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लुटता पहाड़ और घड़ियाली आंसू बहाते नेता !

सब कुछ छिने लुटे जाने की हताशा की झलक देखनी हो तो इस राज्य  को देखिए

वेद विलास उनियाल 

देहरादून : अजब सी मानसिकता में जी रहा है उत्तराखंड। देश भर में यह आम धारणा है  कि कई बडे-  अहम पदों पर उत्तराखंडियों की नियुक्ति इस राज्य का भाग्य बदलने वाली है। मगर  धरातल में उत्तराखंड के पहाडी इलाकों की दशा कुछ और है। बेचारगी, लाचारगी  और धीरे धीरे सब कुछ छिने लुटे जाने  की हताशा  की झलक  देखनी हो तो  इस राज्य  को देखिए। 

सच तो ये है कि  चीन युद्द के समय जब इस पहाडी इलाके के गांव के गांव , शहीदों के गांव बन गए थे,  तब भी इतनी हताशा लोगों में नहीं थी, जितनी आज नजर आती है। एनआईटी के सुमाडी से हटाने की स्थिति में केवल इस गांव को नहीं पूरे पहाड को मशाल बन जाना चाहिए। यह छोटी घटना नहीं   पहाड के बदकिस्तमी की बहुत बडी घटना है।   समाज  अपने मतभेदों को भूलकर फिर सडक पर आए। 

कुछ तो पहाड अपनी बदकिस्मती से खाली होते गए, कुछ देश काल की दशाओं के चलते, मगर  कुछ अंजाम ऐसे मानो पहाडों को इस नियति पर लाने का फैसला हुक्मरानों ने कर ही डाला हो। आखिर क्यों बैर है इन पहाडी इलाकों से।  क्यों  नफरत हो रही है उन इलाकों से,  जिन्होंने तुम्हें नेता बनाया, ताकत सौंपी।  सोचिए कि ढाई लाख घरों में ताले लग गए हैं। और हम एनआईटी को सुमाडी से हरिद्वार ले जाने का ऐतिहासिक फैसला कराने पर तुल गए हैं।   क्यों सरकार इतनी लाचार हो गई हैं कि  भारी भरकम वेतन देने पर भी दो मेडिकल कालेजों को चला पाना मुश्किल हो रहा है।  क्या- क्या सेना के हवाले करते रहेंगे।  क्या  कल अपना जमीर, अपना अस्तित्व भी सेना के हवाले करोगे।  दो मेडिकल कालेज नहीं चलाए जा सकते तो क्यों मांगा था उप्र से उत्तराखंड।  क्यों सुमाडी से एनआईटी हरिद्वार लाने की कोशिश।  क्या एसएसबी का डेरा भी उठ रहा है।  पौडी से कई दफ्तर देहरादून चले आए।

नौकरशाह पहाडों तक नहीं जाना चाहते।  क्या नेताओं के लिए हरिद्वार का डेरा ही सुविधाजनक है।  क्या अड्डेबाजी के लिए हरिद्वार मुफीद है।  क्या हित छुपे हैं इसके पीछे।   पहाड के लोगों को समझाइए तो सही कि अगर ऐसा हो रहा है तो  क्या कारण है।  या उस जनता की मनोभावना की कोई फिक्र नहीं।  उसने तो वोट दे दिया।  

क्या  उत्तराखंड के लोगों के लिए यह बर्दाश्त कर पाना संभव होगा कि  एनआईटी को सुमाडी से हटाकर हरिद्वार के किसी इलाके में ले जाने की बात है।  आप कह सकते है कि हरिद्वार भी तो उत्तराखंड का क्षेत्र है। लेकिन व्यवस्था के इस पूरे आयाम को समझना होगा और उत्तराखंड आंदोलन के मूल भाव को समझना होगा। वीरान होते पहाड, ढाई लाख घरों में ताले यही कह रहे हैं कि पहाडों में  अब  कुछ नहीं बचने वाला।

प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड  चुनावी जनसभाओं में लोगों की भावना को पकड़ते हुए कहा था,   उत्तराखंड से मेरा लगाव है , इसे संवारने की जिम्मेदारी मेरी है। यहां का पानी और जवानी यहीं के काम आएगी।  टूटे हताश लोगों ने छप्पर फाड कर वोट दे डाले।  पंद्रह साल से रुके आंसू बहे और वोट में तब्दील होते गए कि   बदल डालो इस राज की सूरत। बहुत तड़पे हैं हम।  मगर यह क्या।  अब  कौन दिल्ली जाकर पुकार लगाए।  

  यहां   धरातल पर कुछ और हो रहा है।  अब तो सुमाडी में जिस एनआईटी का सपना देख रहे थे,  वहां फिर  बस्ती के बसने -संवरने का सपना देख रहे थे,  फिर से  गांव और उसके आसपास जीवनचक्र चलने का कौतूहल था ,  वह सब कुछ चूर चूर हो रहा है।  न जाने क्यों।  पहाडों से सब छिना जा रहा है।     क्या उत्तराखंड का मतलब केवल देहरादून  हरिद्वार, उधमसिंह नगर और हल्द्वानी रह जाएगा।   सत्ता का मद इतना कि  परवाह नहीं होती चीन बाड़ाहोती का खतरा भी दिखा रहा है। पहाड केवल तूफान, बरसात, भूस्खलन,  बिजली अंधड  हवा  से नहीं दरक रहा, हमारी  अपनी कमियों से भी  से ज्यादा उजड रहा।

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