Uttarakhand
29 जुलाई, 2004 को पूर्ण जलमग्न हुई पुरानी टिहरी को नमन


“…शेरू भाई! यदि इस टिहरी को डूबना है तो ये लोग मकान क्यों बनाये जा रहे हैं। शेरू हंसा ‘चैतू! यही तो निन्यानवे का चक्कर है, जिन लोगों के पास पैसा है, वे एक का चार बनाने का रास्ता निकाल रहे हैं। डूबना तो इसे गरीबों के लिए है, बेसहारा लोगों के लिये है, उन लोगों के लिए है जिन्हें जलती आग में हाथ सेंकना नहीं आता। जो सब-कुछ गंवा बैठने के भय से आंतकित हैं।….चैतू सोच में डूब जाता है, उनका क्या होगा? आज तक रोजी-रोटी ही अनिश्चित थी, अब रहने का ठिकाना भी अनिश्चित हो रहा है।’’
‘‘….वह मन की टीस को दबाये चैतू को समझाता है-चैतू बांध विरोधी और सर्मथक नेताओं की बात पर यकीन मत कर। ये लोग अपनी नेतागिरी चमकाने की बात करते हैं। तुम्हें बहका रहे हैं कि ‘कोई नहीं हटेगा, कोई नहीं उठेगा।’ और अपना परिवार उन्होने दो साल पहिले ही देहरादून में जमा लिया है। कोठी बना ली है। बच्चे वहीं पढ़ते हैं। यहां तो सिर्फ घर रखा है। दोहरा-तिहरा मुआवजा ले लिया है। ऊपर से टीएचडीसी पर मुकदमा भी कर रखा है।….इनकी दोनों ओर चांदी है, मारे तो हम गरीब ही जायेंगे। उधर बेचारे बहुगुणा जी तो सिद्धांतवादी हैं। पुर्नवास उनका विषय नहीं है। उन्हें तो गंगा की चिन्ता है। हिमालय की चिन्ता है। बड़े बांध से होने वाले पर्यावरण की चिन्ता है।….समस्या न हिमालय की सुलझी, न गंगा की, न पर्यावरण की, न टिहरी शहर की, न बांध में डूबने हेतु प्रतीक्षारत गांवों की, न चैतू की, न कठणू की, न टिहरी गढ़वाल की उस एक चौथाई आबादी की जो इस बांध से प्रभावित हो चुकी है और हो रही है।’’
टिहरी नगर और निकटवर्ती क्षेत्र के डूबने की कथा और व्यथा पर केन्द्रित उपन्यास ‘डूबता शहर’ टिहरी बांध बनने की मार्मिक शब्द यात्रा है। टिहरी बांध ने जमीन के एक हिस्से के साथ वहां के मानवीय समाज को भी अपने में विलीन किया था। आज नई पीढ़ी इस क्षेत्र को एक चकाचौंध वाले पर्यटक केन्द्र के रूप में देख रही है। परन्तु उन्हें यह भी महसूस होना चाहिए कि इस झील के अन्दर अतीत के एक समाज की सम्पूर्ण विरासत समाई हुई है। अपनी मातृभूमि से विस्थापन का दर्द लिए वह समाज आज भी अनेक नगरों-महानगरों में छितरा कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। बिडम्बना यह भी है कि उस मानवीय समाज के सबसे कमजोर वर्ग की त्रासदी की चर्चा बहुत कम सामने आयी है। साहित्यकार बचन सिंह नेगी ने ‘डूबता शहर’ उपन्यास में इसी स्थानीय शिल्पकार वर्ग के टिहरी बांध बनने से उपजे जीवन संघर्षों को रेखांकित किया है।
टिहरी (गढ़वाल) के तल्ली बागी गांव में 4 नवम्बर, 1932 को जन्में बचन सिंह नेगी का रचित साहित्य उन्हें अग्रणी लेखकों में शुमार करता है। ये अलग बात है कि उनका साहित्य अधिसंख्यक पाठकों तक नहीं पहुंचा है, परन्तु इन अर्थों में उसकी सार्थकता कम नहीं होती है। हिन्दी साहित्य में ‘प्रभा’ (खण्ड काव्य), ‘आशा किरण’ (कविता संग्रह), ‘भाव मंजूषा’(संकलित आलेख), ‘गंगा का मायका’(इतिहास लेखन), ‘डूबता शहर’(उपन्यास) तथा ‘मेरी कहानी’ (आत्मकथा) उनकी रचनायें हैं। गढ़वाली समाज एवं भाषा के लिए बचन सिंह नेगी का योगदान एक अमूल्य निधि के रूप में है। बचन सिंह नेगी ने रामचरित मानस, बाल्मिकी रामायण, वेद संहिता, महाभारत ग्रंथसार, श्रीमद्भगवत गीता, ब्रह्मसूत्र आदि महान रचनाओं का गढ़वाली भाषा में भावानुवाद किया है। निःसंदेह यह कार्य दुनिया के प्रपंचों एवं प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ही किया जा सकता था। एक तपस्वी की एकाग्रता को चित्त में आत्मसात करते हुए उनके द्वारा अनुवादित घर्म ग्रन्थ वर्षों के अथक श्रम-साध्य कार्य का ही परिणाम है।
उपन्यास का मुख्य पात्र ‘चैतू’ टिहरी नगर के हाथीखान मौहल्ले का है। चैतू के परदादा ख्यातिप्राप्त शिल्पी थे। लोहे की तलवार बनाने में उन्हें महारथ हासिल थी। शस्त्र बनाने का काम कम हुआ तो कृषि और घरेलू उपयोग की वस्तुयें उसके परिवार में बनाई जाने लगी। परन्तु आधुनिक बाजार के दबाब के कारण पैतृक अणसाल (कार्यशाला) की धौकनी की लौ उसके पिता जमनू के जमाने में ही मंद होकर टल्ले-टांके तक ही रह गई थी। लुहारी का छुट-पुट काम भी धीरे-धीरे जाने लगा। टिहरी बांध बनने की शुरुआती में ही चैतू पुस्तैनी कारीगर से मजदूर बन गया।Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur.