पलायन की मार से बंद हुए अंग्रेजों के शासन काल में खुले स्कूल
- तो अब पौड़ी जिले के ग्वाड़खाल प्राथमिक विद्यालय हुआ बंद
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : यूँ तो उत्तराखंड के पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों से पलायन के आंकड़े गवाह हैं कि इन्हीं जिलों से सर्वाधिक पलायन हुआ है लेकिन दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी यह भी है कि इन्ही जिलों में सर्वाधिक प्राथमिक विद्यालय पलायन की भेंट चढ़ गए हैं। हालात यहाँ तक आ पहुंची है कि इन जिलों के अधिकाँश प्राथमिक विद्यालयों में जहाँ शिक्षकों की संख्या अधिक तो छात्रों की संख्या कम होती चली गयी ,नतीजन राज्य के शिक्षा विभाग को दो बच्चों पर दो शिक्षक की तैनाती के बाद थक हारकर इन विद्यालयों को या तो बंद करना पड़ा या यहाँ के छात्रों को पास के विद्यालयों में स्थानांतरित।
ताज़ा उदाहरण पौड़ी जिले के ग्वाड़खाल प्राथमिक विद्यालय का है जहाँ कभी अंग्रेजी शासन के दौर में दो पालियों में पांच-पांच सौ से अधिक बच्चे अध्ययन किया करते थे, इस साल अब यह विद्यालय छात्र संख्या शून्य होने के कारण बंद हो गया है । वैसे तो पौड़ी जिले के एकेश्वर ब्लॉक में इस वर्ष पांच प्राथमिक व एक उच्च प्राथमिक विद्यालय पर ताले पड़े, लेकिन एक सदी के गवाह रहे प्राथमिक विद्यालय ग्वाड़खाल का बंद होना सचमुच इस इलाके के लिए ही नहीं बल्कि पौड़ी जिले तक के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। इस विद्यालय के बंद होने का दोष जहां गांव में बचे कुछ ग्रामीण प्रदेश की सरकारी शिक्षा प्रणाली को दे रहे हैं, वहीं कुछ ग्रामीण इसे पलायन की मार बताते हैं।
गौरतलब हो कि पौड़ी जनपद के इस प्राथमिक विद्यालय ग्वाड़खाल की नींव वर्ष 1920 में रखी गई थी। मिट्टी-पत्थर से बने इस विद्यालय में तब ग्वाड़, थापली, सकिंडा, लछवाड़, बौंसली, बमोली, जैतोलस्यूं, देधार, नौदेणा, अमोठा व पाटीसैण के साथ ही कई अन्य गांवों के नौनिहाल शिक्षा ग्रहण करने आया करते थे। यह वह दौर था , जब क्षेत्र में सड़कें नहीं थी, लेकिन शिक्षा की ललक नौनिहालों को पैदल ही विद्यालय तक खींच लाया करती थी।
इलाके के बड़े बुजुर्गों के अनुसार छात्र-छात्राओं की बड़ी तादाद को देखते हुए तब विद्यालय दो शिफ्ट में चला करता था। सुबह की शिफ्ट में दूर-दराज के गांवों से आए बच्चे अध्ययन करते तो शाम की शिफ्ट में आसपास के गांवों के छात्र अध्ययन करते थे। ग्राम ग्वाड़ निवासी बुजुर्ग बचन सिंह बिष्ट अतीत को याद करते हुए बताते हैं कि विद्यालय में एक शिफ्ट में पांच सौ से अधिक बच्चे होते थे।
लम्बी गुलामी के बाद देश आजाद हुआ और धीरे-धीरे पहाड़ों में जगह-जगह विद्यालय खुलने का सिलसिला शुरू हो गया। वर्तमान में तो प्रत्येक ग्रामसभा में प्राथमिक विद्यालय है। ग्रामसभा बमोली के बुजुर्ग माणिक लाल चतुर्वेदी वर्तमान परिस्थितियों के लिए सरकारी नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं। वे कहते हैं, उस दौर में शिक्षा गुणवत्तापरक हुआ करती थी और शिक्षकों को भी अपने कर्तव्य का बोध था वे सीमित संसाधनों के बावजूद बच्चों को शिक्षा देते थे। नतीजा, बच्चों में शिक्षा पाने की ललक हुआ करती थी। लेकिन, आज स्थितियां पूरी तरह उलट हैं। सुविधाओं के बावजूद न शिक्षकों में न पढ़ाने की ललक है और न विद्यार्थियों में पढ़ने की ही इच्छा ।
वहीँ ग्रामीण भूपेंद्र सिंह थापा बताते हैं कि सरकारों ने राज्य में विद्यालयों के साथ ही अधिकारियों की फौज तो खड़ी कर दी है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने को कभी गंभीर प्रयास नहीं किए। नतीजा, दो बच्चों पर दो शिक्षक होने के बावजूद पढ़ाई का स्तर ऊपर नहीं उठ पा रहा और ग्रामीण निजी विद्यालयों की चकाचौंध और स्तरहीन शिक्षा और सरकारी विद्यालयों से अधिक फीस होने के बावजूद वहां पढ़ाई के लिए आकर्षित हो रहे हैं।