न कोई नेता, न चुनाव आयोग और न शासन ने ली सुध ऐसे गांवों सुध
आधा दर्जन गांवों के लगभग दो हजार मतदाताओं ने मतदान का बहिष्कार क्यों किया ?
प्रेम पंचोली
क्या वजह है कि उत्तराखण्ड के आधा दर्जन गांवों के लगभग दो हजार मतदाताओं ने मतदान करने का बहिष्कार किया। इस बात की राजनीतिक गलियारों में कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई। बल्कि यदा-कदा लोग इस मुद्दे को चर्चा का विषय जरूर बना रहे हैं कि उन्हे ‘‘नोटा दबाना’’ चाहिए था, फलां-फलां आदि। और तो और इस बात को लेकर एक भी राजनीतिक पार्टी ने सुध तक नही ली,कि आखिर ग्रामीणो के सामने ऐसा कौन सा संकट आन पड़ा कि उन्हे मतदान करने से इन्कार करना पड़ा। अर्थात उस क्षेत्र के उम्मीदवार जिस तरह से मतदान करने से पहले गांव-गांव में ‘‘मत’’ को अपने पक्ष में करने की अपील कर रहे थे उसी तरह वे उम्मीदवार अमुक गांव में जाकर मतदान के ही दिन उन गांवों की समस्या को सुनते। उनके साथ उनकी मांगो को चुनाव जीतने या चुनाव के बाद प्रमुखता से उठाने की बात करते। मगर ऐसा प्रयास भी सामने नहीं आ पाया।
ऐसी भी खबर नहीं आई कि मौजूदा उम्मीदवार उन गांवों के मतदाताओं के पास गये हों और सिर्फ मतदान करने की अपील की हो। वैसे भी जब वे उम्मीदवार चुनावी समर में गोते लगा रहे थे तो इस हाल में कदापि नहीं दिखे कि 2000 मतदाताओं की नाराजगी दरअसल है क्या? वे तो चुनाव से पहले इस अंकगणित में उलझे नजर आये कि उनके पक्ष में मतदान की संख्या कहां से बढत में है। बस उन्हे मालूम था कि यदि आधा दर्जन गांव के लोग मतदान नहीं करेंगे तो उन पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि उन्हे सिर्फ व सिर्फ अपने पक्ष में निकट प्रतिद्वन्दी से ज्यादा ‘‘मतो का अंक’’ प्राप्त करना होता है। चाहे वे एक मत से ही क्यों न बढत में आये।
बड़ा प्रश्न यहां पर खड़ा हो रहा है कि क्या चुनाव आयोग का ही काम है कि वे लोगो को मतदान के लिए प्रेरित करे? क्या चुनाव आयोग ही बता सकता है मतदान करना आवश्यक है बगैरह। जगजाहिर हो कि चुनाव आयोग हो या कोई भी अन्य कामकाज, बिना लोगो की सहभागिता के किसी भी कार्य को सम्पन्न नहीं किया जा सकता। अतएव मौजूदा उम्मीदवार यदि यूं कहते दिखते की मतदान अनिवार्य है तो शायद अमुक उम्मीदवार की योग्यता के साथ यह अध्याय भी जुड़ जाता। जगह-जगह से जो खबरे सुनने में आ रही कि ‘‘जीतने के लिए’’ उम्मीदवारो ने ऐड़ी-चोंटी का जोर लगाया है। वह जोर कैसे लगाया? बताया गया कि खूब पैसा बहाया गया, खूब शोर-शराबा किया गया, क्षेत्रवाद, जातिवाद जैसे विषय उनके चुनावी नैय्या के वाहक रहे।
हालांकि इन विषयों के प्रमाण ना हों परन्तु जिन 2000 मतदाताओं ने मतदान का बहिष्कार किया उनके विकास के मुद्दे इसके उलट जरूर हैं। वे चाहते थे कि उनके गांव में व्यवस्थित पेयजल की सुविधा हो, उनके गांव के शिक्षा केन्द्रों में शिक्षको की पूर्ण व्यवस्था हों, गांव मोटर मार्ग से जुड़ जाये, स्वास्थ्य केन्द्र की सुविधा हो, पशुपालन केन्द्र हो, विद्युत की सुचारू व्यवस्था हो, सुचारू रूप से दूरसंचार की सुविधा गांव तक हो, प्राकृहतक संसाधनो का विकास ग्रामसभा के अनुरूप हो जैसे मूलभूत सवाल उन गांवों के सामने पिछले 60 वर्षो से मुहंबायें खड़े है। ग्रामीणो की चिन्ता की लकीरे अब और खींचने लग गयी कि उनके विरोध का किसी ने भी संज्ञान नहीं लिया है। क्या उनके गांव का विकास भविष्य में बिना सरकारी मदद का मोहताज रहेगा? क्या उनके गांव के विकास में राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं की नाराजगी बढ जायेगी? यदि इस तरह के सवाल खड़े होंगे तो इस लोकतांत्रिक देश में ऐसे अभावग्रस्त गांव देश के विकास की तस्वीर को अच्छी तरह से बयां कर सकते हैं।
उल्लेखनीय हो कि राज्य बनने के बाद पहले विधानसभा चुनाव में 54 प्रतिशत से अधिक का मतदान हुआ और 2007 में यह आंकड़ा मात्र पांच प्रतिशत ही बढ पाया। जबकि 2012 के विधानसभा चुनाव में हुए 70 प्रतिशत से अधिक के मतदान को सर्वाधिक बताया गया। और 2017 तक आते-आते यह आंकड़ा 2012 के मुताबिक तीन प्रतिशत पीछे खिसक गया। इस तरह से क्या इसे चुनाव सुधार कहेंगे या मतदान में लोगो की रूची बढना कहेंगे। यानि 16 वर्षो में 16 प्रतिशत भी नहीं वरन् 13 प्रतिशत मतदान ही बढ पाया। इससे आंकलन लगाया जा सकता है कि जनप्रतिनिधि 16 वर्षो में जनता के मुद्दो पर खरे नही उतर पा रहे है।
मतदान का अंकगणित कह रहा है कि राज्य में एक दर्जन से भी अधिक राजनीतिक पार्टीयां हैं। इन पार्टीयों के सभी ‘‘कैडर मत’’ 60 से 65 प्रतिशत का आंकड़ा बनाता है। सवाल इस बात का है कि राज्य बनने के बाद से अब तक आम मतदाताओं की संख्या में 20 प्रतिशत तक की बढोत्तरी नहीं हो पायी। यानी बाकि मतदाताओं को राजनीतिक पार्टीयों के उम्मीदवार अब भी रिझााने में फिसड्डी ही साबित हो रहे हैं। मतदान का प्रतिशत 90 से अधिक नहीं हो जाता तब तक यही कह सकते हैं कि जनविकास के मुद्दे राजनीतिक पार्टीयों के ऐजेण्डे में शामिल तो हैं मगर उनके उम्मीदवार लोगो के विश्वास को जीतने में असफल साबित हो रहे है। प्रश्न यही है कि मतदान का जिस तरह से ग्राफ बढ रहा है वह विकास की कहानी को अधूरा ही बता रहा है। वर्ना हर पांच वर्ष में मतदान का ग्राफ बढा हुआ नजर आता।
खैर! ‘‘वोट बैंक’’ बढने से स्पष्ट हो जाता कि लोगो का विश्वास राजनेताओ पर बढ रहा है। यदि राजनेताओं पर विश्वास बढ रहा है तो विकास के काम भी क्रियान्वित हो रहे है। जिस गति से वोट बैंक की रफ्तार बढ रही है उस तरह से यही कहा जा सकता है कि विकास की गाड़ी लीक पर ही अटक गयी है और लोग उस विकास नाम की गाड़ी को धक्का लगाकर भी धकेल नहीं पा रहे है।