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बेरोजगारों को नहीं प्रदेश में रोज़गार, सेवानिवृत अधिकारियों के लिए खुले हैं पुनर्र रोज़गार के द्वार

कुछ जुगाड़ू अधिकारियों और कर्मचारियों को एक नौकरी से सेवानिवृति के बाद दूसरी नौकरी बाहें फैलाकर कर रही होती है इंतज़ार

जबकि प्रदेश के बेरोज़गारों को तमाम घुमाव,अटकलों और भ्रष्टाचार के रास्तों से होकर गुजरने के बाद ही प्रदेश के नौनिहालों को मयस्सर होती है एक अदद नौकरी वह भी संविदा वाली   

राजेंद्र जोशी
देहरादून : देश का शायद उत्तराखंड एक मात्र ऐसा राज्य है जहां बेरोजगारों को रोज़गार दिए जाने की राह में सूबे के जिन अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा रोड़े लगाए जाते रहे हैं, वहीं अपनी 60 साल तक नौकरी करने की आयु पूरी कर चुके अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए तमाम रास्ते खुले हुए हैं यानि एक नौकरी से सेवानिवृति के बाद ऐसे लोगों के लिए दूसरी जगह नौकरी बाहें फैलाकर इंतज़ार कर रही होती है।
गौरतलब हो कि उत्तराखंड के अस्तित्व में आए 20 वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन उत्तराखंड के बेरोज़गारों के लिए अभी तक शासन से कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है।  कभी उपनल तो कभी पीआरडी तो कभी देश के अन्य विभागों या निजी संस्थानों के द्वारा वह भी तमाम घुमाव , अटकलों और भ्रष्टाचार के रास्तों से होकर गुजरने के बाद ही प्रदेश के नौनिहालों को एक अदद नौकरी मयस्सर होती यही वह भी कभी दैनिक वेतन भोगी के तौर पर तो कभी कॉन्ट्रेक्ट का कमीशन हर महीने चुकाने के बाद। ऐसे बेरोज़गार अभी तक राज्य के अस्तित्व में आने के बाद अपने जीवन का आधा हिस्सा इस तरह की नौकरी में खपा चुके हैं लेकिन आज भी उनके पक्के होने की कोई गारंटी नहीं यानि वे आज भी कई वषों की नौकरी के बाद भी दो धारी तलवार पर चलते हुए अपना जीवन यापन करने को मज़बूर हैं। 
वहीं दूसरी तरफ राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से आज तक सूबे में सरकारी नौकरी करने वाले आईएएस, आईपीएस, पीसीएस और अन्य संवर्गों के जुगाड़ू अधिकारियों और कर्मचारियों की सेवा अधिवर्षता आयु पूर्ण करने के बाद भी  सत्ता की मलाई चाटने की लालसा पूरी नहीं हो पाती और ऐसे अधिकारी और कर्मचारी जुगाड़ कर एक बार फिर नौकरी पाकर सूबे के बेरोज़गारों और सामाजिक लोगों व बुद्धिजीवियों का हक़ छीनते जा रहे हैं। जिससे प्रदेश के बेरोज़गारों में आक्रोश पनपता जा रहा है। नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी का कहना है कि ऐसे अधिकारी बेरोज़गारों का ही हक़ नहीं छीनते बल्कि कई बुद्धिजीवियों का भी हक़ मारते रहे हैं जिन्हे सूबे के तमाम आयोगों, परिषदों, अभिकरणों, संस्थानों और निगमों में सेवा करने का अवसर मिलता। उनका कहना है की सेवानिवृत्ति के बाद भी ऐसे अधिकारियों को मोटी पेंशन तो मिलती ही है साथ ही भ्रष्टाचार से कमाया गया मोटा धन भी इनके बैंक खातों और तमाम निवेशों की शोभा बढ़ाता रहता है लेकिन इतना सब होने के बाद भी इनकी पैसा अर्जित करने की लालसा पूरी नहीं होती, जबकि यदि इनके स्थान पर कोई बुद्धिजीवी या समाजसेवी नियुक्ति होती तो वह उत्तराखंड की तन-मन-धन से सेवा भी करता और राज्य के भविष्य के बारे में भी सोचते हुए यहाँ का नीति नियंता बनता।  लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे लोगों को न तो सत्ता ही आगे आने देती हैऔर शासन में कुर्सी तोड़ रहे अधिकारी।  
सबसे दुःखद बात तो यह है जिस राज्य को एक बड़े आंदोलन और लगभग चार दर्जन शहादतों के बाद प्राप्त किया गया है उसी राज्य में राज्य आंदोलनकारियों को मिले क्षैतिज आरक्षण को शासन में बैठे आला अधिकारियों ने धत्ता बताते हुए समाप्त करवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और न्यायालयों में ठीक से पैरवी तक नहीं की जिसका परिणाम अब यहाँ तक आ पहुंचा है कि उत्तराखंड के मूल निवासियों को तो उत्तराखंड में एक अदद छोटी सी सरकारी नौकरी तक उपलब्ध नहीं हो पा रही है और अन्य प्रांतों के बेरोज़गारों के लिए रोज़गार के द्वार खुले हुए हैं। सूबे में पोस्टल विभाग सहित कई अन्य विभागों में बाहरी प्रदेशों के युवाओं को मिलता रोज़गार एक उदहारण है।
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