VIEWS & REVIEWS
सवाल उत्तराखंड की अस्मिता का !
सुलगते सवाल जिनका देना होगा ऐसे लोगों को ज़वाब
पहाड़ी न होकर भी अचानक पहाड़ियों के प्रति ऐसा प्रेम जागने का असली सच आखिर है क्या ?
फिर आज से पहले क्यूँ नहीं दिखाया गया इस तरह का पहाड़ प्रेम ?
प्रमोद रावत की फेसबुक वाल से साभार
उत्तराखंड के सियासत में दलाली की दुनिया का बेताज बादशाह बनने की होड़ में कुछ तथाकथित पत्रकारों ने शासन और सत्ता का जी भरकर दुरुपयोग किया। विश्वास के चोले के अंदर जब विष की शीशियां पाई गयी तो नेता और अधिकारियों के कान खड़े हो गए। आरटीआई, स्टिंग और हनीट्रैप के जरिए ये दलाल अपने-अपने नापाक मंसूबों को पूरा करते चले गए। छोटे बाबू से लेकर बड़े से बड़े बाबू और विधायक से लेकर मुख्यमंत्री तक इनकी तूती बोलने लगी। धीरे-धीरे इनके छुपे कैमरों में मुख्यमंत्रियों सहित कई नेता और अधिकारी कैद होने लग गए।
इसके बाद कैमरों में कैद हुए स्टिंगो की बोलियाँ लगने लगी और स्टिंगबाज मालामाल होने लगे, कोई बीबी बच्चों के डर से मजबूर तो कोई जनता के आगे चेहरा दिखाने के डर से मजबूर। सबने स्टिंगबाजों के आगे सरेंडर कर दिया और खुलकर जनता की सारी सम्पति इन पर लुटाने लगे। इनकी दलाली में कुछ स्वार्थी नेता और अधिकारी इनके पार्टनर बन गए जिनकी बदौलत अपने आस-पास ये और शेखी बघारने लगे। राज्य बनते ही दर्जन भर ऐसे लोग देहरादून में पत्रकार बनने आए और पत्रकार बनते-बनते दलाली और ब्लैकमेलिंग के बाजीगर बन गए। जिनके पास कुछ साल पहले तक एक स्कूटर नहीं होता था वो चार्टर्ड प्लेन से उड़ने लगे। उत्तराखंड में सारे पत्रकार क्या इनके आगे कम प्रतिभाशाली है, या फिर यही बड़े और असली पत्रकार है, जिन्होंने चंद सालों में इतनी अकूत संपत्ति कमा ली।
आज खुद को पहाड़ और पहाड़ियों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाले स्वयंभू तथाकथितों की हकीकत और उनके नापाक मंसूबों को हर पहाड़ी को समझना चाहिए। अगर अब भी नहीं समझे तो आने वाले दिनों में सब को बहुत पछताना पड़ेगा। डर्ती पॉलिटिक्स की वजह से ऐसे लोग सीधे प्रदेश के मुखियाओं पर ऊँगली उठाते है और उनके राजनीतिक विरोधियों के मुखौटे बन जाते है। राजनीतिक विरोधी इस काम के लिए इन्हें बहुत सारा पैंसा और राजनीतिक संरक्षण भी देते है।
प्रदेश में ऐसा कोई जगलर नहीं है जिसके सर पर किसी बड़े नेता और अधिकारी का हाथ न हो। ऐसे नेताओं और अधिकारियों का असली चेहरा पूरी जनता के सामने आना चाहिए और इनका राजनीतिक और सामाजिक विरोध होना चाहिए। ऐसे मुखौटे अपने आकाओं के कहने पर राज्य की सरकारों को अस्थिर करके प्रदेश और प्रदेश्वासियों का बेड़ा गर्क कर रहे है। जिस मुख्यमंत्री ने इनकी अवैध माँगे मान ली उसकी तरफ ये लोग चुप्पी साध लेते है और जो इनके झाँसे में नहीं आता उस पर ये पागल कुत्ते की तरह भौंकना शुरू कर देते है। इनका एकसूत्रीय कार्यक्रम सिर्फ भौंकना रहता है, इस काम के लिए इनको हड्डियाँ इनके आकाओं से मिलती रहती है।
पहाड़ी न होकर भी अचानक पहाड़ियों के प्रति ऐसा प्रेम जागने का असली सच क्या है या फिर आज से पहले इस तरह का पहाड़ प्रेम क्यूँ नहीं दिखाया गया?