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अब…प्रचंड बहुमत का ‘दंड’.

योगेश भट्ट 
ये दंड नहीं तो क्या है, जनअपेक्षाएं हाशिये पर हैं और हमेशा की तरह नेताओं और अफसरों की मौज बहार । उत्तराखण्ड में कुछ नहीं बदला, सिर्फ चंद चेहरे बदले हैं । पिक्चर वही पुरानी है, बस नये निजाम में नये नेताओं के रिश्ते-नातेदार, करीबी और ‘वफादार’ मुख्य भूमिका में हैं।किसी को सरकार में खुद एडजस्ट होना है तो किसी को पत्नी बच्चे एडजस्ट कराने हैं। किसी की नजर बड़ी डील टिकी है तो कोई खुद ही फाइल लिए घूम रहा है । पावर सेंटर के इर्द गिर्द यही भीड़ है ।

प्राथमिकता में जनता है ही कहां, प्राथमिकतायें तो कुछ और हैं । मसलन ,भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलूनी की पत्नी जो ह्ल्द्वानी डिग्री कालेज में प्रवक्ता पद पर कार्यरत थीं, को प्रदेश सरकार ने बड़े ओहदे पर दिल्ली में प्रतिनियुक्ति पर तैनात कर दिया है। इससे कुछ दिन पहले एक और भाजपा नेता की शिक्षिका पत्नी और करीबियों को भी इसी तरह पहाड़ से उतारकर देहरादून अटैच किया जा चुका है। पसंद के चेहरों की पसंदीदा पोस्टिंग और मनमाने फैसले तो आम बात है। आश्चर्य यह है कि सब कुछ खुले आम, ना किसी का भय ना कोई परवाह ।

सच यह है कि कुछ बदलने की उम्मीद है भी नहीं। ‘न भय न भ्रष्टाचार’ और ‘सबका साथ सबका विकास’, भाजपा के ये चुनावी नारे सौ दिन के भीतर ही ‘जुमले’ साबित हो नजर आ रहे हैं । जनता तो उम्मीद कर रही थी कि इस प्रचंड बहुमत के बाद उसके अच्छे दिन आ जाएंगे। उसकी सुनवाई होगी। मगर हुआ इसके ठीक उलट। जनता के सपनों पर लगा ग्रहण तो बरकरार है, लेकिन बीजेपी नेताओं के सपने जरूर पूरे होने लगे हैं। केन्द्र में मोदी सरकार सुचिता, सुशासन और पारदर्शिता की लाख बात करे, नेताओं अफसरों को परिवारवाद, जातिवाद व क्षेत्रवाद से दूर रहने की नशीहत पिलाये। लेकिन उत्तराखण्ड में इसका कोई असर नहीं । यहां मोदी नाम की माला जपने वाले नेताओं के लिए ये सुचिता सिर्फ ढोंग भर है।

यहां चहेतों को एडजस्ट करने का काम तो पहले दिन से ही शुरू हो गया है। प्रचंड बहुमत ने मानो सरकार को दंभी बना दिया है, किसी की कोई परवाह नहीं। प्रदेश में चारधाम यात्रा चल रही है, यात्री दुश्वारियां भुगत रहे हैं। गर्भवती महिलाएं इलाज के अभाव में दम तोड़ रही हैं, अस्पतालों में डाक्टरों का इंताजर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा, वर्षों से दुर्गम में तैनात बीमार जरुरतमंद नीचे उतरने की राह देख रहे हैं, बेरोजगारों की मुट्ठी तनी हुई हैं।

हर कोई सरकार से उम्मीद लगाए बैठा है। लेकिन तस्वीर जुदा है, सरकार तो सिर्फ अपनों की उम्मीद पूरी करने में जुटी है। हां, ‘माफिया’ के चेहरे पर फिर से रंगत जरूर लौटने लगी है। जो कल तक की सरकार में सर्वेसर्वा थे, मौजूदा सरकार में भी उनकी धमक जामने लगी है । सालाना बजट भी अब सामने है ,रत्ती भर उसमें कुछ नया नहीं है। क्या हुआ उन दावों उन वादों का, जो यही नेता छह महीने पहले तक करते थे? इसी बदलाव के लिए था यह नारा ‘भाजपा के संग, आओ मिलकर बदलें उत्तराखंड’ ?

क्या वाकई नेताओं के अपने हित आम जनता के हितों से बड़े हैं? जिस सुचिता की बात कुछ महीनों पहले तक ये नेता करते थे क्या उन पर यह सुचिता लागू नहीं होती? याद कीजिए पिछली सरकार के कार्यकाल को जब अनिल बलूनी उस वक्त के मुखिया हरीश रावत को सुचिता का पाठ पढ़ाते थे, चुनौती देते थे। अब समझ में आता है कि क्यों मृत्युंजय मिश्रा जैसे अफसरों का कुछ नहीं बिगड़ता। अब समझ में आता है कि क्यों विवादित अफसरों की हमेशा पौ-बारह रहती है? बहरहाल अभी तो सरकार की शुरुआत है, यही हाल रहा तो आगे-आगे देखिए होता है क्या ?

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