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कर्मचारी संगठन स्थायी राजधानी गैरसैण के लिए इतना लंबा आंदोलन करते तो शायद समाज भी प्रेरित होता

पश्चिमी विश्व से अधिक भेदभाव तो शायद ही कहीं हुआ होगा

सर्वांगीण विकास के लिए प्रामाणिकता से प्रयास नहीं किये गए क्योंकि यह मान लिया गया कि आरक्षण तो कर ही रखा है

हरीश सती 

उत्तराखण्ड में सरकारी पदों पर पदोन्नति में आरक्षण के लिए चल रही हड़ताल के संदर्भ में सोशल मीडिया पर एक कुछ पत्र पदे। बहुत सी बातें पत्रोंमें लिखी गयीं है। लेकिन अधिकांशतः तर्क वही है जो परसेप्शन ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने हमारे मानसिक बोध में बिठा दी है। और सामाजिक समरसता उत्पन्न करने के लिए कुछ विवादास्पद तरीके भी सुझाये गए हैं जो औपनिवेशिक और वामपंथी पाठ्यक्रम वाले विचारक सुझाते रहे हैं।

कुछ जिज्ञासायें रही है जैसे भेदभाव मानव सभ्यता के साथ चला है और विश्व के हर हिस्से में चला है। पत्र के लेखक तो इसे डीएनए तक ले गए जब यह DNA में आ गया हो तो डीएनए की माया तो डीएनए ही जाने । फिर तो वैज्ञानिक विधि से डीएनए पर ही शोध फोकस कर लो। वैसे हाइपरबॉलिक लॉजिक है पर जब पब्लिक डोमेन में है तो चर्चा कर दी।

प्रश्न यह है कि जब आरक्षण की व्यवस्था ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने मैकडोनाल्ड अवार्ड के प्रावधानों के परिप्रेक्ष्य में हुए गाँधीजी के आमरण अनशन के बाद पूना पैक्ट के अनुसार दी तो क्या वे वाक़ई भारत की सामाजिक कुरीतियों के प्रति चिंतित थे? या यह 1909 के साम्प्रदायिक अधिनिर्णय की भांति भारतीय समाज में विभाजन की एक ओर शरारत थी? क्योंकि सामाजिक सुधार यानी भारतीयों में सामाजिक नवोन्मेष जिसे औपनिवेशिक शासन ने कभी अपने लिए हितकारी नहीं समझा।क्योंकि एक कुरीतिग्रस्त समाज पर शासन करना आसान होता है। क्योंकि सामाजिक सुधार की परिणीति अंततः राजनैतिक सुधार यानी स्वतंत्रता की मांग ही होती।

इसलिए ब्रिटिशों ने भारतीय समाज की उस विसंगति को अपने लिए एक घातक हथियार की तरह प्रयोग करने की ही सोची किसी के प्रति संवेदना से नहीं। और आरक्षण जैसा नकारात्मक समाधान निकाला। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों ही ब्रिटिश के जाने की आशा के बाद भारत को सर्वहारा के रंग में रंगने को लालायित,पहले सोवियत संघ और फिर चीन पोषक, कम्युनिष्टों ने जातिव्यवस्था को दास कैपिटल के वर्ग संघर्ष से मनमाने ढंग से जोड़ कर पत्र पत्रिकाओं के जबरदस्त आक्रमक अभियान से एक पूरी पीढ़ी को इस तथ्यहीन तथाकथित रोमांटिक बौद्धिक पैराडाइम में लपेट दिया। इसके बाद हर सत्ता ने समाधान के बजाय इतिहास और उपरोक्त डीएनए की दुहाई देकर राजनैतिक रोटियां सेंकी।

आपको बता दें पश्चिमी विश्व से अधिक भेदभाव तो शायद ही कहीं हुआ होगा। जहाँ भेदभाव नस्लीय था और दासों व्यापार का एक रूह कंपाने वाला इतिहास है। अमेरिका का गृहयुद्ध और अब्राहम लिंकन की हत्या तो शायद याद होगी।और क्या इंग्लैंड। लेकिन इस भारतीय तरह के आरक्षण जैसे आविष्कार का लाभ उन्होंने स्वयं क्यों नहीं उठाया? क्यों नहीं उन कम्युनिस्ट देशों ने ही उठाया जिनके वैचारिक दत्तक पुत्रों ने इसे भारत में वर्ग संघर्ष के वैमनस्यता पूर्ण विचार से घालमेल कर दिया।

यह बात समझ में नहीं आती की जो लोग इतिहास की खासकर मध्यकाल की ज्यादतियों को वर्तमान से जोड़ना उचित नहीं समझते। वे ही लोग इस जातिगत चर्चाओं में इतिहास की ब्रिटिश द्वारा परोसी गयी अवधारणा को, घसीटने का कोई अवसर नहीं छोड़ते।

हम एक बात एकदम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हिन्दू समाज में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए जो भी सवर्णों को करना पड़े, करना चाहिए। चाहे आरक्षण जैसी ब्रिटिश औपनिवेशिक नकारात्मक व्यवस्था ही सही। लेकिन उनके सर्वांगीण विकास के लिए प्रामाणिकता से प्रयास नहीं किये गए क्योंकि यह मान लिया गया कि आरक्षण तो कर ही रखा है। बस इसे ही बढ़ाते रहो। जिसने एकबार ले लिया वो ही लेता रहे उनका अलग वर्ग बन गया। जिन्हें नहीं मिला वे आज भी बदतर स्थिति में है। यदि किसी दलित को, आरक्षण से वंचित दलितों के लिए संवेदना होती तो वे मुहिम छेड़ते कि अब शेष रह गए लोगों को इसका लाभ लेने दो।

लेकिन सरकारी नौकरी का भूत ऐसा लगा है कि सबकी आत्मा अनसुनी करने लगती है। बस इन्ही सरकारी महकमों की दीवानगी ने आरक्षण को मुद्दा बना रखा है। जिस राज्य में जितने अधिक सरकारी कर्मचारी वहां उतना ही अधिक संवेदनशील मामला। जिनके लिए ब्रिटिशों ने दलित शब्द गढ़ा। उन्हींके पारंपरिक व्यवसायों को ब्रिटिश ने अपने खूनी हाथों से बर्बाद किया जिसके दस्तावेज खुद ब्रिटिश संसद में ब्रिटिश सांसदों ने रखे। जिन ब्रिटिशों ने प्लासी और बक्सर के बाद सबसे पहले बंगाल की धरती की दलित किसान और हुनरबन्दों कि हड्डियों से सफेद किया। और फिर द्वैध शासन की लूट से ब्रिटेन में औद्योगिक करण की आधारशिला रखी। और फिर चक्रवृद्धि ब्याज की तरह दिन दूना रात चौगुनी गति से पूँजी के दैत्य ने मशीनों की मार से भारत के अतुलनीय कारीगरी और विनिर्माण को अपने औपनिवेशिक सत्ता के प्रभाव और दमनकारी आर्थिक नीतियों से केवल डेढ़ सौ सालों में ही किसानों और विनिर्माणकारों को लहूलुहान करके रख दिया। भारत को ब्रिटिश फैक्ट्रीयों के लिए महज कच्चा माल उत्पादक उपनिवेश बना कर रख दिया गया। ब्रिटिश से पहले औरों ने किया।और दोष मढ़ दिया भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर।

अरे भई जिनके रोजगार के साधनों को नेस्तनाबूद कर दोगे तो उनका सामाजिक सम्मान भी कहाँ से रह जायेगा? सवर्णों का पारंपरिक संबंध शिक्षा से था तो थोड़ी अंगेरजी सीखकर ब्रिटिशों की बाबूगिरी करके अपनी कामचलाऊ इज़्ज़त बनाये रखी।लेकिन सारी सरकारी और मिशनरी प्रिटिंग प्रेस इसी धारण को पुष्ट करने में लगी रही कि प्राचीन भारत में सवर्णों ने बहुत अन्याय किया अगर विदेशी सत्ताएं नहीं आती तो इनके साथ जाने क्या होता।ठीक उल्टा लॉजिक। इन ब्रिटिशों ने भारत को दिया चरमराया कृषि तंत्र,उद्योग विहीनता के कारण कृषि प्रधान देश, साम्प्रदायिक अधिनिर्णय, पूना पैक्ट, बाबू छाप शिक्षा पद्ध्यति। ताकि जिसने जो पढ़ा और कहीं सुना उसे ही दूसरों के सामने उगलता रहे। अपना शोध मत करना और अपना दिमाग नहीं लगाना।जिन क्षेत्रों में कभी दलितों का वर्चस्व व एकाधिकार था,उनके निर्माणों में आज मल्टीनेशनल कंपनियां चांदी काट रही हैं। लेकिन इसपर किसी को ध्यान नहीं दिलाना है। स्वरोजगार के माध्यम से क्रांति करने के बजाय उन्हें सरकारी आरक्षण में ही उलझा रखा है। सबने मैकाले की किताब पढ़ी है ।किसी को छोटा बाबू और किसी को बढ़ा बाबू बनना है, अंग्रेजो की तरह रॉब झाड़ने और पैसा कमाने के लिए।

ब्रिटिश द्वारा ऐसे छोड़े गए समाज की प्राथमिकताएं भी आरक्षण में प्रमोशन से ज्यादा क्या होगी? अपने भ्रष्टाचार से सारे पहाड़ का पैसा चूस कर देहरादून लाने वाले इससे ज्यादा क्या प्राथमिकता तय कर सकते है। किसी बहुत आवश्यक और समाजोपयोगी मुद्दे पर नही बल्कि सिर्फ गिने चुने लोगों के प्रोमोशन के लिए सरकार बंधक बना रखी है। उत्तराखंड राज्य के लिए तत्कालीन कर्मचारी सड़कों पर आए थे वो तो एक सामाजिक सरोकार था। अब यदि स्थायी राजधानी गैरसैण के लिए इतना लंबा आंदोलन करते तो शायद समाज भी प्रेरित होता लेकिन स्कूल -स्कूल तक में 5400 ग्रैड पे के मुख्यप्रशासनिक अधिकारी के पद सृजित करवा कर अब पदोन्नति के अधिकार से ज्यादा कोई बात महत्पूर्ण नहीं है इनके लिए। जिस जनता के खून पसीने से ये ग्रेड पे आनी है, उसको भी नहीं बख्शना। कब के रिटायर हो चुके लोग सयुंक्त कर्मचारी परिषद को छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं। अपना -अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश, राजस्थान और झारखंड में इस सवर्ण / दलित के फार्मूले के चुनावी परिणामों ने राजनीतिज्ञों को इस फार्मूले को अन्य राज्यों में इस्तेमाल करने का लालच तो दिया ही होगा। लेकिन सौहार्द तो सारे समाज का बिगड़ने के अंदेशा जा ही रहा है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से चली आ रही ये आरक्षण की कूटनीति, बस चली ही आ रही है। ब्रिटिश भारतीयों के गले में ये क्या डाल के चले गए?

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