देशभक्ति का प्रमाण तो नहीं, वंदे मातरम कहना..
योगेश भट्ट
शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह ने आजादी और व्यवस्था परिवर्तन के मायने स्पष्ट करते हुए एक लेख लिखा था, जिसका लब्बोलुआब यह था कि, आजादी और व्यवस्था परिवर्तन का कतई यह मतलब नहीं है कि देश की बागडोर अंग्रेजों के हाथों से छिटक कर भारतीय नेताओं के हाथों में आ जाए, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन से तात्पर्य समूची मानव जाति के उत्थान से है।
शहीद भगत सिंह मानते थे कि देशवासियों की असली लड़ाई आजादी के बाद शुरू होगी, जब उन्हें देशहित के लिए अपनी सरकार से लड़ना होगा। उनका मानना था कि यही असल ‘देशभक्ति’ होगी। जब शहीदे आजम ने ये विचार रखे थे, तब उन्होंने शायद ही कल्पना की होगी कि आजादी के बाद देश में देशभक्ति के नाम पर किस-किस तरह के प्रपंच रचे जाएंगे। वर्तमान दौर की बात करें तो इन दिनों हमारे देश में नारों के जरिए राष्ट्रवाद को तौला जा रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर तरह-तरह के नारे गढ रहे लोगों के बीच खुद को महा देशभक्त साबित करने की होड़ मची है। इसके साथ ही इन नारों का अनुसरण न करने वालों को देशद्रोही करार दिए जाने का चलन भी जोरों पर है।
राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह के नाम पर चल रहे इस ‘खेल’ से अभी तक अपना प्रदेश बाहर ही था, लेकिन पहली बार मंत्री बने धन सिंह रावत के एक बयान ने लगता है उत्तराखंड को भी इस खेल में झोंकने की तैयारी कर दी है। दो दिन पहले एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि, जो भी उत्तराखंड में रहेगा, उसे ‘वंदे मातरम’ कहना होगा। सवाल यह है कि आखिर वे इस बयान के जरिए क्या साबित करना चाहते हैं? क्या वे वंदे मातरम कहलवाकर उत्तराखंड वासियों की देशभक्ति की परीक्षा लेना चाहते है? क्या उन्हें इस प्रदेश की देशभक्ति पर शंका है? क्या वे नहीं जानते कि सैन्य बाहुल्य वाला उत्तराखंड आज से नहीं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के दौर से ही अपनी देशभक्ति के लिए दुनियाभर में जाना जाता है। क्या उन्हें वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के शौर्य और सिपाही गबर सिंह व दरबान सिंह के पराक्रम के बारे में कोई जानकारी नहीं?
और सवाल यह भी है कि क्या वंदे मातरम कहने भर से ही कोई भी व्यक्ति देशभक्त मान लिया जाना चाहिए, भले ही वह कितना ही बड़ा भ्रष्टाचारी क्यों न हो ? उत्तराखंड में रहने के लिए वंदे मातरम कहने की शर्त जारी करने के बजाय क्या यह अच्छा नहीं होता कि मंत्री जी यह कहते कि, जिसे उत्तराखंड में रहना है, उसे हर तरह का भ्रष्टाचार छोड़ना होगा, हर तरह की अराजकता त्यागनी होगी और पूरी सत्यनिष्ठा के साथ प्रदेश के विकास में अपना योगदान देना होगा। ऐसा नहीं है कि वंदे मातरम कहना कोई गलत बात है। निसंदेह वंदे मातरम की अपनी महत्ता है।
गुलामी के दौर में आजादी के परवानों के लिए इस नारे के मायने बेहद पवित्र थे। तब इस नारे के नाद में इतनी ताकत होती थी कि देशभर में लोगों का हुजूम सड़क पर उतर जाता था। लेकिन आजादी के बाद हमारे राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों, सामाजिक संगठनों तथा तमाम जिम्मेदार लोगों ने इस नारे की आड़ में देशहित के साथ कितना खिलवाड़ किया यह बताने की जरूरत नहीं है। आजादी के इतने सालों के बाद भी देश की व्यवस्था पटरी पर नहीं आ सकी है तो इसका एक बड़ा कारण यही है कि जिम्मेदार लोग व्यवस्था परिवर्तन की पहल करने के बजाय खुद को देशभक्त दिखाने साबित करने के प्रपंच ही रचते रहे।
बहरहाल उत्तराखंड की बात करें तो, आज जब प्रदेश में पहली बार किसी पार्टी को इतना बड़ा बहुमत मिला है तो उम्मीद की जा रही है कि सरकार बिना किसी डर और दबाव के राज्य हित में बड़े-बड़े फैसले लेगी। लेकिन अफसोस है कि यहां भी व्यवस्था परिवर्तन के बजाय देशभक्ति का प्रमाणपत्र जारी करने की परिपाटी शुरू होती दिख रही है।