मनोज रावत
मोदी जी, उत्तराखंड के टेहरी जिले के घुत्तु कस्बे से 20 किलोमीटर दूर एक गांव है गंगी। 10 किलोमीटर सड़क और फिर 10 किलोमीटर पैदल । आवादी – 700 परिवार 140 के लगभग , साक्षरता आंकड़ों में कुछ भी हो पर अंगुलियों में गिनती के लोग ही कामकाज लायक पड़ना- लिखना जानते हैं। इक्का-दुक्का ही बैंक के कामकाज करने भर का पड़ा-लिखा है। बैंक भी 20 किलोमीटर दूर घुत्तु में है।
“गंगी गांव ” में “री “से लेकर “गंगी ” तक कुल 5 तोकों (छोटे गाओं) में फैला है। अधिकांश शादियां भी गांव में ही होती हैं।
साल के अधिकांश महीने इस गांव में ठंडक या बर्फ रहती है। बाहर की दुनिया से ये कारोबार के अलावा और सारे मामलों में कटे से रहते हैं।
गांव की एक खूबी है, ये लोग मेहनत से आलू जैसी नकदी फसलों को उगाते हैं, हिमालय की दुर्लभ जड़ी- बूटियों को लाकर बेचते हैं, भेड़ों को पालते और बेचते हैं। अभी “गंगी” का दौरा करके आये etv के रिपोर्टर संदीप गुसाईं जी ने बताया कि वे “पहाड़ी भेड़ पालकों के कुत्ते के पिल्लों ” को भी बेचते हैं ।
याने जो फायदे का काम मिल जाये “गंगी वाले” उस व्यापार को कर देते हैं।”चमड़ी जाये पर दमड़ी न जाये ” के सिद्धांत का पालन करते हुए रुपये को दांत से दबाये रखते हैं। खर्च बहुत कम करते हैं।पहाड़ में ऐसे “बणिक” का मिलना दुर्लभ है। नैन सिंह ही गंगी के माने हुए व्यक्ति हैं और गांव के प्रधान हैं। उनके ही परिवार के लोग पड़े-लिखे और गांव में ही नौकरियों पर हैं। उन्हें मैं सालो से जनता हूं।
ठण्ड और दुर्गम पहाड़ों में मेहनत से कमाये इस धन को ये लोग जरुरतमंदों को ब्याज पर देते हैं। इस लेन-देन का गवाह उनका भगवान होता है। गंगी के लोग “साहूकार” का काम भी करते हैं पर वसूली के लिए किसी को धमकाना तो दूर तू भी नहीं बोलते।बताते हैं कि उनके देवता का इतना भय है कि , उधार लेने वाला बिना लिखत- पडत के लिए इनके पैसे को डकारने की हिम्मत करना तो दूर सोच तक नहीं सकता है।
इनके उधार पर दिए पैसों से ही पूरी केदार घाटी में बड़े-बड़े होटल, व्यापारिक प्रतिष्ठान बने हैं । इन फटे- हाल करोड़पतियों के पैसे से केदारघाटी में अट्टालिकाये खड़ी हुयी हैं। केदारनाथ आपदा के बाद जब बैंक वाले इस केदारघाटी घाटी में लोन देने का विचार त्याग चुके थे तो “गंगी” के लोगों के कर्जे ने केदारघाटी में व्यापार को खड़ा रखा और पुनर्निर्माण करने -कराने के जोखिम को उठाने का हौसला दिया। ये लोग पंवाली कांठा के रास्ते पैदल, त्रिजुगीनारायण होते हुए केदारघाटी में प्रवेश करते हैं। लोगों का मानना है कि , “गंगी” के हर घर में हमेशा अच्छा- खासा धन रखा रहता है।
नोट बंदी के बाद “गंगी” के लोगों में कम खाकर मेहनत और व्यापारिक कौशल से कमाये धन जिनमें 500 और 1000 रुपये के नोट भी होंगे को खपाने की आफत आ गयी। अफवाह है कि, एक भोला-भाला गंगी वासी 72 लाख के अमान्य करेंसी नोट लेकर बैंक में नोट बदलवाने पंहुचा था।
नोट-बंदी के दौर से पहले और अब लेकर मैं केदारघाटी में घूम रहा हूं । मुझे लोगों ने बताया कि जैसे -तैसे नुकसान कराकर “गंगी” के लोगों ने अपने घर में रखी करेंसी को खपाया।
मोदी जी उत्तराखंड के लोग ही “गंगी वासियों” के जीवन की कठिनाइयों की कल्पना नहीं कर सकते। बिषम परिस्तितियों में रहकर इस गांव के लोगों ने जो मेहनत से कमाया अपने घर में ही रखा। ये आयकर नाम की बला को भी नहीं जानते। आंकड़े और हक़ीक़त गवाह हैं कि सरकारों ने इन गंगी वालों को इन गूढ़ चीज़ों को सीखने लायक पढ़ाया-गुणाया नहीं। न ही इनको बिजली -सड़क- अस्पताल दिया।
“गंगी” के लोगों की तरह देश भर के “बनिया” या व्यापारी वर्ग की कमर “नोट-बंदी” ने तोड़ दी है। भले ही यह वर्ग खूब पड़ा-लिखा हो पर ये भी व्यापार को पुराने तरीके से ही करना पसंद करते हैं। अपने पास खूब नगदी रखते हैं।
गंगी के लोग भी कुछ सालों पहले शाकाहारी थे। शाकाहार, कम खर्च करना, पैसे को बहुगुणित करना, “जो हाथ में वही धन अपना” के सिद्धान्त को मानकर धन को घर में ही रखने के इनके सारे लक्छण “बनियों” जैसे लगते हैं । ये भी हो सकता है कि , गंगी के लोग भी कभी ” बनिया ” जाति के रहे होंगे। क्योंकि पहाड़ में सारे लोग बाहर से ही आये हैं और यंहा की उपजातियों को प्रयोग करते हैं।
मोदी जी कही दिनों से मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है, भोले- भाले , अनपढ़, किफायती , सरल जीवन जीकर एक-एक पैसे बचाने वाले “गंगी-वासियोँ” का मेहनत से कमाया धन, “काला धन” है या “साफ़-सुथरा” ? देश में ही टापू जैसे अकेले,अलग-थलग पड़े गंगी के अनपढ़ लोग , नोट बंदी के बाद हर दिन बदलने वाले नियमों को कैसे जान पा रहे होंगे ? गंगी जैसे देश में कही गांव या समुदाय होंगे जिनका न तो धन काला है न ही मन , पर पिस रहे हैं।