड के सैन्य इतिहास में कुमाऊं रेजिमेंटस् देश की सबसे पुरानी रेजिंमेंट्स में है। इस रेजिमेंट्स ने भारत को तीन सेनाध्यक्ष एसएमश्रीनागेश जनरल थिमैय्या आर जरनल टीएन रैना दिए हैं। इसके पराक्रम शौर्य की अनेक गाथाएं हैं।
भारत का प्रथम सर्वोच्च रक्षा सम्मान मरणोपरांत चार कुमाऊं रेजिमेंट्स के मेजर सोमनाथ शर्मा को दिया गया था। भारत विभाजन के समय जम्मू कश्मीर के मोर्चें पर चार कुमाऊं बटालियन ने असाधारण वीरता दिखाई थी। 1962 के युद्ध में रंजागंला में मेजर शैतान सिंह के नेृत्व में सैनिकों ने चीनी सैनिकों के खिलाफ जर्बदस्त मोचार्बंदी की थी। 1815 में गोरखा अंग्रेजों के युद्ध में गोरखा पराजित हुए। लेकिन गोरखाओं के युद्ध कौशल से अंग्रेज प्रभावित हुए थे। इसी आधार पर उन्होंने गोरखा रेजिंमेंट बनाई ती इसमें पहाड के लोगों को भी शामिल किया गया।
इसी गोरखा रेंजिमेंट की दूसरी बटालियन से अल्मोडा में गढवाल बटालियन का गठन हुआ। 1887 में कालोडांडा मे ( अब लैंसीडोन ) में छावनी बनाने का काम सौंप गया। 1891 में गढवाली 39वीं रेजिमेंट आफ बंगाल इंफैट्री का गठन बर्मा में चीनियों के खिलाफ युद्ध के लिए भेजा था। 1921 में इसे रायल खिताब मिला था। 1945 में इ से रायल गढवाल राइफल्स कहा जाने लगा। स्वाधीनता के बाद इसे गढवाल राइफल्स कहा गया। इसकी 19 बटालियन है। प्रथम विश्वयुद्ध में दरबान सिंह और गबर सिंह अपनीअपूर्व वी के लिए विकटोरिया क्रांस से सम्मानित हुए। पेशावर कांड के सैनानी चंद्र सिंह गढवा जुडे थे।
उत्तराखंड के सैनिकों ने युद्ध क्षेत्र में अपना कौशल दिखाया है। सीमा की रक्षा की है। चाह चीन का युद्ध हो जब सैन्य क्षेत्र में हम बहुत कमजोर थे। भारतीय सेना के श्स्त्र और प्रबंधन चीनी सेना के सामने कही नहीं टिकटा था। तब भारतीय सेना ने पतली स्वेटर पहन और बंदूक के सहारे बफीर्ले नेफा क्षेत्र मेंचीनियों संघर्षश किया था। जयवंत सिंह का पराक्रआज भी याद किया जाता है। 1965 का युद्ध हो या 1971 का भारत पाक युद्ध उत्तराखंड के सैनिक हमेशा देश के लिए समर्पित रहे। इसके बादके दौर में कारगिल , आपरेशन ब्लू स्टार, या फिर श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ मोचार्बंदी में यहां के सैनिकों का शर्य काम आया ।
उत्तराखंड में कहा जाता है कि हर घर से एक व्यक्ति सेना में जरूर होता। यहां शहीदों के गांव हैं। उत्राखंड के लोकगीतों में सैन्य क्षेत्र के गीत बहुत भावनाओं से गाए जाते हैं। यहां के परिवेश मेंसैन्य क्षेत्र ने कई तरह से प्रभावित किया। गौराविंत करने वाली गांथा तो हैं पर सैनिकों का हमेशा घर से दूर रहना गहरी उदासी भी लाया। यह सब तो तभी शुरू हो गया था जब युवाओं को प्रथम विश्व युद्ध मेंफ्रांस और जर्मनी जाना पडा।
ऐसे कई युवाओं को जिन्होंने ऋषिकेश और कोटद्वार भी नहीं देखा था। वे युद्ध के लिए गए। कई शहीद हो गए। वो गाथाएंआज जन जन में कही जाती हैं। पलायन का दौर भीलगभाग उसी दौर से शुरू हुआ। लेकिन परिस्थितियां बदलती रहीसेना में जाने का हौसला कम नहीं हुआ। आज भी सेना के प्रति लोगों में सम्मान का भाव है। उत्तराखंड जितना मने ऊंचे ऊंचे शिखरों को देता है उतना ही सीमा पर खडे सैनिक को भी। बचपन में एक कलैंडर में इदिराजीऔर उ उनके साथ तीन बच्चों की तस्वीर नजर आती थी। ये तीन बच्चे तीन सैनाओं की पोशाक पहने हुए होते थे। कई घरों में उस कलैंडर को टंगे देखत था।
किसी क्षेत्रमें किसी बडे पद को शुशोभित करने पर स व्यक्ति के अपने समाज के लोग खुशी जताते हैं षय़। लेकिन अगर वह पद भारतीय थल सेना कासर्वोच्च पद होतो लोगों की भावना महसूस की जा सकती है। देश का हर व्यक्ति संतोष महसूस कर रहा होगा कि कि इस दौर में एक बेहद काबिल अनुभव सेनाध्यक्ष के रूप में हमें मिला है। मनीष तिवारीजी एतराज है कि वरियता लांघ कर बिपिन्रावत को यह जिम्मेदारी दी गई।
शायद उन्हें जानकारी नहीं कि इंदिराजी के समय भीसर्वोच्च पद में नियुक्ति में वरियता को लांघ कर मेरि ट कोमहत्व दिया गया। विपिन रावत ने 1978 में आएमए में शोर्ड आफ आनर लेकर अपने इरादे बता दिआ थे कि उन्हें कहां पहुंचना है। कई उपलब्धियं उनके साथ है। आगे की चुनौतियों पर उनके कौशल और पराक्रम पर देश नजर रखेंगा।