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महाराष्ट्र में केन्द्रीय मंत्री के बयान पर कोहराम

कमल किशोर डुकलान
राजनैतिक दलों के बड़बोले नेताओं की बयानबाजी से उद्दंड कार्यकर्ताओं का मनोबल ही बढ़ता जाता है,जो देश के राजनीतिक परिदृश्य के लिए संकट की बात है इससे देश का संघीय ढांचा कमजोर होता है।
जब मर्यादाएं टूटती हैं,अशोभनीय दृश्य ही रचती हैं। दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में ऐसे दृश्य अब बार-बार उभरने लगे हैं। महाराष्ट्र में रत्नागिरी पुलिस द्वारा केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की गिरफ्तारी भारतीय राजनीति के क्षरण का ताजा उदाहरण है।
 केन्द्रीय मंत्री ने अपनी जन-आशीर्वाद यात्रा के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बारे में अशालीन टिप्पणी की थी, जिसके विरुद्ध महाराष्ट्र सहित देश के अनेक हिस्सों में शिव सैनिकों में तीखी प्रतिक्रिया हुई और राणे के खिलाफ कई थानों में प्राथमिकी दर्ज करा दी गई। रत्नागिरी कोर्ट से अग्रिम जमानत की याचिका खारिज होने और बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा त्वरित सुनवाई से इनकार के बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके साथ ही राज्य में कई जगहों पर शिव सेना व भाजपा कार्यकर्ता आपस में भिड़ गए और एक तनावपूर्ण स्थिति पैदा हो गई। विडंबना यह है कि चंद वर्ष पहले तक यही कार्यकर्ता एक-दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव लड़ रहे थे और उनके नेता सत्ता में साथ-साथ भागीदार थे।
कुछ ही माह पूर्व मई में कोलकाता में ऐसे ही दृश्य देखने को मिले थे,जब कुछ नवनियुक्त मंत्रियों को सीबीआई ने नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में हिरासत में लिया था और तब तृणमूल कांग्रेस व भाजपा के नेता-कार्यकर्ता आमने-सामने आ गए थे। उस समय भी राजनीतिक बदले के आरोपों-प्रत्यारोपों ने ऐसा कटु माहौल बनाया,जिससे जांच एजेंसियों की प्रतिष्ठा तो धूमिल हुई ही, आज तक केंद्र व पश्चिम बंगाल सरकार के रिश्ते सहज नहीं हुए हैं, संघवाद की आदर्श कल्पना से तो खैर कोसों दूर हैं।
सियासी प्रतिद्वंद्वियों से राजनीतिक स्तर पर निपटने के बजाय उन्हें कानूनी रूप से घेरने का चलन नया नहीं है, और इसके लिए तंत्र का बेजा इस्तेमाल भी दशकों से होता रहा है, पर हमारे राजनेता एक-दूसरे के खिलाफ यूं अभद्र भाषा का इस्तेमाल सार्वजनिक रूप से नहीं करते थे।
समाज इसे अच्छी नजरों से नहीं देखता था। शायद इसीलिए तीखे राजनीतिक विरोध के बावजूद उनके निजी रिश्ते बने रहते और इस कारण संसदीय प्रक्रियाओं का निबाह भी आसानी से हो जाता था, बल्कि सामाजिक स्तर पर राजनीतिक खेमेबाजी की कटुता भी नहीं आ पाती थी। लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय राजनीति की यह खूबी तेजी से समाप्त हुई है जिसके लिए हमारा पूरा राजनीतिक वर्ग जिम्मेदार है।
नारायण राणे शिव सेना,कांग्रेस और भाजपा,सभी पार्टियों में रह चुके हैं। ऐसे में, उनसे अधिक परिपक्वता की अपेक्षा की जाती है। फिर वह स्वयं एक सांविधानिक पद पर हैं,अत: दूसरे सांविधानिक पद की गरिमा का उन्हें हर हाल में बचाव करना चाहिए। सवाल यह भी है कि बयानों के आधार पर यदि मुकदमे दर्ज किए जाने लगे और गिरफ्तारियां होने लगीं,तो कितने सारे विधायक,सांसद और मंत्री जेल में होंगे? निस्संदेह,एक आदर्श संघीय ढांचे के लिए जरूरी है कि पार्टी नेतृत्व अपने-अपने बड़बोले नेताओं पर नजर रखें। विडंबना यह है कि सभी दल ऐसे तत्वों को पुरस्कृत करने की भूमिका अपनाने लगे हैं। ऐसे में,। राजनीतिक बदले व प्रतिशोध की कार्रवाइयों से देश का संघीय ढांचा कमजोर हो रहा है,यह बात हमारी राजनीतिक पार्टियां जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा होगा।

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